: नामवर ने किया फ़ैज़ की जन्मशती पर दो दिवसीय अंतरराष्ट्रीय समारोह का उद्घाटन : इलाहाबाद : ''हम मेहनतकश जगवालों से जब अपना हिस्सा मांगेंगे, इक खेत नहीं देश नहीं, सारी दुनिया मांगेंगे…'' तथा ''बोल की लब आजाद हैं तेरे… बोल की जां अब तक तेरी है..'' जैसी मशहूर नज्म, कविता व शायरी रचने वाले रचनाकर्मी फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ के जन्मशती के अवसर पर महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा व प्रगतिशील लेखक संघ के सहयोग से दो दिवसीय (दिनांक 22 एवं 23 अक्टूबर) अंतरराष्ट्रीय समारोह के उद्घाटन सत्र की अध्यक्षता करते हुए विवि के कुलाधिपति व हिंदी के शीर्ष आलोचक नामवर सिंह ने कहा कि फ़ैज़ ने इन्कलाब और इश्क पर शायरी लिखी। वे मध्यम आवाज में क्रांति की आवाज देते थे।
उनमें बड़बौलापन नहीं था। घमंड, अभिमान भी नहीं था। उनमें गहरा आत्मविश्वास, प्रखर राजनैतिक चेतना, बदलाव की छटपटाहट तथा जीवन के प्रत्येक क्षण में सौन्दर्य व माधुर्य की तलाश उनकी शायरी में बखूबी ढ़ंग से देखने को मिलती है। यह फ़ैज़ का गौरव है कि पाकिस्तान के तानाशाही हुक्मरानों या उस भूभाग में उठ रहे सवालों को उनके द्वारा पूछे गए सवाल भारतीय जनमानस को भी अपने शासकों या इस भूभाग से पूछे गए प्रतीत होते हैं।
साहित्य एवं संस्कृति की नगरी इलाहाबाद के संग्रहालय स्थित पंडित ब्रजमोहन व्यास सभागार में विवि द्वारा ‘बीसवीं शताब्दी का अर्थ : जन्मशती का सन्दर्भ’ श्रृंखला के तहत फ़ैज़ एकाग्र पर आयोजित समारोह में ‘शख्शियत: फ़ैज़ अहमद फ़ैज़’ विषय पर आधारित उद्घाटन सत्र के दौरान स्वागत वक्तव्य देते हुए कुलपति विभूति नारायण राय ने कहा कि फ़ैज़ भारतीय उपमहाद्वीप के सबसे बड़े कवियों में से एक हैं और हमारी साझा संस्कृति के उत्कृष्टतम नमूना हैं। समकालीन संदर्भ में फ़ैज़ जैसे बड़े कवि पर विमर्श होने से हम लाभान्वित होंगे। बीसवीं सदी में कई ऐसे रचनाकार हुए जो परिवर्तनगामी चेतना से समकालीन चुनौतियों से लड़ रहे थे। कुलाधिपति नामवर सिंह ने जिम्मेदारी सौपीं कि जिन रचनाकारों की जन्मशती है, उनपर समग्र रूप से वैचारिक विमर्श हो। वर्धा से शुरू हुई इस श्रृंखला के तहत यह विवि का छठवां आयोजन है। इसके पूर्व नागार्जुन, उपेन्द्र नाथ अश्क, केदार नाथ अग्रवाल और भुवनेश्वर पर क्रमश: पटना, इलाहाबाद, बांदा एवं इलाहाबाद में वैचारिक विमर्श कार्यक्रम का आयोजन किया जा चुका है और अब इलाहाबाद में फ़ैज़ पर विमर्श कर रहे हैं।
