अखबारकर्मियों के धरने के सौ दिन पूरे, मीडिया जगत बेखबर

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भारत के एक बड़े अखबार समूह के खिलाफ जारी धरने के 100 दिन 23 अक्टूबर, 2011 को पूरे हो गये। इस बीच धरना देते हुए छंटनीग्रस्त कर्मचारी और यूनियन के सहायक सचिव दिनेश कुमार सिंह की 10 सितम्बर, 2011 को उचित इलाज के बिना मौत हो चुकी है। कर्मचारी की मौत के बाद धरनार्थियों ने दिनेश की लाश के साथ टाइम्स ऑफ इंडिया, पटना के फ्रेजर रोड स्थित कार्यालय के मुख्य द्वार पर रोषपूर्ण प्रदर्शन किया।

यूनियन की मांग है कि धरनारत मृतक कर्मचारी को स्वास्थ्य बीमा के बावजूद बीमा लाभ से रोकने वाली टाइम्स ऑफ इंडिया प्रबंधन को मुआवजे की भरपाई करनी होगी। टाइम्स ऑफ इंडिया ने पटना में कार्यरत अपने 44 अखबारकर्मियों को अचानक 20-25 वर्षों की स्थायी नौकरी से निकाल-बाहर कर सड़क पर फेंक दिया है, जिनके बकाये वेतन के भुगतान संबंधी याचिका पर माननीय सर्वोच्च न्यायालय 31 अक्टूबर 2011 को फैसला सुनायेगी। छंटनीग्रस्त कर्मचारी 100 दिनों से टाइम्स ऑफ इंडिया, पटना के फ्रेजर रोड स्थित मुख्य कार्यालय के सामने धरने पर बैठे हैं, पर बिहार के किसी मीडिया समूह के लिए यह प्रकाशन योग्य समाचार नहीं है। सरकारी दूरदर्शन, आकाशवाणी और कुछ स्थानीय चैनलों ने धरने की खबर को प्रसारित किया है। धरने पर बैठे सभी छंटनीग्रस्त कर्मचारी भूमिहीन और बेहद गरीब हैं। बिहार के बहुल मीडिया समूह ने जिस तरह से गरीब छंटनीग्रस्त अखबारी कर्मियों के 100 दिनों से जारी खबर को प्रकाशन से बाहर रखा है, इससे यह स्पष्ट हो रहा है कि बिहार में गरीब और सताए हुए समाज की पत्रकारिता बंद हो चुकी है।

धरने, अनशन, जनांदोलनों की खबर को मीडिया समूह अब मुद्दे की बजाय खाद्य-पदार्थ की तरह देख रहे हैं। बावजूद मीडिया समूह से अपेक्षा की जाती है कि देश के किसी हिस्से में अगर न्यायोचित हकों के लिए धरना-आंदोलन चल रहा हो तो इसे समाचार का विषय बनाया जाये। प्रायोजित तरीके से पेश की गयी कथित आर्थिक मंदी के दौर में भारतीय समाचार चैनलों और अखबार समूहों ने दो वर्षों के अंतराल में 5 हजार से ज्यादा पत्रकारों की छंटनी कर दी थी। सभी छंटनी संविधान प्रदत्त भारतीय श्रम कानून की हिदायतों को धत्‍ता दिखाते हुए की गयी लेकिन हमारी जानकारी में किसी एक पत्रकार ने भी अपने हक के लिए अपने नियोक्ता के विरुद्ध श्रम न्यायालय में याचिका दायर नहीं की। मीडियाकर्मियों के साथ मीडिया स्वामियों की ज्यादती को समाचार का विषय नहीं बनानेवाला भारतीय मीडिया, देश के सबसे ताकतवर अखबार समूह टाइम्स ऑफ इंडिया की ज्यादती के सामने इस बार भी मौन हो गया है।

