यह करीब पंद्रह दिन पहले की बात है। दिल्ली से लगभग सत्तर किलोमीटर दूर नोएडा से सटे बुलंदशहर जिले में एक सर्वे एजेंसी इडिया टीवी के लिए चुनावी सर्वे कर रही थी। पूछने पर उन्होंने यही बताया था। सर्वे करने वाले नाटे कद के दो लोग थे, यदि उन्हें बच्चा कहा जाए तो ज्यादा ठीक रहेगा। उन दोनों की उम्र 17 से 19 साल के बीच की रही होगी। वह दोनों चौराहे के किनारे स्थित चाय की दुकान पर बैठकर चाय की चुस्कियों का मजा ले रहे पत्रकारों से सवाल पूछकर अपने फार्मों को तेजी से भर रहे थे, उनमें अधिकांश स्थानीय पत्रकार अपने परिचित थे।
सड़क से गुजरते समय संयोग से हम भी वहां पहुंच गए। मौका देखकर उन्होंने फार्म में लिखे हुए कुछ सवाल हमारी ओर भी दाग दिए। हमने भी विनम्रतापूर्वक कुछ सवालों के जवाब देने की कोशिश की। लेकिन, उन युवाओं को देखकर हमारे मन में भी कुछ प्रश्न पूछने की जिज्ञासा हुई। हमारा पहला प्रश्न था, आपका खाना-खर्चा तो चल जाता है ना? दोनों लड़कों ने मुस्कराकर जवाब दिया कि बस पार्ट टाइम जॉब है, वैसे ग्रेजुएशन चल रहा है।
दूसरा अहम सवाल था, जिसका उत्तर उन्होंने बेहद ईमानदारी के साथ दिया कि आप गांवों में सर्वे करने क्यों नहीं जाते हैं? उन्होंने बताया कि हमें हिदायत दी गई है कि स्थानीय पत्रकारों से ज्यादा आंकड़े लिए जाएं। उन्हीं के अनुमान ज्यादा ठीक होते हैं। आम नागरिकों से मिलकर समय खराब करने की जरूरत नहीं है। आम नागरिकों को
ज्यादा कुछ नहीं पता होता है। वे तो वही जानते हैं जो मीडिया बताता है। गांव बगैरा में जानने की जरूरत नहीं।
यह है मीडिया के चुनावी अनुमानों की हकीकत जिसे आज न्यूज एक्सप्रेस ने और बेहतर तरीके बताने की कोशिश की है। न्यूज एक्सप्रेस का इरादा या पर्दे का पीछे का सच कुछ भी रहा हो लेकिन भविष्य में सकारात्मक परिणाम आने और इस विषय पर गंभीर बहस होने की उम्मीद की जा सकती है।
आशीष कुमार
रिसर्च स्कॉलर
पत्रकारिता एवं जनसंचार
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