हमारे संचार माध्यमों, खासकर ‘इलाहाबादी मीडिया’ को भी कुछ आत्मनिरीक्षण करने की जरूरत है। पिछले कुछ वर्षों से इलाहाबादी मीडिया या कहा जाय पत्रकारों ने सामान्यजनों से बात करना बंद ही कर दिया है। इसलिये वे पाठकों को या देखने वालों को यह कैसे बता सकते हैं कि लोगों के मन में क्या चल रहा है। माल-मलाई की आशा वाले कार्यक्रमों में तो कोई एक सैकड़ा पत्रकार हाजिर हो जाते हैं, लेकिन पुलिसिया दमन, सरकारी नीतियों का मुखर विरोध करने या भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे, सालों से यहां कुंडली मारकर बैठे अफसरों के खिलाफ ‘वास्तविक तरीके’ से एक ने भी ‘कवर’ नहीं किया।
यहां मीडिया ने शायद यह तय कर लिया है कि 70 फीसदी लोग जो कुछ सोचते हैं, कहते हैं या करते हैं उससे कोई ‘खबर’ नहीं बनती। कलम की ताकत से ‘प्रतिरोध की संस्कृति’ की परम्परा डालने वाले हमारे कुछ सीनियर पत्रकार ‘बूढ़े शेर’ की मानिन्द गुर्राने का काम तो अभी भी कर रहे हैं, लेकिन ‘इस समय’ को बदलने व इसके प्रतिरोध के पत्रकारीय तरीके खोजने में अब उनकी रूचि नहीं रह गयी लगती है। बाकी बचे कुछ तो ‘रंगे सियार’ से अधिक कुछ नहीं हैं।
ज्यादा दूर न जाएं। लोकसेवा आयोग द्वारा लागू त्रिस्तरीय आरक्षण के मुद्दे पर शहर में हुए उग्र विरोध-प्रदर्शन को ही लें ।कुछ बड़े मीडिया संस्थानों के पत्रकारों द्वारा की गई रिपोर्टिंग पर सवालिया निशान लग रहे हैं। खासकर मीडिया की आरक्षण विरोधी भूमिका पर। इस घटना की रिपोर्ट की विभिन्न समाचारों की प्रस्तुति में भिन्नता दिखायी देगी। विभिन्न चैनलों द्वारा भी घटना के दृश्यों मंे भी अपने-अपने तरीके से चुनाव किया गया। किसी भी पाठक और दर्शक के लिये यह एक उत्सुकता का प्रश्न हो सकता है कि आखिर एक ही घटना की प्रस्तुति में यह भिन्नता क्यों है। दरअसल समाचार लिखने वालों की पृष्ठिभूमि में भिन्नता है। इनमें कौन दलित, पिछड़े और सवर्ण हैं, यह साफ-साफ समझा जा सकते है। इनमें तो एक प्रमुख संवाददाता ‘पीत पत्रकारिता’ के पितामह माने जाते हैं और ‘जाति का दुमछल्ला’ जोड़ने में ‘फेविकोल’ से भी ज्यादा असरदार साबित हो चुके हैं।
कुछ महीने पूर्व प्रतापगढ़ जनपद के बलीपुर गांव में सीओ समेत ‘तीहरे हत्याकांड’ के बाद पूरी घटना की कवरेज पढ़ने के बाद इलाहाबादी मीडिया बंधुओं की लेखनी पर सिर चकरा गया । दरअसल, इस तरह की घटनाओं के बाद मीडिया में ज्यादा से ज्यादा आक्रामक खबरें प्रकाशित करने की होड़ रहती है। ‘ताकि सच जिन्दा रहेे’ का स्लोगन लिखने वाले एक अखबार में इलाहाबादी रिपोर्टरों ने हाल के वर्षों में जिस तरह कुछ बेबुनियाद, झूंठी, मनगढ़ंत और तथ्यहीन खबरें लिखीं, उससे ‘सच’ बेचारे ने गंगा में छलांग लगाकर आत्महत्या कर लिया। बलीपुर कांड के बाद इस अखबार ने जो ‘नारा’ लिखा ‘कुंडा का गुंडा, कुंडा में गुंडाराज’, क्या कोई विद्वान, मूर्धन्य पत्रकार, संपादक पाठकों को यह बता सकता है कि तिहरे हत्याकांड से इन नारों का क्या कनेक्शन है। जब तक कोई स्पष्ट प्रमाण या संकेत न मिल जाए, कोई भी समाचार सिर्फ संभावना व अनुमान के आधार पर नहीं छापना चाहिये। परन्तु ‘अपराध के मनोविज्ञान’ के लिहाज से पहले से ही सुलझी हुई व ‘रिएक्शन’ में घटी घटना को समाचार प्रस्तुतकर्ताओं द्वारा जिस ‘टोन’ में कवरेज किया गया, वह वास्तव में पत्रकारिता धर्म के मूल भावना के खिलाफ है। परन्तु समाचार माध्यमों ने इस सीमा रेखा को बार-बार पार किया। बलीपुर कांड से यह बात विल्कुल साफ हो जाती है कि किसी संगठन, व्यक्ति या स्थान विशेष का नाम लेकर उस समय तक प्रकाशित सभी समाचार आधारहीन थे।