गौरतलब है कि टाइम्स ऑफ इंडिया न्यूज पेपर इम्प्लॉइज यूनियन समाचार समूह से जुड़ा देश का छोटा होने के बावजूद सशक्त ट्रेड यूनियन है, जो 16 वर्षों से श्रम न्यायालय, पटना, पटना हाइकोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट में अपने हक की लड़ाई लड़ रहा है। छंटनीग्रस्त सभी कर्मचारी वेज बोर्ड के तहत कार्यरत थे। जानकार मानते हैं, पत्रकारों ने जब से वेज बोर्ड की बजाय कांट्रैक्ट नौकरी स्वीकारी, तभी से ‘‘कांट्रैक्ट जर्नलिज्म’’ शुरू हो गया। मीडिया घरानों ने किस तरह वेज बोर्ड के पत्रकारों-गैर पत्रकारों को कांट्रैक्ट पर जाने के लिए मजबूर किया, इसके अलग-अलग किस्से हैं। आप ठीक से देखिए तो इस कांट्रैक्ट जर्नलिज्म ने पत्राकारिता के मेरूदंड को तोड़ दिया। संपादक-पत्रकार रीढ़हीन होंगे तो मीडिया घरानों को मनमर्जी से कौन रोकेगा। आप इस समय भारत में आर्थिक उदारवाद की 20वीं सालगिरह मना रहे हैं। इस उदारवाद को सबसे ज्यादा खतरा ट्रेड-यूनियनों से था। 1991 में उदारवाद आया। 1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस हुआ और 1995 में हिन्दी पट्टी के प्रतिष्ठित हिन्दी दैनिक नवभारत टाइम्स के पटना संस्करण का प्रकाशन टाइम्स समूह ने अचानक बंद कर दिया। अचानक अखबार बंद करने से 250 पत्रकारों, गैर-पत्रकारों की छंटनी हो गयी।

टाइम्स ऑफ इंडिया न्यूज पेपर इम्प्लॉइज यूनियन के सचिव लाल रत्नाकर और बिहार श्रमजीवी पत्रकार यूनियन ने श्रम न्यायालय, पटना में नवभारत टाइम्स के प्रकाशन को बंद करने के विरुद्घ चुनौती दी। 2009 में श्रम न्यायालय ने नवभारत टाइम्स की बंदी को गैर कानूनी करार दिया। नवभारत टाइम्स बंद कर बेनेट कोलमेन कंपनी ने टाइम्स ऑफ इंडिया और नवभारत टाइम्स में कार्यरत कर्मचारियों के भविष्य निधि कोष को डकारने की कोशिश की। टाइम्स ऑफ इंडिया न्यूज पेपर इम्प्लॉइज यूनियन की पहल पर क्षेत्रीय भविष्य निधि आयुक्त, पटना ने पत्रकारों, गैर-पत्रकारों की भविष्य निधि डकारने के मामले पर संज्ञान लेते हुए दिल्ली स्थित केन्द्रीय भविष्य निधि आयुक्त से हस्तक्षेप का आग्रह किया। केन्द्रीय भविष्य निधि आयुक्त ने बेनेट कोलमेन कम्पनी के विरुद्ध इस संदर्भ में दिल्ली हाइकोर्ट में अपील की। दिल्ली हाइकोर्ट ने अखबारकर्मियों के हित में फैसला सुनाते हुए नवभारत टाइम्स के सभी छंटनीग्रस्त पत्रकार, गैर-पत्रकार और टाइम्स ऑफ इंडिया, पटना में कार्यरत कर्मियों के बकाये भविष्य निधि के भुगतान का निर्देश दिया।

टाइम्स ऑफ इंडिया न्यूज पेपर इम्प्लॉइज यूनियन के सचिव लाल रत्नाकर टाइम्स ऑफ इंडिया पटना में उपसंपादक की नौकरी करते हुए कंपनी के दमन के विरुद्ध मुकदमेबाजी करें, यह कंपनी क्यों बरदाश्त करे। टाइम्स ऑफ इंडिया ने 1999 में लाल रत्नाकर का पटना से पूर्णिया स्थानांतरण कर दिया। श्रम न्यायालय, पटना ने यूनियन के सचिव लाल रत्नाकर के स्थानांतरण को दुर्भावनापूर्ण करार दिया। श्रम विभाग ने इस आरोप में टाइम्स ऑफ इंडिया समूह के विरुद्ध सिविल कोर्ट में मुकदमा दर्ज कराया। पटना उच्च न्यायालय ने इस स्थानांतरण को विद्वेषपूर्ण और गैरकानूनी बताया। अब लाल रत्नाकर टाइम्स समूह की नौकरी के बजाय अदालत की सीढ़ियों पर यूनियन की नौकरी कर रहे हैं। हिन्दी अखबार नवभारत टाइम्स के छंटनीग्रस्त पत्रकारों को न्याय दिलाने के लिए टाइम्स ऑफ इंडिया में कार्यरत पत्रकार लाल रत्नाकर के त्याग का संघर्ष एक अखबारी यूनियन को हर हाल में बचाने का हठयोग है, जिसे कहीं दर्ज नहीं किया गया है।

