संकट से जुझ रही समाजवादी सरकार के आकाओं के हाथों में निमेष आयोग ने एक नया हथियार थमा दिया है। सपा की बल्ले-बल्ले हो गई है। निमेष आयोग ने अपनी जांच रिपोर्ट में खुलासा किया है कि सीरियल बम ब्लास्ट में पकड़े गये दो आतंकी निर्दोष थे। उन्हें साजिशन फंसाया गया था। रिपोर्ट आने के बाद सपाई ताल ठोंक कर कर कहने लगे हैं कि जेल में बंद बेगुनाह अल्पसंख्यक युवाओं को जल्द से जल्द बाहर निकाला जायेगा। सपा खुश होकर अपनी पीठ जरूर थपथपा रही है, लेकिन राजनैतिक पंडितों का कहना है कि समाजवादी पार्टी के नेताओं को इसके लिये बसपा सुप्रीमों और पूर्व मुख्यमंत्री मायावती का शुक्रगुजार होना चाहिए क्योंकि माया राज में गठित इस एक सदस्यीय आयोग ने आतंकी खालिद और कासिमी को क्लीन चिट देकर सपा के पंखों को उड़ान दे दी है तो बसपा शासनकाल में गठित किये गये निमेष आयोग की रिपोर्ट ने आतंकवाद पर नई बहस और राजनीति छेड दी है।
उत्तर प्रदेश पूरे देश एक मात्र ऐसा प्रदेश है, जहां साम्प्रदायिक दंगों और आतंकवाद के नाम पर भी खूब राजनीति और डिबेट होती है। कोई पक्ष में खड़ा दिखाई देता है तो कोई विरोध में। मकसद, एक ही होता है किसी भी तरह से राजनैतिक फायदा उठाना। खासकर, समाजवादी सरकार पर तो अक्सर यह आरोप लगते रहते हैं कि वह आतंकवाद और दंगों के नाम पर खूब राजनैतिक रोटियां सेंकती हैं। भाजपा को सपा की यह करतूत रास नहीं आती है। वह सपा के इस रवैये को अक्सर ही तुष्टिकरण की राजनीति करार देती रहती है। वहीं कांग्रेस और बसपा भले ही अल्पसंख्यक वोटों की राजनीति करने में पीछे न रहती हों लेकिन ऐसे मुद्दों पर बच के निकल जाने का रास्ता उन्हें बहस से ज्यादा रास आता है। चाहे बात मुजफ्फनगर दंगों की हो या फिर इससे पूर्व अयोध्या का मसला अथवा बेरली, फैजाबाद, अम्बेडकर नगर, कानपुर, मेरठ, गोरखपुर, आदि तमाम साम्प्रदायिक तनाव वाले जिले सभी जगह शांति व्यवस्था कायम करने से अधिक नेताओं का इस बात पर ध्यान रहता है कि किस तरह से अपना वोट बैंक मजबूत किया जा सके।
बहरहाल, मुद्दे पर आया जाये। दिसंबर 2007 में उत्तर प्रदेश के जिलों लखनऊ, फैजाबाद, वाराणसी में सीरियल बम ब्लास्ट हुए थे। पुलिस ने जांच के बाद मोहम्मद खालिद मुजाहिद तथा मोहम्मद तारिक कासमी (दोनों निवासी जौनपुर, उत्तर प्रदेश) को संदिग्ध मान कर गिरफ्तार कर लिया था। इस गिरफ्तारी के खिलाफ कई मुस्लिम संगठन और कुछ राजनेता लामबंद होकर हो गये। बढ़ते दबाव के बाद तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती ने पुलिस द्वारा उन्हें उत्पीड़ित किये जाने की शिकायतों की जांच के लिए सेवानिवृत जिला जज आरडी निमेष की अध्यक्षता में जांच आयोग का गठन कर दिया था। करीब चार वर्षो तक जांच चलती रही। निमेष आयोग ने 31 अगस्त 2012 को रिपोर्ट तैयार करके मुख्यमंत्री अखिलेश को सौंप दी, 18 जून 2013 तक यह शासन के पास पड़ी रही। इस रिपोर्ट में दोनों आतंकियों (खालिद और कासिमी) की अपराध में संलिप्तता को संदेहजनक बताते हुए उन्हें गिरफ्तार करने वाले अधिकारी और कर्मचारियों को चिन्हित कर उनके खिलाफ कार्रवाई करने की संस्तुति की गई। इनमें एक आतंकी खालिद मुजाहिद की पिछले दिनों पुलिस हिरासत में मौत हो चुकी है। 