किरण बेदी कह रहीं हैं कि खुद को कष्ट देकर जो पैसे उन्होंने हवाई टिकटों से बचाए हैं, अब (पर्दाफ़ाश होने के बाद) वे वापिस कर देंगी. भाई लोग कह रहे हैं कि वे इंसान हैं और गलती चूंकि इंसान से हो ही सकती है और पैसे भी जब वे वापिस दे ही रहीं हैं तो किस्सा ख़त्म समझा जाना चाहिए. कुछ भाई लोगों को लगता है कि अब इसके बाद उनके इस बचत कर्मकांड के बारे में कुछ भी कहना अन्ना आन्दोलन को बदनाम करने की कोशिश है.
वाह, क्या तर्क है? अरे भई, अगर किरण बेदी इंसान हैं तो क्या राजा और कनिमोजी नहीं हैं? क्या फर्क है इनमें और उनमें? क्या कहेंगे आप अगर कल वो भी पैसे वापिस दे दें? उन दोनों ने तो माना भी नहीं है. न अदालत ने ही उन्हें दोषी ठहरा दिया है. किरण ने मान भी लिया कि हाँ, लिए थे पैसे ज़्यादा. बचाए भी थे. उनके ये कह देने से कि ट्रस्ट के लिए बचाए थे क्या उन्हें उनके अपराध से मुक्त कर देता है? क्या झूठ या हेराफेरी (या खुद को इकानामी क्लास में सफ़र करा कर) ट्रस्ट के लिए ही सही पैसे बटोरना कानूनी और नैतिक रूप से उचित है? जो फिर कहेंगे कि हाँ (जब दे ही रहीं हैं पैसे वापिस) तो उन्हें बता दें किसी भी अपरोक्ष तरीके से किसी के लिए भी धनसंचय करना है तो अपराध ही.
और फिर उनके खिलाफ उठने वाली कोई भी आवाज़, कोई भी सवाल या किसी के मन में आया कोई भी संशय अन्ना आन्दोलन की बदनामी कैसे है? क्या किरण बेदी ने ट्रस्ट अन्ना के लिए बनाया? ये यात्राएं उन के लिए कीं? या पूछा था अन्ना से कि ऐसे पैसे बचाऊँ या नहीं? …और क्या किरण बेदी गलत हों तो भी सही हैं क्योंकि वे अन्ना के साथ हैं? शायद यही वो कारण है कि किरन बेदी गलत भी हों तो उन्हें सही ठहराने या फिर उन्हें माफ़ कर देने की बातें तो कही ही जा रहीं हैं.
सच बात तो ये है कि आज किरण बेदी जैसे प्रकरणों पर कुछ भी कह पाना संभव या कहें कि एक तरह से खतरे से खाली नहीं रह गया है. हालात ये हो गए हो हैं कि पब्लिक परसेप्शन के खिलाफ कुछ लिखने, बोलने वाले की बोलती बंद की जा सकती है. जनता जब अंधभक्त हो कर अन्ना आन्दोलन के साथ थी तो सरकार की बोलती बंद थी. किसी भी मंत्री का घर घेर लेने के सुझाव थे. मनीष तिवारी को अपनी उस प्रेस कांफ्रेंस के लिए माफ़ी मांगनी पड़ी जो निश्चित ही उन से खुद कांग्रेस ने करवाई होगी. यानी खुद कांग्रेस ने माफ़ी मांगी. इस लिए नहीं कि कांग्रेस या मनीष तिवारी के मन में एकाएक कोई बहुत बड़ी श्रद्धा या आस्था जाग पड़ी थी अन्ना या आन्दोलन के लिए. वो डर था. आज किरण बेदी डरी हुई हैं. क्योंकि हम सब डर के माहौल में जी रहे हैं. गौर से देखिये तो आप पाएंगे कि आन्दोलन के आजू बाजू एक तरह का आतंक उपजने लगा है. सरकार ने आन्दोलन, टीम के किसी सदस्य के खिलाफ कुछ बोला नहीं कि घेराव. अखबार ने कुछ छापा नहीं कि बहिष्कार. उधर खुद आन्दोलन से जुड़े लोग भी एक तरह की दहशत या कहीं कुछ भी हो सकने की आशंका के साथ जी रहे है. ये तो गनीमत है कि प्रशांत भूषन पे हमला करने वाले दूर दूर तक भी कांग्रेसी नहीं निकले. वरना बवाल खड़ा हो जाता. न सिर्फ अन्ना टीम की तरफ से, बल्कि विपक्षी पार्टियों की तरफ से भी.