टाइम्स ऑफ इंडिया का पटना संस्करण 15 जुलाई 2011 को कुम्हरार स्थित टाइम्स समूह के प्रिंटिंग प्रेस में ही छपा था। 16 जुलाई का टाइम्स ऑफ इंडिया, टाइम्स हाउस के निजी प्रिंटिंग प्रेस की बजाय प्रभात खबर के प्रिंटिंग प्रेस से क्यों छपने लगा? अखबार समूह ने अचानक प्रिंटिंग प्रेस बंद करने की इजाजत बिहार सरकार से क्यों नहीं ली? जाहिर है कि टाइम्स ऑफ इंडिया न्यूज पेपर इम्प्लॉइज यूनियन अपने कामगारों को न्यायमूर्ति मनीसाना वेज बोर्ड के द्वारा तयशुदा वेतन दिलाने की लड़ाई श्रम न्यायालय, पटना से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक लड़ रहा है। प्रबंधन वेज बोर्ड के अंतर्गत कार्यरत पत्रकारों, गैर-पत्रकारों को यह कहकर मनीसाना वेतनमान देने से इनकार करती रही कि टाइम्स समूह के ढांचे में बेनेट कोलमेन, टाइम्स पब्लिसिंग हाउस, एक्सेल पब्लिशिंग और पर्ल प्रिंट वेल लिमिटेड नामक चार अलग-अलग कंपनियां हैं और बेनेट कोलमेन के अलावा अन्य किसी कंपनी पर मनीसाना का वेज बोर्ड लागू नहीं हो सकता है। पटना हाइकोर्ट में न्यायमूर्ति अखिलेश चंद्र ने प्रबंधन के दावे को पूरी तरह निराधर बताया। अब पटना के टाइम्स कर्मियों को मनीसाना वेज बोर्ड के बकाये वेतन के साथ-साथ मजीठिया वेतन आयोग से तयशुदा वेतनमान की उम्मीद जगी।

पटना के टाइम्स यूनियन के मामले में एस.एल.पी. (क्रिमिनल)-10134/2010, 1884/2011, 1956/2011 और 1957/2011 सभी मुकदमों की एक साथ सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट की डबल बेंच ने 5 जनवरी 2011 को यथास्थिति बनाये रखने का निर्देश देते हुए सापफ कहा था- ‘‘इश्यू नोटिस, स्टेटस को, ऐज ऑफ टुडे, शैल बी मेन्टेन्ड’’। यूनियन की ओर से बकाये वेतनमान की वसूली के लिए दायर याचिका एस.एल.पी. (सिविल) 34045/2009 के संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट का अंतिम आदेश है- ‘‘पोस्ट फॉर फाइनल डिस्पोजल’’। यह निर्णय 31 अक्टूबर 2011 को सुनाया जायेगा। ऐसी स्थिति में टाइम्स ऑफ इंडिया प्रबंधन ने सुप्रीम कोर्ट के द्वारा यथास्थिति बनाये रखने के निर्देश की अनदेखी कर माननीय सुप्रीम कोर्ट की अवमानना की है। इंडस्ट्रीयल डिस्प्यूट एक्ट का प्रावधान है कि न्यायिक विवाद के दौर में सेवा शर्तों में किसी तरह का परिवर्तन नहीं किया जा सकता है। एक लोकतांत्रिक राष्ट्र में कॉरपोरेट सेक्टर के सभी कार्य राष्ट्रीय कानून के तहत निर्धरित होते हैं। लेकिन टाइम्स ऑफ इंडिया प्रबंधन ने अपने कार्यरत कर्मचारियों को बिना किसी पूर्व सूचना के अचानक सेवामुक्त करने का अधिकार कहां से प्राप्त कर लिया? क्या मनीसाना आयोग का बकाया वेतन और मजीठिया आयोग वेज बोर्ड के लाभ से रोकने के लिए यह रास्ता न्यायपूर्ण है कि अपने कर्मियों को धक्‍का मारकर सड़क पर फेंक दो।

