: “मीडिया ट्रायल” कितना सही, कितना गलत : ट्रायल मुकदमे का होता है, आरोपी का होता है, वह भी जाँच के बाद. ट्रायल अदालत में होता है, वह भी तब जब कि पुलिस या ऐसी कोई अन्य राज्य शक्तियों से निष्ठ संस्था मामला वहां ले जाए या अदालत स्वयं संज्ञान ले जांच कराये. ट्रायल के बाद किसी को सजा मिलती है तो कोई छूट जाता है. बहु-स्तरीय न्याय व्यवस्था होने के कारण कई बार नीचे की अदालतों का फैसला ऊपर की अदालतें ख़ारिज ही नहीं करतीं बल्कि यह कह कर कि निचली अदालत ने कानून की व्याख्या करने में भूल की, उलट भी देती हैं. ऐसा भी होता है कि कई बार सर्वोच्च न्यायलय उच्च न्यायलय के फैसले को ना केवल उलट देता है बल्कि निचली अदालत की समझ की तारीफ भी करता है. तात्पर्य यह कि जहाँ सत्य जानने और जानने के बाद अपराधी को सज़ा दिलाने की इतनी जबरदस्त प्रक्रिया हो वहां क्या मीडिया ट्रायल हो सकता है.
ट्रायल अखबारों या टीवी चैनलों के स्टूडियोज में नहीं होना चाहिए. क्या भारतीय मीडिया अदालतों की इस मूल भूमिका को हड़प रही है? एक उदहारण लें. चुनाव के महज कुछ वक्त पहले सांप्रदायिक रूप से संवेदनशील एक जिले के मुख्य चौराहे एक बम विस्फोट होता है. एक चैनल के कैमरे में एक दृश्य क़ैद होता है जिसमें दिखाई देता है कि दो लोग एक कार में भाग रहे हैं. मीडिया के रिपोर्टर द्वारा यह भी पता लगाया जाता है कि इस कार का नंबर जिस व्यक्ति का है वह राज्य के प्रभावशाली गृह मंत्री के भतीजे का है. वह मंत्री उस क्षेत्र से चुनाव लड़ रहा है.
क्या सीआरपीसी की धारा ३९ का अनुपालन करते हुए चुप-चाप यह टेप क्षेत्र के पुलिस अधिकारी को देने के बाद मीडिया के दायित्य की इति-श्री हो जाती है? क्या यह खतरा नहीं है कि पूरे मामले को मंत्री महोदय दबा दें? यह संभव है कि जो लोग भाग रहे हों वह निर्दोष दुकानदार हों या फिर अपराधियों ने ही उस कार को हाइजैक कर लिया हो जो बाद की तफ्तीश से पता चले. लेकिन क्या यह उचित नहीं होगा के सारे तथ्य जन संज्ञान में इसलिए लाये जाएँ ताकि कोई सत्ताधारी प्रभाव का इस्तेमाल कर बच ना सके? दोनों खतरों को तौलना होगा. एक तरफ व्यक्ति गरिमा का सवाल है और दूसरी तरफ पूरी कानून-व्यवस्था के रखवाले पर किये जाने वाले जनता के विश्वास पर या यूँ कहें कि संवैधानिक व्यवस्था पर और प्रजातंत्र पर जनता की आस्था पर.
फिर अगर मीडिया की गलत रिपोर्टिंग से किसी का सम्मान आहात हुआ है तो उसके लिए मानहानि का कानून है लेकिन अगर कोई सत्ता में बैठा मंत्री आपराधिक कृत्य के ज़रिये सांप्रदायिक भावना भड़का कर फिर जीत जाता है और फिर मंत्री बनता है उसके लिए बाद में कोई इलाज नहीं है. ऐसे में क्या यह मीडिया का दायित्व नहीं बनता कि तथ्यों को लेकर जनता में जाए और जनमत के दबाव का इस्तेमाल राजनीति में शुचिता के लिए करे? क्या मीडिया मानहानि के कानून से ऊपर है.