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की बेटी सलीमा हाशमी ने इंसान की दो प्रवृति नफ़रत और प्रेम का जिक्र करते हुए कहा कि उन्होंने तो किसी से नफरत नहीं की बल्कि दुनिया से प्रेम ही किया है। इलाहाबाद पहली बार आयी हूं, बताते हुए उन्होंने कहा कि यहां धूल-मिट्टी ज्यादा है, सड़कें थोड़ी खराब है पर यहां जो प्यार मिला है, उसके लिए शु्क्रिया। फ़ैज़ की दूसरी बेटी मुजीज़ा हाशमी ने कहा कि फ़ैज़ की कोई नज्म उठाती हूं तो वह आज के लिए प्रासंगिक लगता है। पाकिस्तान की सुप्रसिद्ध लेखिका किश्वर नाहिद ने कहा कि फ़ैज़ के सामने तो दरिया भी रूक जाता है हम कैसे उनपर बोल सकते हैं। आम आवाम के दर्द को बयां करने वाले फ़ैज़ हमेशा गालिब की तरह कहते थे कि हमने तो अभी कुछ लिखा ही नहीं है। बतौर वक्ता के रूप में प्रो. अकील रिजवी ने फ़ैज़ के साथ बिताये पलों को साझा करते हुए कई प्रसंगों के हवाले से कहा कि विभूति नारायण राय पुलिस की नौकरी करते हैं पर काम आम इंसान के हक़ में करते हैं। 1981 फ़ैज़ साहब में यहां आए थे। उससमय विभूति नारायण राय पुलिस विभाग में एसपी थे। उन्होंने ऐसा इंतजाम किया कि इलाहाबाद यूनिवरसिटी कैंपस में बहुत भव्य आयोजन हुआ था। किसी एक मुल्क के लिए वे शायरी नहीं रचते थे बल्कि सरहदों के पार जाकर शोषण व जुर्म के खिलाफ लिखते थे। समारोह का संचालन करते हुए अली जावेद ने कहा कि लोग कहते हैं कि आप फ़ैज़ पर क्यों कार्यक्रम लेते हैं, वे तो पाकिस्तान चले गए थे। कुछ लोग सवाल उठाते हैं कि क्या मजाज लखनवी शायर नहीं थे। हम किसी भी शायर को छोटा करके नहीं देखते हैं। यह फैज ही है जिसने कि मजाज पर लिखा कि इंकलाब को नगमा बनाना हमने मजाज से सीखा है। मजाज को भी हम उतना ही एहतराम देते हैं जितना कि फ़ैज़ को। वर्धा हिंदी विवि के इलाहाबाद केन्द्र के प्रभारी व ‘बीसवीं शताब्दी का अर्थ : जन्मशती का सन्दर्भ’ श्रृंखला के संयोजक प्रो. संतोष भदौरिया ने आभार व्यक्त करते हुए कहा कि यह सभागार बहुत छोटा पड़ गया है पर हम फ़ैज़ के चाहने वालों का दिल बड़ा है। हम खुशनसीब हैं कि फ़ैज़ की दोनो बेटियों को न सिर्फ देखा बल्कि उनको सुना भी। हम सभी अदीबों के आभारी हैं।
पाकिस्तान की सु्प्रसिद्ध कवयित्री व लेखिका नाहिद किश्वर तथा पटना के खगेन्द्र ठाकुर की संयुक्त अध्यक्षता में प्रतिरोध की कविता और फ़ैज़ ‘लाजि़म है कि हम भी देखेंगे’ पर आधारित द्वितीय अकादमिक सत्र में वक्ताओं ने वैचारिक विमर्श किया। खगेन्द्र ठाकुर बोले, फ़ैज़ जैसे शायर के लिए प्रोटेस्ट बहुत हल्का शब्द है। वे इन्कलाब के शायर हैं। आज कविता में इन्कलाब की चर्चा बंद हो गई है। खासकर हिंदी कविता में मजदूरों के पसीने की गंध आना नहीं आ रही है। जहां फ़ैज़ ने इश्क पर शायरी लिखी वहीं उन्होंने इन्कलाब पर भी लिखा। मार्क्सवादी होने के बाद उन्होंने जिंदगी पर कविता लिखा। जब हिटलरी सेना सोवियत संघ पर हमला कर दिया तो फ़ैज़ उनके पक्ष में चले गए। लोगों