सुशील उपाध्याय : इंडिया टुडे के चार दिसंबर के अंक में-कैंपस में अस्मत के लुटेरे शिक्षकों का बोलबाला-स्टोरी को पढ़कर आप आसानी से इस निष्कर्ष पर पहुंच सकते हैं कि भारतीय विश्वविद्यालयों और डिग्री कॉलेजों में केवल औरतखोर और ऐयाश शिक्षकों की भरमार है। वहां प्रोफेसरों के रूप में ऐसे शिकारी मर्द मौजूद हैं जो केवल देह की तलाश में परिसरों में आते हैं। इस स्टोरी के लिए सनसनीखेज विशेषण बहुत छोटा है। इसमें तथ्यों को इस प्रकार प्रस्तुत किया गया है मानो औरतों के लिए दुनिया का सबसे असुरक्षित ठिकाना विश्वविद्याजय और डिग्री कॉलेज ही हैं। रिपोर्टर ने इस निष्कर्ष पर पहुंचकर स्टोरी लिखी है कि उसे हमजात औरतों को बचाने के लिए कलम को तलवार बनाकर इस्तेमाल करना ही होगा। उसे दूर तक इस बात का अंदाज नहीं रहा होगा कि जब वह-कैंपस के कुकर्मी, अस्मत के लुटेरे शिक्षक, यौन-पिपासु प्रोफेसेर, यौन शोषक शिक्षक-जैसे शब्दों का इस्तेमाल कर रही है तो वह एक पूरे समाज से खेल रही है।
इस स्टोरी को पढ़ने के बाद पहला और अनिवार्य सवाल यही है कि क्या किसी प्रोफेशन के आधार पर अस्मत के लुटेरों को चिह्नित किया जा सकता है ? यदि, ऐसा किया जा सकता है तो फिर इस आंकड़े का ध्यान कौन रखेगा कि पांच लाख प्रोफेसरों में से रिपोर्टर केवल पांच उदाहरण ही गिना पाई। यह ठीक है कि शिक्षक, चिकित्सक जैसे वर्गाें की जिम्मेदारी दूसरे वर्गाें की तुलना में कहीं अधिक बड़ी है, लेकिन क्या यौन-प्रकरणों को एकतरफा मामले के तौर पर प्रस्तुत किया जा सकता है ? क्या कोई भी जागरूक और संवेदनीशील स्त्री ईमानदारी से यह बात कह सकती हैं कि उनके शिक्षकों में से बहुसंख्यकों ने उनका दैहिक, भावात्मक शोषण किया है ? वस्तुतः स्त्री-पुरुष का रिश्ता अपने स्वरूप में बहुत जटिल है। उसे किसी सरलीकृत पैमाने पर मूल्यांकित नहीं किया जा सकता और न ही इस निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता कि पीएचडी के लिए हर कहीं यौन शोषण किया जा रहा है या अधिकारसंपन्न प्रोफेसर अपने अधीन अस्थायी शिक्षकों से देह की मांग कर रहे हैं। अगर यही पैमाना है तो फिर यह बात तो चिकित्सा जैसे पेशे में भी होगी। केवल चिकित्सा ही क्यों, उन सभी पेशों में होगी जहां कोई भी महिला अस्थायी कर्मी काम करती है। माफ कीजिएगा। उच्च शिक्षा की दुनिया में कुछ दूसरे उदाहरण भी मौजूद हैं।
यूजीसी इस बात पर जोर देती है कि हरेक शिक्षक न्यूनतम छह घंटे परिसर में मौजूद रहना रहेगा। लेकिन, मुझे इस बात पर संदेह है कि कोई पुरुष प्रोफेसर-हेड शायद ही अपनी सहकर्मी को छह घंटे रुकने के लिए बाध्य कर पाए। यकीन न हो तो उत्तराखंड के डिग्री कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में कार्यरत करीब दो हजार शिक्षिकाओं की उपस्थिति शाम को चार बजे चेक करवाकर देख लीजिए। यदि, दस प्रतिशत भी मौजूद मिल जाएं तो बड़ी बात होगी। ऐसे मामलों में यदि पुरुष बॉस थोड़ा भी सख्त होने की कोशिश करे तो फिर उस पर अंगुली उठते देर नहीं लगती। एक बात जरूर माननी चाहिए कि अच्छे और बुरे लोग सभी जगह होते हैं। न सभी पुरुष बुरे हैं और न ही सभी महिलाएं अच्छी हैं। कटु सत्य यह है कि रिसर्स के मामले में पुरुष स्कॉलर को जितनी भाग-दौड़ और परेशानी उठानी पड़ती है, उतनी शायद ही किसी लड़की-स्कॉलर को उठानी पड़ती हो! यदि, रिसर्च गाइड द्वारा लड़की स्कॉलर की किसी एक स्थापना या चैप्टर को खारिज कर दिया जाए तो बवाल मच जाता है, जबकि लड़के अक्सर इस स्थिति का सामना करते हैं।