जब संस्थाओं पर अविश्वास का आलम यह हो कि मंत्री से लेकर संतरी तक हम्माम में नंगे दिखाई दें तो क्या मीडिया महज तथ्यों को भी ना दिखाए? आज हर राजनेता जो भ्रष्टाचार का आरोपी है, एक ही बात कह रहा है – “जाँच करवा लो, मीडिया ट्रायल हो रहा है”. मूल आरोप का जवाब नहीं दिया जा रहा है कि संपत्ति तीन साल में ६०० गुना कैसे हो जाती है या एक ड्राईवर कैसे एक कंपनी का डाईरेक्टर बन जाता है और कैसे वह कंपनी झोपड़पट्टी में ऑफिस का पता दे कर करोड़ का खेल करती है. जाँच करवाने की वकालत करने वाले यह जानते है कि जाँच के मायने अगले कई वर्षों तक के लिए मामले को खटाई में डालना है. अगर आरोपपत्र दाखिल भी हो जाए तो तीन स्तर वाली भारतीय अदालतों में वह कई दशकों तक मामले को घुमाते रह सकता है और कहीं इस बीच उसकी सरकार आ गयी तो सब कुछ बदला जा सकता है.
दरअसल यह सब देखना कि कहीं कोई गड़बड़ी तो नहीं हो रही है, वित्तीय व कानून की संस्थाओं का काम था. जब उन्होंने नहीं किया तब मीडिया को इसे जनता के बीच लाना पड़ा. अगर ये संस्थाएं अपना काम करती तो ना तो किसी की संपत्ति तीन साल में ६०० गुना बढ़ती ना हीं ड्राईवर डायरेक्टर बनता और ना हीं फर्जी कंपनियां किसी नेता की कंपनी में पैसा लगाती.
यहाँ एक बात मीडिया के खिलाफ कहना ज़रूरी है. मीडिया को केवल तथ्यों को या स्थितियों को जनता के समक्ष लाने की भूमिका में रहना चाहिए. जब स्टूडियो में चर्चा करा कर एंकर खुद ही आरोपी से इस्तीफे की बात करता है तो वह अपनी भूमिका को लांघता है. मीडिया की भूमिका जन-क्षेत्र में तथ्यों को रखने के साथ हीं ख़त्म हो जाती है बाकि काम जनता और उसकी समझ का होता है. अगर इसे मीडिया ट्रायल की संज्ञा दी जाती है तो वह सही है. एक अन्य प्रश्न भी है. क्या वजह है कि भ्रष्टाचार के मामलों में सजा की दर आज भी बेहद कम है? और जिन पर आरोप सालों से रहा है वो या तो सरकार में है या सरकार बना-बिगाड़ रहें हैं.
यह सही है कि मीडिया का किसी के मान-सम्मान को ठेस पहुँचना बेहद गलत है. यह भी उतना ही सही है कि अगर किसी पर मीडिया ने ऐसे आरोप लगाये जो बाद में अदालत से निर्दोष साबित हो तो मीडिया कटघरे में होनी चाहिये क्योंकि वह गलत सिद्ध हुई पर अगर यही आरोप ऊपर की अदालत से फिर सही सिद्ध हो जाये तब क्या कहा जाएगा? क्या यह नहीं माना जाना चाहिए कि मीडिया सही साबित हुई? एक और स्थिति लें. अगर इसी मामले में सर्वोच्च न्यायलय फिर से हाई कोर्ट के फैसले को उलट दे तो मीडिया एक बार फिर गलत साबित होगी.
कहने का मतलब यह कि मीडिया सही थी या गलत यह इस बात पर निर्भर करेगा कि आरोपी का सीढ़ी दर सीढ़ी लड़ने का माद्दा कितना है. याने सत्य उसके सामर्थ्य पर निर्भर करेगा. यही कारण है आज देश में जहाँ तीन अपराध के मामले हैं वही केवल एक सिविल मामला. ठीक इसके उलट उपरी अदालतों में याने हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में अगर तीन मामले सिविल के होते हैं तो केवल एक अपराध का. कारण साफ़ है, जो समर्थवान है वह किसी स्तर तक अदालतों के दरवाजे खटखटा सकता है, अपराध में सजा पाने वाला अपनी मजबूरी के कारण निचली अद्लातों से सजा पाने के बाद जेल की सलाखों को ही अपनी नियति मान लेता है. उसके लिए सत्य की खोज की सीमा है. ऐसे में मीडिया क्या करे? क्या तथ्यों को देना बंद कर दे?
लेखक एनके सिंह जाने माने वरिष्ठ पत्रकार हैं. साधना, ईटीवी समेत कई चैनलों के संपादक रह चुके हैं. ब्राडकास्ट एडिटर्स एसोसिएशन के महासचिव हैं. उनका यह लिखा दैनिक भास्कर में प्रकाशित हो चुका है. एनके से संपर्क singh.nk1994@yahoo.com के जरिए किया जा सकता है.
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