इसे मात्र कयास या अनुमान ही कहा जा सकता है, परन्तु इस आशय की खबरों को लेकर जिस प्रकार इलाहाबाद से प्रकाशित दो बड़े अखबारों में समानता पायी गयी, उस पर सवाल उठना लाजिमी है। इन खबरों में ऐसे तकाजों को पूरा करने की चेष्टा और पूरे घटनाक्रम को एक खास दिशा देने की कवायद नजर आती है। इसी के चलते तथ्यात्मक समाचारों में स्पष्ट भिन्नता और अनुमानित समाचारों में अद्भुत समानता देखने को मिलती है। यह मात्र संयोग नहीं हो सकता। इसके पीछे अवश्य कुछ शक्तियां हैं, जो लगातार समाचार माध्यमों को एक ही प्रकार के ‘इनपुट्स’ दे रही थीं, ताकि जांच को एक खास दिशा दी जा सके। जहां तक ‘अमर उजाला’ द्वारा झूंठे व मनगढ़ंत समाचार छापने का सवाल है, उनमें 10 दिसम्बर 2010 को ‘पत्रकार ने बनायी महिला पत्रकार की अश्लील वीडियो क्लिप’ की क्या कभी सत्यता प्रमाणित की जा सकती है। यह समाचार मनगढ़ंत, आपत्तिजनक और वास्तविकता से कोसों दूर था। ऐसी खबरें पढ़कर सच कितने दिन जिन्दा रह सकता है यह तो इस अखबार के कर्ता-धर्ता ही बता सकते हैं।
मीडिया के लोग उस समाचार को अब भी नहीं भुला पा रहे हैं। जिसके बारे में यहां के प्रेस क्लब और उसके स्वयंभूटाइप अध्यक्ष, सचिव ने -अमर उजाला से आज तक एक बार भी पत्राचार कर यह नहीं पूछा कि आखिर ‘ इलाहाबाद के वे दो पत्रकार कौन हैं? क्या यह एक बड़ा सवाल नहीं है कि ‘हरहाल में इसका खुलासा होना चाहिये। लेकिन यह तो सभी जानते हैं कि वे यह क्यों पूछेंगे? जबकि वह स्वयं इन्हीं दो एक बड़े संस्थानों के ‘मठाधीशों’ व ‘सजातीय गैंग’ की बदौलत इस कुर्सी पर विराजमान हैं। प्रेस क्लब यदि ‘वास्तव में 100 प्रतिशत लोकतांत्रिक प्रक्रिया’ अपनाता तो क्या आज तस्वीर ऐसी ही होती, जैसी इस वक्त है।
सर्वविदित ‘माफियाओं’ द्वारा पत्रकार विजय प्रताप सिंह की हत्या के बाद उनके परिवार को आर्थिक सहायता देने व दिलाने के मामले में जिस तरह से ‘प्रेस क्लब’ ने औपचारिकता निभाकर पूछ दबा लिया था, उसे देखते हुए क्या कोई पत्रकार साथी भविष्य में ‘यहां से’ न्याय की उम्मीद कर सकता है। इसके पहले दैनिक जागरण के वरिष्ठ पत्रकार श्यामेंद्र कुशवाहा के ‘कथित अपहरण’ के मामले में इसी प्रेस क्लब ने जिस तरह से आईजी एकेडी द्विवेदी के साथ अंदरखाने गठजोड़ कर तत्कालीन एसएसपी बीके सिंह पर दबाव बनाने में पूरी ताकत झोंक थी, क्या कभी विजय प्रताप के लिये एक क्षण के लिये भी यह जानने का प्रयास किया कि यह हमला ‘नंदी’ पर हुआ था या विजय प्रताप पर।
यह तो ‘डेली न्यूज एक्टिविस्ट’ की खोजी पत्रकारिता से संभव हो पाया कि दरअसल पत्रकार श्यामेंद्र कुशवाहा का अपहरण नहीं हुआ था, बल्कि वह रहस्यमय तरीके से गायब हो गये थे, या किये गये थे । इसके पीछे का असली रहस्य क्या था, इस सच को वरिष्ठ पत्रकार सुनील राय ने देश की सबसे प्रतिष्ठित मैगजीन ‘इंडिया टुडे’ में खोलकर रख दिया था । जिसके बाद इलाहाबादी मीडिया को लेकर ‘समलैंगिकता’ और ‘चकलाघर’ के शौकीनों पर बड़ी लंबी बहस चली। यह भी पता चला कि कौन पत्रकार किस जगह से अपने लिये ‘सुकोमल लौंडा’ खोजता है। यहां के एक मीडिया संस्थान में तो एक वरिष्ठ पत्रकार ;ध्यान दीजिये उम्र में, पद में नहींद्ध अपने सहायक संपादक को ‘गाड़दास’ कहकर सम्बोधित किया करते हैं। यह बात अलग है कि जरूरत पड़ने पर वह अपना यह ‘प्रिय सम्बोधन’ सार्वजनिक रूप से नहीं कहेंगे, क्योंकि यह ‘चरित्र’ संस्थान में लंबे दिनों तक टिके रहने में सहायक है।
