अयोध्या/ फैजाबाद का हिंदी प्रिंट मीडिया का एक बड़ा हिस्सा अपनी पेशागत नैतिकताओं के विरुद्ध निहायत गैर-जिम्मेदाराना, पक्षपाती, शरारती, षडयंत्रकारी, सांप्रदायिक और जनविरोधी हो चला है। वह अपनी विरासतों/ नीतिगत मानदंडों का खुल्लमखुल्ला उलंघन करने पर उतारु है। जनपद में घटी हाल की घटनाओं पर रिपोर्टिंग से उसकी इसी नियत/ चरित्र का पता चलता है। इन अख़बारों ने विगत 23 जुलाई में मिर्ज़ापुर गांव की घटना, 21 सितंबर देवकाली मूर्ति चोरी प्रकरण, 13 अक्टूबर को मूर्ति बरामदगी आंदोलन में भाजपा सांसद योगी आदित्यनाथ के कूदने और 24 अक्टूबर को मूर्ति विसर्जन के दौरान हुए फसाद के आस-पास क्या क्या गुल नहीं खिलाए? जिसे देखकर आप माथा पीट लेंगे।
भारतीय प्रेस परिषद द्वारा गठित शीतला सिंह कमीशन को तथ्य/ रिपोर्ट मुहैया करा देना इन अख़बारों को बहुत नागवार गुज़रा। अपनी करतूतों को देख बौखलाए ये सम्मानित अख़बार सांप्रदायिक खुन्नस निकालने लगे। ताज़ा मामला काकोरी कांड के नायक अशफाकउल्ला खां और पंडित राम प्रसाद बिस्मिल के शहादत दिवस पर हुए तीन दिवसीय छठे अयोध्या फिल्म फेस्टिवल – के समापन के बाद ऐसी साजिश देखने को मिली। 21 दिसंबर को फिल्म उत्सव का समापन हुआ। 22 दिसंबर को भारतीय जनता पार्टी के छात्र संगठन अखिल भारतीय विधार्थी परिषद ने फिल्म फेस्टिवल के खिलाफ हमला बोल दिया। अख़बार भी भय, भ्रम और दहशत फ़ैलाने में ABVP के प्रवक्ता बन बैठे।
23 दिसम्बर को राष्ट्रीय सहारा में दो कॉलम की खबर छापी 'विधार्थी परिषद ने किया महाविद्यालय में प्रदर्शन, अयोध्या फिल्म फेस्टिवल का किया विरोध’। दैनिक जागरण का शीर्षक था 'फिल्म फेस्टिवल में महापुरुषों का हुआ अपमान'। हिंदुस्तान ने फोटो के साथ दो कॉलम की खबर छापी 'फिल्म फेस्टिवल के खिलाफ प्रदर्शन'। अख़बारों ने खूब अफवाह फैलाई लेकिन इस मामले में फिल्म निर्माता आनंद पटवर्धन का बयान नहीं छापा, न ही लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता की आवाज उठाने वालों की प्रतिक्रिया।
10 जनवरी को राष्ट्रीय सहारा फोटो के साथ तीन कॉलम की 'फिल्म फेस्टिवल के विरोध में छात्रों का प्रदर्शन' हिंदुस्तान भी फोटो के साथ तीन कॉलम 'अयोध्या फिल्म फेस्टिवल के विरोध में प्रदर्शन' छापता है। अमर उजाला को भी पीछे हो जाना गवारा नहीं। 10 जनवरी को अख़बार लिखता है 'अयोध्या पर की गई थी आपत्तिजनक टिप्पणी', 'फेस्टिवल में प्रदर्शित फिल्म के विरोध में छात्रों का प्रदर्शन’ 'राम के नाम 'फिल्म को लेकर शुरू हुआ विवाद' फोटो के साथ दो कॉलम की खबर छापी। लेकिन 10जनवरी को ही आनंद की प्रेस नोट इन अख़बारों को भेजी जाती है। बयान देखकर मना कर दिया जाता है। 14 जनवरी को जस्टिस सच्चर, पूर्व आईजी एस आर दारापुरी, मैग्सेसे पुरस्कार से सम्मानित डॉक्टर संदीप पांडे, लेखक डॉ प्रेम सिंह आदि की प्रतिक्रिया भी दबा दी गई।
अयोध्या/ फैजाबाद का माहौल पहले से ही संवेदनशील है। 22साल पुरानी फिल्म 'राम के नाम' जिसे सेंसर बोर्ड का सर्टिफिकेट मिला है। भारत सरकार ने इस फिल्म को राष्ट्रीय पुरस्कार दिया है, इतना ही नहीं उच्च न्यायालय के आदेश पर इसे दूरदर्शन पर प्राइम टाइम में दिखाया जा चुका है। वैसे भी आनंद की फिल्मों को दुनिया की बेहतरीन फिल्मों में रखा जाता है।
अख़बार ABVP के हवाले से अपने पाठकों को बताता है 'राम के नाम' काल्पनिक फिल्म है, अयोध्या का नाम इस्लामपुरी है जिसे बाबर ने बसाया है, हिन्दू देवी – देवताओं, धर्मग्रंथों, हिन्दुओं का अपमान किया गया है, प्रभु राम का अस्तिस्त्व नहीं है, रामचरित मानस मनगढ़ंत है, भारतीय महापुरुषों पर अभद्र टिप्पणी की गई है, भारतीय संस्कृति के खिलाफ हमला किया गया है, सनातन सभ्यता के खिलाफ षडयंत्र किया गया है, फेस्टिवल के दौरान सांप्रदायिकता भड़काने का प्रयास किया गया है …… (न्यायधीश की भूमिका में बैठे इन अख़बारों को मालूम है कि 6सालों से अयोध्या फिल्म फेस्टिवल 'अवाम का सिनेमा' अशफाक/ बिस्मिल शहादत दिवस पर हर साल होता है इनके पास फिल्म उत्सव की छपी विवरणिका दो बार भेजी जाती है. आरॊप पत्र तय करने से पहले इसे पढ़ लेना चाहिए था )
'अवाम का सिनेमा' 7 सालों से देश के कई हिस्सों में उत्सव बगैर किसी स्पोंसर के हमख्याल दोस्तों के बल पर करता है। आज के दौर में जब मीडिया जनसरोकारों से विमुख हो गया है। बेलगाम पूंजी कॉरपोरेट मीडिया और सिनेमा में उढ़ेल कर नियंत्रित की जा चुकी हो। अब वो दौर लद चुका, आम आदमी की उनके दफ्तर में घुसने की मनाही हो चुकी है तब ऐसे आयोजन जरुरी लगते हैं। आप सभी से विनम्र निवेदन है कि आप प्रतिरोध की परम्परा के सचेत वारिस हैं। अयोध्या फिल्म फेस्टिवल के खिलाफ फैलाई जा रही अफवाह का सामना करें। सच्चाई से जनता को रूबरू कराएँ।
आपका
शाह आलम
AWAM KA CINEMA
DIRECTORATE OF FILM FESTIVALS
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AYODHYA-224123, UP, INDIA.
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