लखनऊ: बहुत बरसों बाद आज सुबह-सुबह जानकीपुरम के अपने भूले-भटके दोस्तों-भाइयों को खोजने निकला। और मिल गया स्वर्गीय मोहन थपलियाल का घर। बेटी और बेटा तो काम पर निकल चुके थे, लेकिन उनकी पत्नी से भेंट हो गयी।
उस दौर के पत्रकार-साहित्यकार रहे हैं जो नमक-रोटी के साथ तो बसर कर सकते थे, लेकिन हराम की मलाई कभी तक उन्होंने होंठ या एड़ी तक नहीं लगाने का गवारा नहीं किया। दैनिक अमृत प्रभात अखबार की बंदी उन जैसे पत्रकारों के लिए बाकायदा शामत लेकर आयी थी।एक जर्मनी किताब के अनुवाद के लिए थपलियाल को नौ हजार रूपया मेहनताना मिला था। इतना रूपया देख कर उनकी बिटिया ने टीवी और फ्रिज खरीद लिया। मगर जब मोहन लौटे तो हालात देख कर भूख-हड़ताल पर बैठ गये। बोले:- इतना संकट चल रहा है, ऊपर यह सामान तो बिजली का बिल ही बढ़ायेगा। उसी अखबार से तबाही लेकर निकले दुर्धर्ष-जुझारू ओपी सिंह समेत अनेक दोस्तों ने ही उनकी भूख-हड़ताल खत्म करायी। मोहन थपलियाल
हां, इससे पहले उन्हें अमर उजाला में काम मिला था। पता चला कि यह नौकरी वीरेन डंगवाल ने जु़गाड़ कर लगवायी थी। मोहन कुछ दिनों तक तो यहां काम करते रहे, लेकिन जल्दी ही उन्हें लगा कि यह तो अनुकम्पा है, काम धाम तो है नहीं। फिर तन्ख्वाह कैसे हजम होगी। बेहद संवेदनशील मोहन थपलियाल ने फैसला किया और नौकरी को लात मार कर बेरोजगारी का दामन थाम लिया।
21 फरवरी-03 को उनकी मौत हो गयी। बीमारी थी लीवर की खराबी। शायद वे अल्मोड़ा से ही सीधे पत्रकारिता करने लखनऊ आये थे। मोहन जी के मित्रों के मुताबिक बेटी मुक्ति प्रिया और बेटा उमंग थपलियाल एक निजी कम्पनी में काम कर रहा है। पत्नी कमला हमेशा की ही तरंह घर सम्भाल रही है।
लेखक कुमार सौवीर लखनऊ के बेबाक और वरिष्ठ पत्रकार हैं।