: त्रिवेणी के विलाप का यह विन्यास : कल हम भी प्रयाग हो आए। गए थे एक पारिवारिक काम से। पर थोड़ा समय मिला तो कुंभ नगरी भी गए। जा कर कुंभ का जायज़ा भी लिया। गए थे संगम नहाने, गंगा नहा कर लौटे। पहले तो नाव नहीं मिली। पर जब ध्यान से देखा तो पता चला कि बीच नदी में जो नावों का कारवां सजा था संगम की दुकान के नाम पर वहां तो संगम था ही नहीं। पर क्या साधू-संन्यासी, क्या भक्तजन या कोई अन्य भी संगम नहीं नहाया इस पूरे कुंभ में। क्यों कि संगम तो अपनी जगह बदल गया था। संगम की जगह किले के पास आ गया है। उस संगम पर कोई नहाने गया ही नहीं। न ही प्रशासन ने इस पर कोई ध्यान दिया, न ही कोई व्यवस्था की। क्या यह सब भीड़ के नाते हुआ या लापरवाही के नाते?
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स्याह होती संवेदनाओं में रंग भरती दयानंद पांडेय की कहानियाँ
झूठे रंग रोगन में चमकते चेहरे और मनुष्यता को लीलते हुए बाजार पर पैनी निगाह रखे हुए कथाकार दयानन्द पाण्डेय वस्तुतः स्याह होती संवेदनाओं में रंग भरने वाले अनोखे कथाकार हैं। अनोखापन इसलिए कि एक तरफ तो वे आम आदमी की पक्षधरता ले बैठे हैं। तो दूसरी तरफ ज्वलंत समस्याओं की अग्नि में सीधे हाथ डालते हैं। इस कार्य से उपजे दुख विडम्बना और संत्रास से वे खुद भी पीड़ित होते हैं। इस प्रकार कथाकार दयानन्द पाण्डेय मानवीय पीड़ा को समूची संवेदना के साथ उभारते हैं। उनकी कहानियों में कोई झोल नहीं होता वे सहजबोध के असाधारण लेखक हैं।
सहजता ही दयानंद पांडेय की कहानियों की शक्ति है
सहजता ही दयानंद पांडेय की कहानियों की शक्ति है। उन की कहानियों में व्यौरे बहुत मिलते हैं। ऐसा लगता है, जीवन को यथासंभव विस्तार में देखने की एक रचनात्मक जिद भी उन के कहानीकार का स्वभाव है। इस शक्ति और स्वभाव का परिचय देती उन की यह कहानियां इस संग्रह में पढ़ी जा सकती हैं। इन कहानियों में समकालीन समाज के कुछ ऐसे बिंब हैं जिनमें ‘अप्रत्याशित जीवन’ की अनेक छवियां झिलमिलाती हैं।
जिय रजा कासी!
काशीनाथ सिंह का उपन्यास अपना मोर्चा जब पढ़ा था तब पढ़ता था और उस का ज्वान उन दिनों रह-रह आ कर सामने खड़ा हो जाता था। उन का कहानी संग्रह आदमीनामा भी उन्हीं दिनों पढ़ा। माननीय होम मिनिस्टर के नाम एक पत्र या सुधीर घोषाल जैसी कहानियां एक नया ही जुनून मन में बांधती थीं। बाद के दिनों में काशी का अस्सी सिर चढ़ कर बोलने लगा। अब तो चंद्रप्रकाश द्विवेदी ने इस पर एक फ़िल्म भी बना दी है।
हिंदी फ़िल्मों की खाद भी है, खनक भी और संजीवनी भी है खलनायकी
खलनायक जैसे हमारी समूची ज़िंदगी का हिस्सा हैं। गोया खलनायक न हों तो ज़िंदगी चलेगी ही नहीं। समाज जैसे खलनायकों के त्रास में ही सांस लेता है और एक अदद नायक की तलाश करता है। सोचिए कि अगर रावण न होता तो राम क्या करते? कंस न होता तो श्रीकृष्ण क्या करते? हिरण्यकश्यप न हो तो बालक प्रह्लाद क्या करता? ऐसे जाने कितने मिथक और पौराणिक आख्यान हमारी परंपराओं में रचे बसे हैं।
तो क्या प्रणव मुखर्जी या कोई और सही विश्वनाथ प्रताप सिंह को दुहरा सकता है?
तो क्या प्रणव मुखर्जी या कोई और सही विश्वनाथ प्रताप सिंह को दुहरा सकता है? हालां कि इस की तुरंत कोई संभावना नहीं दिखती। पर आशंका भरपूर है। और इस बात की ज़रुरत भी। प्रणव मुखर्जी के अंदर प्रधानमंत्री बनने की इच्छा तो बहुत दिनों से है। बस जो नहीं है उन के अंदर वह साहस नहीं है। बगावत का साहस। बाकी तो सब कुछ है उन के अंदर। और देश की राजनीतिक स्थितियां भी उन के मनोनुकूल हैं।
हिंदी लेखकों और पत्रकारों के साथ घटतौली की अनंत कथा
हिंदी में अजब घटतौली है। कमोवेश हर जगह। क्या प्रकाशक, क्या संपादक, क्या अखबार या पत्रिकाएं। सब के सब एक लेखक नाम के प्राणी को गरीब की जोरु को भौजाई बनाने का सुख लूट रहे हैं। जाने कब से। पहले जब लिखना शुरू किया था तब लगता था कि लिख कर हम अपने को कागज पर रख रहे हैं। सब के सामने आने के लिए। एक स्वर्गानुभुति भी कह सकते हैं। छपने का तो शुरू में सोचते भी नहीं थे। लिखना ही लिखना था। बाद के दिनों में कहीं छपना भी एक सपना हुआ करता था। छपना ही। पैसा नहीं। पैसे का सपना नहीं। लिख कर पैसा भी मिलेगा ऐसा कभी तब सोचा भी नहीं था। पर जब पहली बार एक कविता आज अखबार में छपी तो लगा कि क्या पा गए हैं।
साहित्यपुर के संत और उन के रंगनाथ की दुनिया
विश्रामपुर के संत ने जब आज अंतिम विश्राम ले ही लिया है तो यह सोचना लाजिमी हो गया है कि क्या श्रीलाल शुक्ल ही रंगनाथ भी नहीं थे? जी हां, मैं उनके रागदरबारी के नायक रंगनाथ की बात कर रहा हूं। सच यह है कि जब रागदरबारी मैंने पढ़ा था तब तो लगता था कि मैं भी रंगनाथ ही हूं। ‘पाव भर का सीना और ख्वाहिश सायराबानो की’ जैसे संवाद में धंसे व्यंग्य की धार और रंगनाथ के दर्पण में अपना अक्स देखना तब बहुत भला लगता था।