हम सब जैसे बारूद के ढेर पे आ बैठे हैं. सच पूछिए मैं तो सुबह नहा धो के अपनी प्रभु साधना में सब से पहले सब से ज्यादा, अन्ना के स्वास्थ्य और लम्बी आयु की कामना करता हूँ. भगवान् करे उन्हें मेरी भी उमर लगे. लेकिन मैं डरता हूँ कि खुदा न खास्ता उन्हें कहीं स्वाभाविक रूप से भी कुछ हो गया तो आज के माहौल में एक छोटी सी भ्रान्ति भी देश को दावानल में झोंक देगी. मेरा आग्रह ये है कि हम भावना की बजाय तर्क की बात करें. तर्क की बात ये है कि भ्रष्टाचार बातों, कसमों या ह्रदय परिवर्तनों से भी ख़त्म नहीं होगा. कानून चाहिए. जिस देश में लोग अपनी खुद की हिफाज़त के लिए हेलमेट न पहनने के लिए भी बहाने ढूंढ लेते हों वहां कानून तो चाहिए. कैसा हो ये अलग बहस का विषय है. लेकिन वो अभी आया नहीं और अब रिकाल का अधिकार भी चाहिए. क्या आगे से आगे से बढ़ते नहीं जा रहे हम? जिस देश की आधी आबादी दस्तखत करना तक न जानती हो, उसे मालूम है कि अपने सांसद को क्यों वापिस बुलाने जा रही है वो? मान के चलिए कि अगर मिला तो रिकाल का अधिकार दिलाएंगे अन्ना, मगर उसका इस्तेमाल हर महीने करेंगे विरोधी नेता. और तब आप चला लेना इस देश में कोई संसद या लोकतंत्र. मुझे तो नहीं लगता कि बहुत पढ़े लिखे भी मेरी इस आशंका से सहमत होंगे. जो कभी पढ़ते ही नहीं, न जानते देश या लोकतंत्र के बारे में मतदान के दिन के अलावा वे क्या समझेंगे आज कि ये आन्दोलन या ये देश किधर की ओर अग्रसर है.
यकीनन इस देश में बेहतरी या किन्हीं अच्छे बदलावों के लिए कमर कसने वाले अरविन्द केजरीवालों की तारीफ़ और हिफाज़त की जानी चाहिए. लेकिन उनका भी फ़र्ज़ बनता है कि वे भोली भाली जनता को भावुक कर वो सब न करें जिसका कि जनादेश उन्हें नहीं मिला हुआ है. ये सही है उनकी बात कि संविधान के प्रिएम्बल में संविधान भारत की जनता में निहित होने की बात कही गई है. इस अर्थ में निश्चित रूप से संविधान और उसमें निहित संप्रभुता भारत की जनता को समर्पित है. ध्यान दें, जनता को! अन्ना, केजरीवाल, उनकी टीम या उनके लिए नारे लगाने वाली भीड़ को नहीं, जनता को! देश की सारी जनता को. माफ़ करेंगे ये महानुभाव. ये सारी जनता नहीं हैं. कल आपके साथ लाखों लोग आ के खड़े हो जाएँ किसी चाइना स्क्वेयर या तहरीक चौक की तरह. तो भी वो आन्दोलन तो हो सकता है. विद्रोह भी हो सकता है. जनता द्वारा परिभाषित, प्रत्याक्षित, निर्वाचित और इसी लिए संविधान सम्मत कोई नीति-निर्णय नहीं हो सकता. इस देश के अस्तित्व के लिए अगर लोकतंत्र ही श्रेष्ठ प्रणाली है औ उसके संविधान में किसी भी बदलाव के लिए प्रावधान और प्रक्रिया भी उसी के तहद अपनानी पड़ेगी. उसके लिए ज़रूरी है कि चिंतन, मनन और संवाद हो. और वो होना तो किसी आन्दोलन के साए में भी नहीं चाहिए. धमकियों के आतंक में तो कतई नहीं होना चाहिए. मगर दुर्भाग्य से हो वही रहा है. असहनशीलता इसी लिए है. पलटवार भी इसी लिए है और चरित्रहनन भी इसी लिए.
इसी लिए ये और भी ज़रूरी है कि, आन्दोलन की सफलता की खातिर भी, किरण बेदियों का चरित्र और आचरण शक शुबह के दायरे से बाहर हो. गलत या सही, उन पे भी अब भरोसा उठा तो ये और भी दुर्भाग्यपूर्ण होगा. अन्ना के ज़रिये जो देश हित और राष्ट्रीयता जो की भावना पैदा हुई है वो कमज़ोर होगी. ये नहीं होनी चाहिए. किसी भी कीमत पर. ऐसे में ज़रूरी है कि किरण बेदी के आचरण और ट्रस्ट के आय व्यय की पड़ताल हो. बेहतर है वे स्वयं इसकी मांग करें. उनको बचाने की कोई भी कोशिश या व्याख्या करना किसी को भी नैतिक रूप से कमज़ोर और कठघरे में खड़ा करेगा.
लेखक जगमोहन फुटेला चंडीगढ़ के वरिष्ठ पत्रकार हैं.