ने कहा कि फासिज्म के आगे आपकी शायरी व कविता के क्या मायने, तो फ़ैज़ ने कहा कि हम फौजियों को फासिज्म के खिलाफ लड़ना सिखायेंगे। फासिज्म के पराजय होने पर फ़ैज़ को एहसास हुआ होगा कि हमने भी फासिज्म को परास्त करने में अपना योगदान दिया है। हिन्दुस्तान में कम्यूनिस्ट के कार्यकर्ताओं में फ़ैज़ की नज्मों को गाते हुए सुनते हैं। नारा क्या होता है पर ठाकुर कहते हैं कि नारा से हम जनता की चेतना के सूत्र को निकालते हैं। फ़ैज़ जिस दौर में रहते थे वह इंकिलाबी दौर था। हम देख रहे हैं कि आज का दौर बदल गया है। इस पूंजीवादी व्यवस्था व नव औपनिवेशिक ताकतों के खिलाफ हम फ़ैज़ को एक विरासत के रूप में पाते हैं जो अपनी शायरी में हमेशा प्रोटेस्ट की बात करते हैं। उन्होंने कहा कि आधुनिक युग में जनता का हस्तक्षेप समाज को बदलने के लिए होना चाहिए। फ़ैज़ जनता के हस्तक्षेप में अग्रणीय रहते थे। शायर का काम केवल निरीक्षण करना नहीं बल्कि ये जो जिंदगी है, जो दजला है, उसमें तेजी लाना है और इसके लिए ताकत दिखाओ। शायर जो शायरी करता है, वह अपनी प्रतिबद्धता, चेतना और प्रतिरोध को अभिव्यक्त करता है। फ़ैज़ हमेशा कुर्बानी की बात करते हैं। उनके द्वारा रचित शायरी व कविता में ईश्क व इन्कलाब मौजूद थी। वे सबसे इश्क करने के लायक समाज बनाने के बात करते थे। उनकी शायरी पर मैक्सिम गोर्की ने लिखा है कि हम ऐसा समाज बनाएं जहां कि सबमें प्रेम कायम हो।
फ़ैज़ हमेशा आम आवाम के लिए लिखते थे को उल्लेखित करते हुए नाहिद किश्वर ने कहा कि अच्छी शायरी वही है जो हर दौर के हालात को बयां कर दे। समकालीनता में उठ रहे दर्द के लिए उनकी शायरी सटीक प्रतीत होती है। फ़ैज़ को उर्दू अदब के चश्मे से नहीं देखता हुं, का जिक्र करते हुए लखनऊ के रमेश दीक्षित ने कहा कि उनकी कविता में आजादी की अनुगूंज थी। उन्होंने फिलीस्तीन, नेपाल, इंडोनेशिया जैसे कई देशों में चल रहे तानाशाही के खिलाफ आजादी के लिए कविता रचा। उन्होंने कहा कि वे तो जुर्म के खिलाफ लड़ने वाले शायर थे। अविनाश मिश्र ने कहा कि फ़ैज़ ने सामंतवाद, उपनिवेशवाद, लियाकत अली खां, जियाऊल हक जैसे सत्ताधीशों के तानाशाही को झेला था। जिस दौर में भी उनकी शायरी को देखें तो हम पाते हैं कि वह आम आवाम से जुड़ती हैं। दुनिया में जहां भी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नव उपनिवेशवादी ताकतों के खिलाफ संघर्ष हो रहा है तो फ़ैज़ और भी प्रासंगिक लगते हैं। कवि बद्री नारायण ने कहा कि कोई भी कवि बहुत भावों व रसों से भरा होता है। फैज की कविता में प्रतिरोध की चेतना दिखायी देती है। एक कवि जो कि चेतना के स्तर पर काम करता है वह अपनी भावों के माध्यम से प्रतिरोध करेगा। वह नारों में भी भाव से प्रतिरोध करता है। फैज कहते हैं कि कातिल मेरे पास रहो। यह प्रतिरोध कोई छिछला नहीं है। ऐसी ही प्रतिरोध महात्मा गांधी का एंटी इंपीरियलिज्म के विरोध में था। 