गत दिनों उत्तराखंड की त्रासद विभीषिका को लेकर तमाम समाचार पत्र, पत्रिकाएं और फोरम सक्रिय हैं और अपने अपने ढंग से इसके प्रति अपना सरोकार अभिव्यक्त कर रहे हैं। जियादातर लोगों का मानना है कि इस आपदा के लिए मानव स्वयं जिम्मेदार है क्योंकि उसने वन और नदियों का भीषण दुरुपयोग और दोहन किया है। यह सही है लेकिन मैं यह जानना चाहता हूँ कि वे कौन से मानव हैं जिन्होंने इस आपदा को आमंत्रित करने में कोई कसर नहीं उठा रखी है।
क्या वे स्थानीय निवासी हैं ? या पर्यटक हैं या फिर वे चोर, डकैत और अपराधियों के प्रतिनिधि हैं ? अगर इस कुकर्म के लिए साधारण नागरिक नहीं नहीं हैं और यह लगातार जारी है तो यह किसके संरक्षण में और किसकी स्वार्थ आपूर्ति के लिए सुनियोजित ढंग से तह सब चलता रहा है। उन्हें पहचानने की जरूरत है और उन्हें इस कुकर्म से विरत करने की महती आवश्यकता है। लेकिन हो यह रहा है कि भ्रामक पर्यावरण की नारेबाजी में सब कुछ विलीन हो जा रहा है।
आखिर यह पर्यावरण क्या चीज है? क्या जंगलों को कटाने से रोकना और नदियों पर बड़े बाँध न बनने भर से इस समस्या का समाधान संभव है ? मेरे विद्वान बंधुओं/भगनियों यह भ्रामक प्रचार उस पश्चिमी पूँजीवादी संस्कृति का ही एक औजार है। हमारे देश में कुछ अपवादों को छोड़कर यह मुहिम गैर सरकारी संस्थान (एन जी ओ) और सरकारी महकमे ही चला रहे हैं क्यों ? क्योंकि इसकी आड़ में वे हमारे ऊपर दोहरी चोट कर रहे हैं एक ओर वे खूब पैसे बना रहे हैं दूसरी और वनों और नदियों निगलने के लिए प्रयत्नरत हैं। वहीँ वनों में रहने वाले जनों की उन्हें कोई चिंता फिक्र नहीं है। वे वनसंपदा, खनिज और मिट्टी पत्थर तक लील रहे हैं। वहीँ हमारा मध्यवर्गीय मानस और मनःस्थिति इसी सब में अपना कल्याण समझते हैं। यह बताना यहाँ अत्यावश्यक है कि न तो प्राकृतिक प्रकोप महज हाल की घटनाएँ हैं और न ही मृत्युविभीषिका ही नई चीज है।
ये प्राकृतिक प्रकोप,आपदाएं और विभीषिकाएँ तभी से घट रहीं हैं जब से मानव अस्तित्व में आया है। सवाल सिर्फ इन घटनाओं की मार के असर को नियोजित तरीके से कम करने का है और एक प्रभावी बचाव अभियान करने का है। प्राकृतिक आपदाएं उन विकसित पूंजीवादी और समाजवादी देशों में भी होती हैं पर वहां मनुष्य सिर्फ और सिर्फ मर जाने के लिए नियति के भरोसे नहीं छोड़ दिए जाते बल्कि उनके बचाव और पुनर्वास की तुरत व्यवस्था की जाती है। वहां के नेता और मीडिया महज घडियाली आंसू बहाते नहीं पाए जाते। वे जन जीवन की कमसे कम क्षति के लिए प्रतिबद्ध होते हैं और अपने आप को उत्तरदायी महसूस करते हैं।
यहाँ न तो कुछ रुदालियों की तरह रुदन करने से होने वाला है न ही महज विश्लेषण और विमर्श से। यहाँ अराजकता है तो भयानक स्वार्थ भी हैं। व्यक्तिवादी प्रवृत्तियाँ चरम पर हैं। धन्नासेठ और सरकार सो रहे हैं, उनका कोई वस्तुगत सरोकार विभीषिका को कम करने और पुनर्वास की दिशा में सक्रिय भूमिका निभाने का नहीं है बल्कि जो फण्ड उन्हें मिल रहा है उसे कैसे अधिकतम डकारें उनकी चिंता का विषय यही है। ऐसी स्थिति में क्या कोई पर्यवारंविद इस समस्या से निजात दिला सकता है ? या फिर प्राकृतिक सम्पदा के अंधाधुध दोहन को रोक सकता है ? यह संभव नहीं है। आप यह भी न मानें कि यह कोई निराशावादी दृष्टिकोण है। इस सबका एकमात्र इलाज इस नाकारा और संवेदनहीन व्यवस्था को जड़ से उखाड फेंकना ही हो सकता है। उसके लिए प्रयत्न करने को कोई तैयार नहीं हैं (अपवाद छोड़कर), सब गुडी-गुडी बने रहना चाहते हैं। दोनों हाथों से लड्डू बटोरना चाहते हैं। ऐसे में फौरी कवायद के सिवाय कुछ भी हाथ आने वाला नहीं है।
शैलेन्द्र चौहान
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