हिंदी फ़िल्मों की खाद भी है, खनक भी और संजीवनी भी है खलनायकी

खलनायक जैसे हमारी समूची ज़िंदगी का हिस्सा हैं। गोया खलनायक न हों तो ज़िंदगी चलेगी ही नहीं। समाज जैसे खलनायकों के त्रास में ही सांस लेता है और एक अदद नायक की तलाश करता है। सोचिए कि अगर रावण न होता तो राम क्या करते? कंस न होता तो श्रीकृष्ण क्या करते? हिरण्यकश्यप न हो तो बालक प्रह्लाद क्या करता? ऐसे जाने कितने मिथक और पौराणिक आख्यान हमारी परंपराओं में रचे बसे हैं।

तो क्या प्रणव मुखर्जी या कोई और सही विश्वनाथ प्रताप सिंह को दुहरा सकता है?

तो क्या प्रणव मुखर्जी या कोई और सही विश्वनाथ प्रताप सिंह को दुहरा सकता है? हालां कि इस की तुरंत कोई संभावना नहीं दिखती। पर आशंका भरपूर है। और इस बात की ज़रुरत भी। प्रणव मुखर्जी के अंदर प्रधानमंत्री बनने की इच्छा तो बहुत दिनों से है। बस जो नहीं है उन के अंदर वह साहस नहीं है। बगावत का साहस। बाकी तो सब कुछ है उन के अंदर। और देश की राजनीतिक स्थितियां भी उन के मनोनुकूल हैं।

हिंदी लेखकों और पत्रकारों के साथ घटतौली की अनंत कथा

हिंदी में अजब घटतौली है। कमोवेश हर जगह। क्या प्रकाशक, क्या संपादक, क्या अखबार या पत्रिकाएं। सब के सब एक लेखक नाम के प्राणी को गरीब की जोरु को भौजाई बनाने का सुख लूट रहे हैं। जाने कब से। पहले जब लिखना शुरू किया था तब लगता था कि लिख कर हम अपने को कागज पर रख रहे हैं। सब के सामने आने के लिए। एक स्वर्गानुभुति भी कह सकते हैं। छपने का तो शुरू में सोचते भी नहीं थे। लिखना ही लिखना था। बाद के दिनों में कहीं छपना भी एक सपना हुआ करता था। छपना ही। पैसा नहीं। पैसे का सपना नहीं। लिख कर पैसा भी मिलेगा ऐसा कभी तब सोचा भी नहीं था। पर जब पहली बार एक कविता आज अखबार में छपी तो लगा कि क्या पा गए हैं।

साहित्यपुर के संत और उन के रंगनाथ की दुनिया

विश्रामपुर के संत ने जब आज अंतिम विश्राम ले ही लिया है तो यह सोचना लाजिमी हो गया है कि क्या श्रीलाल शुक्ल ही रंगनाथ भी नहीं थे? जी हां, मैं उनके रागदरबारी के नायक रंगनाथ की बात कर रहा हूं। सच यह है कि जब रागदरबारी मैंने पढ़ा था तब तो लगता था कि मैं भी रंगनाथ ही हूं। ‘पाव भर का सीना और ख्वाहिश सायराबानो की’ जैसे संवाद में धंसे व्यंग्य की धार और रंगनाथ के दर्पण में अपना अक्स देखना तब बहुत भला लगता था।