सबसे गंदी सोच ये है कि हर चीज को देह के साथ जोड़कर देखा जाए। इसी सोच के दबाव का परिणाम है कि अब ज्यादातर पुरुष प्रोफेसर इस बात से बचने लगे हैं कि उनके साथ कोई लड़की स्कॉलर काम करे। इसके लिए वे ही लोग जिम्मेदार हैं जो इस बात का प्रचार करते हैं कि हर कहीं पर पीएचडी के बदले देह की मांग की जा रही है। इस स्टोरी के बाद मेरे मन में दूसरा सवाल यह है कि परिसरों से ज्यादा मामले तो घरों के भीतर हो रहे हैं, लड़कियां अपने परिवार के लोगों का ही शिकार हो रही हैं तो क्या हम लिख दें कि घरों में अस्मत के लुटेरे परिजनों का बोलबाला।
मैं, इस बात के पक्ष में हूं कि जो प्रोफेसेर ऐसे हैं, उन्हें चिह्नित किया जाना चाहिए। लेकिन, ऐसा एकतरफा और काल्पनिक लेखन तो किसी सूरत में स्वीकार नहीं किया जा सकता। यह हद दर्जे का गिरा हुआ निष्कर्ष है कि पुरुष प्रोफेसर पढ़ाते वक्त भी स्त्री-देह को ही निशाने पर रखते हैं। इस स्टोरी में हिंदी के कुछ कवियों का उदाहरण दिया गया है जिन्हें पढ़ाते वक्त प्रोफेसर कथित तौर पर अश्लील विवरण देते हैं। अगर, आपमें से किसी ने पदमावत और उर्वशी पढ़ी हो तो आपको पता होगा कि इनमें किस स्तर का दैहिक विवरण और वर्णन है। फिर तो इन कवियों और उनकी काव्य-दृष्टि को सूली पर चढ़ा देना चाहिए। ऐसे हालात में मेडिकल साइंस में शरीर-विज्ञान और फाइन आर्ट्स में सौंदर्य-शास्त्र को पढ़ाना तत्काल बंद करना चाहिए। और हां, ड्राइंग-पेटिंग में तो निर्वसना देह को भी चित्रित करना होता है, ऐसा ही मूर्तिकला में भी है। तो क्या इनमें लड़कियों का प्रवेश रोक दें या पुरुष प्रोफेसरों की नियुक्ति पर ब्रेक लगा दें !
इस बात का उल्लेख जरूरी है कि दिल्ली की पवित्रा भारद्वाज का मामला प्रोफेसर-स्कॉलर के बीच के दैहिक शोषण का मामला नहीं है। ऐसे मामले में हर कहीं सामने आ रहे हैं। इन प्रकरणों को एक दबंग बॉस द्वारा एक कमजोर अधीनस्थ के उत्पीड़न के तौर पर देखा जाना चाहिए। इस स्टोरी में रिपोर्टर ने यह साबित करने में पूरा जोर लगा दिया कि एडहॉक नियुक्ति का अर्थ यह है कि संबंधित शिक्षिका को देह का सौदा करना ही पड़ेगा। इस स्टोरी में तथ्यों की भी ऐसी-तैसी की गई है। इसमें बताया गया है कि पीएचडी करने वाली लड़कियों की संख्या लड़कों से ज्यादा हो गई है। उच्च शिक्षा सर्वे की साल 2010-11 की रिपोर्ट बताती है कि पीएचडी में लड़कियों का प्रतिशत 40 से भी कम है। इसी स्टोरी में एक इनबॉक्स में यह कहा गया है कि सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के 16 साल बाद भी ज्यादातर विश्वविद्यालयों, कॉलेजों में जेंडर सेल नहीं बना है, जबकि सेकेंड लास्ट कॉलम में लिखा गया है कि ज्यादतर विश्वविद्यालयों में जेंडर सेल बनाए गए हैं और उन्होंने काम शुरु कर दिया है। इस स्टोरी को पढ़ने के बाद यही लगता है कि यह बेहद भ्रामक, भौंड़ी और बेहूदा स्टोरी है। इसमें एक गंभीर मुद्दे को एक वर्ग की ओर मोड़ने की कोशिश की गई है। इस लेखन से सनसनी भले ही फैल जाए, लेकिन ऐसा कोई रास्ता नहीं बनता जिनसे यह सुनिश्चित हो कि स्त्री किसी भी पेशे और किसी भी माहौल में दैहिक, भावात्मक, रागात्मक और मानसिक स्तर पर सहज-सुरक्षित रहे।
लम्बे समय तक पेशेवर पत्रकार रहे और इन दिनों अध्यापन में व्यस्त सुशील उपाध्याय के फेसबुक वॉल से.