16 जुलाई 2011 को पटना के कुम्हरार स्थित टाइम्स ऑफ इंडिया के प्रिंटिंग प्रेस पर अचानक तालाबंदी और 44 कर्मचारियों की सेवा मुक्ति की खबर इंदौर में प्रभाष जोशी को समर्पित भाषायी पत्रकारिता महोत्सव तक पहुंची तो संघर्षरत टाइम्स कर्मियों के समर्थन में तत्काल एक प्रस्ताव पारित किया गया। भाषायी पत्राकारिता महोत्सव की ओर से वरिष्ठ पत्रकार रामबहादुर राय और अरविन्द मोहन का हस्ताक्षर युक्त प्रस्ताव बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के पास भेजा गया। धरनारत अखबारकर्मियों ने 27 जुलाई, 2011 को धरना स्थल के सामने से गुजर रहे मुख्यमंत्री से अपना दुखड़ा सुनाने की योजना बनायी। शांतिपूर्ण धरना दे रहे अखबारकर्मियों को पटना पुलिस ने वज्रवाहन और पुलिस बल की ताकत से सख्त घेरेबंदी कर दी। धरनार्थियों को पुलिस के वरिष्ठ अधिकारियों ने चेतावनी दी, मुख्यमंत्री के सामने खबरदार कोई मुख नहीं खोल सकता है। धरना दे रहे छंटनीग्रस्त बताते हैं कि वजीरे-आला-बिहार ने उनकी तरपफ देखने से बेहतर सामने से गुजरते हुए अखबार से अपना मुख ढंक लिया था। (सब जानते हैं, वजीरे-आला का सबसे पसंदीदा अंग्रेजी अखबार टाइम्स ऑफ इण्डिया ही है।)

धरनार्थियों में चंदू झा, प्रेम सिंह और राकेश सिंह पटना आर्ट कॉलेज से बी.एफ.ए. उत्तीर्ण आर्टिस्ट हैं। ये छंटनीग्रस्त कलाकारकर्मी धरना स्थल पर टाइम्स प्रबंधन के खिलाफ चित्रांकन कर रहे हैं। यह धरना राजनीतिक नहीं, अखबारी है पर इस धरने के समर्थन में पटना के नामचीन अखबारनवीस अपनी कोई राय व्यक्त करने से बच रहे हैं। इस धरने ने स्पष्ट कर दिया है कि बिहार के पत्रकार साम्यवादी, समाजवादी, गांधीवादी कुछ भी नहीं, सिर्फ वेतनवादी-कंपनीवादी हैं। एक अखबार में काम करने वाले दूसरे अखबार से हटाये गये कर्मियों के बारे में लिखने-बोलने या समर्थन करने से इसलिए भी बच रहे हैं कि कहीं उनका प्रबंधन बुरा न मान जाये। राज्यसत्ता के चुप रहने से भी सत्तापरस्त पत्रकारिता के सूत्रधार अपनी कोई भूमिका नहीं ले पाये। नर्मदा बचाओ आंदोलन की नेत्री मेघा पाटकर ने टाइम्स कर्मियों के संघर्ष को जनांदोलनों के राष्ट्रीय समन्वय (एन.ए.पी.एम.) का समर्थन भेजा है। टाइम्स ऑफ इंडिया न्यूज पेपर इम्प्लॉइज यूनियन के अध्यक्ष अरुण कुमार भारतीय प्रेस परिषद के सदस्य भी हैं। यूनियन के अध्यक्ष अरुण कुमार और सचिव लाल रत्नाकर माननीय सुप्रीम कोर्ट के संभावित न्याय-निर्णय की प्रत्याशा में अहिंसात्मक-शांतिपूर्ण धरना अंतिम विकल्प मानते हैं। इधर श्रम न्यायालय, पटना ने प्रिंटिंग प्रेस बंद करने की कारवाई को श्रम कानून का उल्लंघन मानते हुए टाइम्स प्रबंधन को कारण बताओ नोटिस जारी किया है। 31 अक्टूबर, 2011 को माननीय सुप्रीम कोर्ट का इस संदर्भ में सुनाया जाने वाला फैसला मीडिया उद्योग के इतिहास में मील का पत्थर साबित होगा।

लेखक पुष्पराज जनांदोलनों के पत्रकार हैं तथा नंदीग्राम डायरी का लेखन करते हैं.

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