1950 के बाद जब पाकिस्तान का समाज व देश बन रहा था और हमारा मोह भंग रहा था। वे मोहभंग में भी कविता रचते हैं। उन्होंने कहा कि वे दुनिया के परिवर्तन के कवि थे।फैज सामाजिक संघर्षों से जूझते हुए सीमांत प्रदेशों में गाये जाने वाले लोक गीतों की श्रृंखला को जोड़ते हैं। हिंदी कविता में कह दिया जाता है कि ये लेरिकल कविता है। भावना से प्रतिरोध की तरफ ले जाना फैज में मौजूद हैं। भोपाल से आये राजेन्द्र शर्मा ने का कि वे हमारे मुल्क के शायर रहे हैं उनका संघर्ष व तकलीफें एक जैसा है। फिलीस्तीनी बच्चों के लिए लोरियां लिखीं। वो बता रहे हैं। अकील रिजवी ने फ़ैज़ को आम आदमी दर्द को बयां करने वाला शायर बताया। कार्यक्रम में ज़फर बख्त ने भी अपने विचार प्रकट किए।
इस अवसर पर हिंदी विवि के कुलाधिपति नामवर सिंह, पाकिस्तान से आई फ़ैज़ की बेटियां मुऩीजा हाशमी, सलीमा हाशमी, आरिफ़ नकवी (जर्मनी), शमीम फ़ैज़ी, असरार गांधी, अबू बक़र अब्बाद (दिल्ली), संजय श्रीवास्तव (बनारस), अज़ीज़ा बानो, शमीम फैजी, रक्शंदा जलील, अली जावेद, सरबत खान (उदयपुर), राजेन्द्र शर्मा, शकील सिद्दीकी, शाहिना रिज़वी, अकील रिज़वी, फखरूल करीम सहित इलाहाबाद के साहित्यप्रेमी बड़ी संख्या में उपस्थित थे। मंच का संचालन प्रो.ए.ए. फातमी ने किया तथा जयप्रकाश धूमकेतु ने आभार व्यक्त किया।
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा व प्रगतिशील लेखक संघ द्वारा फ़ैज़ एकाग्र पर आयोजित दो दिवसीय अंतरराष्ट्रीय समारोह के दूसरे दिन 23 अक्टूबर को फ़ैज़ : गद्य के हवाले से ‘बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे’ पर आधारित तृतीय अकादमिक सत्र के दौरान शमीम फ़ैज़ी, रमेश दीक्षित (लखनऊ), असरार गांधी, अबू बक़र अब्बाद (दिल्ली), संजय श्रीवास्तव (बनारस), अज़ीज़ा बानो, अविनाश मिश्र वैचारिक विमर्श करेंगे। ग़जल की परम्परा और फ़ैज़ ‘सुलूक जिससे किया हमने आशिकाना किया’ विषय पर आधारित चतुर्थ अकादमिक सत्र के दौरान ज़ेबा अल्वी (पाकिस्तान), अर्जुमंद आरा, एहतराम इस्लाम, सालिहा ज़र्रीन उद्बोधन देंगे। शाम 5 बजे उत्तर मध्य क्षेत्र सांस्कृतिक केन्द्र सभागार, इलाहाबाद में फ़ैज़ के साहित्य पर मुशायरा एवं कवि सम्मेलन का आयोजन किया जाएगा। वर्धा हिंदी विवि के इलाहाबाद केन्द्र के प्रभारी व ‘बीसवीं शताब्दी का अर्थ : जन्मशती का सन्दर्भ’ श्रृंखला के संयोजक प्रो. संतोष भदौरिया ने साहित्य एवं संस्कृति नगरी इलाहाबाद के साहित्य प्रेमियों से समारोह व मुशायरा में उपस्थिति की अपील की है।
प्रेस विज्ञप्ति