किसी पर ‘आरोप’ और उसका दुष्प्रचार अलग बात है, लेकिन सत्यता प्रमाणित करना कठिन है। पहली बात तो यह है कि किसी एक चीज को नहीं समझ पाने को इस तरह प्रस्तुत किया जा रहा है। एक नजरिया योग्यता को अयोग्यता में बदलने की होती है, जिसकी वजह से चीजों में फर्क करना सामान्य तौर पर मुश्किल हो जाता है। मीडिया में यह कला बहुतों को आती है। इसलिये ऐसे में यदि हम मीडिया में योग्यता की बात करें तो यह बड़े बारीकी से समझने की जरूरत है कि मीडिया के क्षेत्र में जिसे ‘योग्यता’ कहते हैं, आखिर वह क्या है? जिसे वरिष्ठ पत्रकार अनिल चमड़िया कुछ ऐसे परिभाषित करते हैं, मीडिया में योग्यता को बहुत सरलीकृत तरीके से नहीं समझा जा सकता है।
भारतीय समाज में जाति से योग्यता का निर्धारण तय होता रहा है। योग्यता में पहनने, बोलने, वह भी खास भाषा बोलने, उठने, बात व्यवहार, रंग-रूप स्वयं की प्रस्तुति आदि जैसे पहलू भी जुड़े होते हैं। योग्यता एक पैकजिंग है। इसीलिये लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ के इस महत्वपूर्ण अंग में कई बार जनता तक सच्ची और तथ्यात्मक खबरें पहुंचाने के दायित्व पर निजी पूर्वाग्रह, सरकारी मशीनरी के हथियार और पत्रकारीय मूल्यों के खिलाफ तथ्यों की छानबीन की दूरी के चलते कई तरह के ‘वाद’ हावी हो जाते हैं। ऐसे सड़े-गंधाते विचारों के बीच पत्रकारिता कभी भी अपेक्षाओं के अनुरूप खरी नहीं उतरती है और समाज को दिशा में ‘प्रो-एक्टिव’ हो जाती है।
हमने इसी उद्देश्य से पत्रकार विजय प्रताप सिंह की स्मृति और उनकी निष्पक्ष लेखनी को जिन्दा रखने के बहाने मीडिया विमर्श अयोजित करने तथा एक ‘नवजनवादी पत्रकार मंच’ बनाने का निर्णय लिया है, जहां पर एक लोकतांत्रिक संस्था की तरह, बिना किसी पूर्वाग्रह, ‘वाद’ के स्वस्थ मानसिकता के साथ काम होगा। सेमिनार में भागीदारी के लिये आप सभी आमंत्रित हैं। जैसा कि अन्य जगहों पर माीडिया संस्थानों में मिल बैठकर सेमिनार व विमर्श होता है, वह भी हम तीन-तीन महींने के अंतराल में करेंगे। यह मंच समय-समय पर किसी एक घटना को लेकर मीडिया की भूमिका का अध्ययन भी करेगा, ताकि पत्रकारिता पर किसी को भी अंगुली उठाने का कोई मौका न मिले। संप्रेषण के क्षेत्र में मीडिया विमर्श से जुड़ी नई पुरानी सामग्री के बीच हम एक रिश्ता भी कायम करना चाहते हैं, ताकि संप्रेषण के विषय में हम अपने चिंतन और अध्ययनों की गति को तेज कर सकें।
बहादुर साथियों, कहने को तो बहुत कुछ है पर आज इतना ही। दर्द को दबा कर रखने से वह एक दिन असीम शक्ति बन जाता है। फिर जब यह पिटारा खुलेगा तो बात दूर तलक जायेगी ही! कलम खसीटने की मजबूरी को इस खबरनवीस की आरजू न समझा जाय। किसी भी ‘कटु वचन’ के लिए गुस्ताखी माफ हो के साथ मीडिया के सभी साथियों को सादर नमस्कार!
धन्यवाद!
राजीव चन्देल
इलाहाबाद
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