गीतिका शर्मा और अनुराधा बाली उर्फ फिज़ा। दोनो ही खूबसूरत, बेबाक। मगर अंत दोनों का ही दर्दनाक। एक ने मौत को गले लगा लिया। दूसरी (फिज़ा) की लाश लावारिश हाल में उसी की देहरी के अंदर मिली। सड़ी-गली हालत में। फिज़ा जीते-जी जिस कदर खूबसूरत थी। संदिग्ध मौत के बाद उनकी लाश उतनी ही डरावनी मिली। लाश को देखकर अच्छे अच्छों की घिग्घी बंध जाये। कमोबेश गीतिका की भी मौत ने सबको हिला दिया। उसकी लाश भी अपनी ही देहरी के भीतर फंदे पर लटकी मिली।
अब सवाल यह पैदा होता है, कि आखिर इतनी उच्च शिक्षित, खूबसूरत महिलाओं की इतनी बुरी और अकाल मौत क्यों? क्या अपनी मौत के लिए एक हद तक यह भी जिम्मेदार हैं? या फिर गोपाल कांडा और चंद्र मोहन उर्फ चांद मोहम्मद या फिर किसी और के ही सिर इनकी मौत का ठीकरा फोड़ देना चाहिए? यहां मेरी इस सोच या सवाल का ताल्लुक, इससे कतई नहीं है, कि फिज़ा और गीतिका की मौत का ठीकरा इन्हीं के सिर फोड़ देना चाहिए। मुद्दा बहस और खुलकर बात करके कोई बेहतर कारण या तर्क खोजने का है।
कहते हैं कि किसी की मौत के बाद उस पर सवाल नहीं खड़े करने चाहिए। मैं भी इससे सहमत हूं। जब किसी की मौत के बाद समाज में से ही सवाल पैदा होने लगें, तो उन सवालों को “ज़िंदा दफन”कर देना भी तो किसी “भ्रूण-हत्या”से कम नहीं आंका जायेगा। मात्र तीन साल की नजदीकियों में एक एअर होस्टेस एक कीमती फ्लैट और एक कीमती कार की मालकिन बन जाती है। कैसे? एक एअर होस्टेस तीन साल की नौकरी में ही कंपनी के एक्जीक्यूटिव डायरेक्टर बना दी जाती है। कैसे? जब कीमती फ्लैट और कार मिलती है? तब समाज पड़ोसी, परिवार में से कोई भी किसी को नहीं बताता है। आखिर क्यों?
क्यों नहीं उसी वक्त दुत्कार दी जाती है वो कीमती कार। वो कीमती फ्लैट। और उस क्रूर इंसान को, जो देता है कीमती फ्लैट और कीमती कार। क्या अगर ऐसा हो जाता, तो भी गोपाल कांडा की इतनी औकात हो सकती थी, कि वो गीतिका के घर में घुस पाता? परिवार के लोगों के साथ फोटोग्राफी करा पाता। गोपाल कांडा के दफ्तर की कोई कर्मचारी अरुणा चड्ढा धमका पाती गीतिका को। जबरदस्ती फोन पर दफ्तर बुलाकर कुछ दस्तावेजों पर दस्तखत कराने के लिए। क्या गीतिका को सामना करने की नौबत आती उन हालातों से, जो उसकी अकाल मौत का कारण बन गये। शायद कभी नहीं। बशर्ते, आज जिस गोपाल कांडा को कटघरे में खड़ा किया जा रहा है, उसी गोपाल कांडा के पैर शुरुआत में ही उखाड़ दिये गये होते। तो उसके पैरों को जमने के लिए ज़मीन ही नहीं बन पाती। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। इसके लिए जिम्मेदार दोनो बराबर के हैं। गीतिका शर्मा और गोपाल कांडा। हो सकता है, हर कोई मेरे मत से सहमत न हों, लेकिन यह मेरा मत है। सबका मत नहीं।
अब बात करते हैं फिज़ा की। अच्छी खासी कानून की पढ़ाई करके इज्जतादर नौकरी कर रही थीं। निजी ज़िंदगी में चंद्र मोहन आये। खुशियां लेकर आये। जब चंद्र मोहन, फिज़ा की ज़िंदगी में “चांद” बनकर चमके, उस वक्त कल्पना करना भी बेईमानी होगा फिज़ा के लिए, कि यह चांद जब उनकी ज़िंदगी में डूबेगा, तो अंधेरे के अलावा कुछ नहीं दिखाई देगा। हुआ भी वही। जिस चंद्र मोहन ने फिज़ा के लिए धर्म बदल लिया। वही चंद्र मोहन उर्फ चांद मोहम्मद पलट गया। उसे अपनी पुरानी बीबी और असली बच्चे याद आने लगे। अब बताइये इसे क्या कहेंगे? चंद्र मोहन उर्फ चांद मोहम्मद की गद्दारी या फिर अनुराधा बाली उर्फ फिज़ा की कम-अक्ली या इंसान को पहचानने में ज़िंदगी की सबसे बड़ी भूल? जो भी हो, कहीं न कहीं कुछ न कुछ तो कमजोरी रही फिज़ा की। बहरहाल अंत फिज़ा का भी जिसने देखा, उसे काठ मार गया। फिज़ा की लाश के फोटो देखकर। हर किसी के मुंह से यही निकला- हे भगवान ऐसी मौत किसी को मत देना।
इस सबको लिखने के पीछे बस मकसद इतना सा है, कि हर मौत अपने पीछे सवाल छोड़ती है। हर मौत के सवाल का जबाब कोई किसी से मांगता भी नहीं है। लेकिन जब किसी “खूबसूरत” की “बदसूरत” मौत होती है। शोर तभी ज्यादा मचता है। और सवाल भी तभी ज्यादा निकलकर सामने आते हैं। आखिर क्यों?
लेखक संजीव चौहान की गिनती देश के जाने-माने क्राइम रिपोर्टरों में होती हैं. वे पिछले दो दशक से पत्रकारिता से जुड़े हुए हैं. इन दिनों न्यूज एक्सप्रेस चैनल में एडिटर (क्राइम) के रूप में सेवाएं दे रहे हैं. ये लेख इनके ब्लॉग क्राइम वॉरियर पर प्रकाशित हो चुका है, वहीं से साभार लिया गया है. इनसे संपर्क [email protected] के जरिए किया जा सकता है.