16 सिंतबर को यह रिपोर्ट उत्तर प्रदेश के विधान सभा के पटल पर रखी गई।
बहरहाल, मुजफ्फर नगर तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश में इन दिनों हो रही घटनाओं के परिप्रेक्ष्य में निमेष आयोग द्वारा विधानसभा में पेश की गयी रिपोर्ट से माहौल के और गर्माने की आशंका व्यक्त की जा रही है। अल्प संख्यक वर्ग के एक बड़े तबके द्वारा जेल में बंद ऐसे तमाम तथाकथित आतंकियों को रिहा किये जाने की मांग काफी दिनों से उठायी जा रही है। समाजवादी पार्टी ने अपने घोषणा पत्र में भी वादा किया था कि जेल में बंद अल्पसंख्यक वर्ग के बेगुनाह लोगों को सरकार बनते ही रिहाई दी जायेगी।
उत्तर प्रदेश विधानसभा में पेश की गयी इस रिपोर्ट में आयोग ने सरकार को 12 सुझाव भी दिये हैं, जिनमें आतंकी घटना में पुलिस से अलग विभाग के राजपत्रित स्तर के अधिकारी को बरामदगी का गवाह बनाना चाहिए । कथित आरोपियों से पूछताछ की वीडियो रिकार्डिंग होनी चाहिए। ऐसी घटनाओं के निस्तारण हेतु विशेष न्यायालयों के गठन अभियोग चलाने के लिए अलग से अभियोजन सेल के गठन के साथ इस प्रकार के मामलों का निस्तारण अति शीघ्र अधिक से अधिक दो वर्ष में किये जाने का सुझाव दिया गया है। अपने सुझाव में आयोग ने यह भी कहा है कि यदि मामले के समय पर निस्तारण न होने की समीक्षा की जानी चाहिए व विलंब करने वाले व्यक्ति के विरूद्ध कार्रवाई की जानी चाहिए । साथ ही निर्दोष लोगों को झूठा फंसाने के दायित्वों को निर्धारित कर दंड दिये जाने का भी प्राविधान होना चाहिए।
निमेष आयोग का गठन बसपा शासनकाल में मार्च 2008 में किया गया था। आतंकी घटनाएं दिसंबर 2007 में हुई थीं। 16 फरवरी 2009 को आयोग की प्रथम बैठक हुई। आयोग के समक्ष सुनवाई के दौरान अभियोजन पक्ष की तरफ से 46, बचाव पक्ष की ओर से 25, व आयोग द्वारा 45 (कुल 114) साक्षीगणों के बयान दर्ज किये गये । आयोग का कार्यकाल समय – समय पर बढ़ता रहा व अंतिम बार कार्यकाल 31 अगस्त 2012 तक बढ़ाया गया । आयोग ने अपने अंतिम निष्कर्ष में लिखा है कि तारिक कासिमी और खालिद मुजाहिद के विरूद्ध जिला न्यायालय बाराबंकी में मामला विचाराधीन है। अतः इस स्तर पर उपरोक्त घटना में किसी व्यक्ति के विरूद्ध दायित्व निर्धारित नहीं किये जा सकते है। निमेष अयोग की रिपोर्ट को अखिलेश सरकार अपना हथियार बना कर अदालत में सरकार का पक्ष मजबूत कर सकती है।
लेखक अजय कुमार लखनऊ के वरिष्ठ पत्रकार हैं.