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चरित्र: कितना सामाजिक, कितना भ्रामक

वर्त्तमान काल में चरित्र की दो परिभाषाएं भारत में प्रचलित हैं। पहला कानून की दृष्टि वाला चरित्र, दूसरा सामाजिक दृष्टिकोण में चरित्र। कानूनी चरित्र पर मेरा दावा है कि भारत की 99.9% आबादी फेल जायेगी क्योंकि कानून की नजर में तो सार्वजनिक स्थल पर बीड़ी पीने वाला राहगीर भी दोषी पाया जाएगा। वहीं सामाजिक नजरिये में बीड़ी पीने की तुलना में किसी शक्तिसम्पन्न व्यक्ति द्वारा किसी दुर्घटनाग्रस्त अशक्त की सहायता नहीं करना दोष माना जाएगा, जिसे कानून दोष नहीं मानता। 
वर्त्तमान काल में चरित्र की दो परिभाषाएं भारत में प्रचलित हैं। पहला कानून की दृष्टि वाला चरित्र, दूसरा सामाजिक दृष्टिकोण में चरित्र। कानूनी चरित्र पर मेरा दावा है कि भारत की 99.9% आबादी फेल जायेगी क्योंकि कानून की नजर में तो सार्वजनिक स्थल पर बीड़ी पीने वाला राहगीर भी दोषी पाया जाएगा। वहीं सामाजिक नजरिये में बीड़ी पीने की तुलना में किसी शक्तिसम्पन्न व्यक्ति द्वारा किसी दुर्घटनाग्रस्त अशक्त की सहायता नहीं करना दोष माना जाएगा, जिसे कानून दोष नहीं मानता। 
 
महाभारत कालीन समाज में द्रौपदी के चीर-हरण के समय भीष्म आदि का चुप रहना मान्य था पर आज का समाज तरुण तेजपाल प्रकरण में शोमा चौधरी की चुप्पी को गलत मान रहा है, भले ही कानूनी रूप से शोमा जी दोषी नहीं हैं। यह भी ध्यान रखने योग्य बात है कि आज तक चरित्र की कोई सर्वमान्य परिभाषा ईजाद नहीं हुई है, तो उसी के अंतर्गत मर्यादा पुरुषोत्तम राम तथा योगिराज कृष्ण के चरित्र पर भी सवाल खड़ा करना आसान हो गया है। 
 
ऐसे में उन सभी समूहों के लिए यह अत्यंत गम्भीर चिंतन का विषय है जो चरित्र को व्यवस्था-परिवर्तन से अधिक महत्वपूर्ण मानते हैं। यदि 'आप' चरित्र को ही महत्त्व देते रहेंगे तो तैयार हो जाइये कि चरित्रहीन लोग किसी भी रूप में चरित्रवान लोगों को सफल होने नहीं देंगे। वे कहीं न कहीं यह सिद्ध कर देंगे कि आप भी उन्हीं की तरह नग्न हैं। भले वे सामाजिक रूप से इसे सिद्ध न कर पाएं, पर किसी दूसरे स्तर तो सिद्ध कर ही देंगे। जब राम-कृष्ण इससे नहीं बच पाये तो हम आप क्या हैं? 
 
इसका असर यह होगा कि चरित्रवान लोग हमेशा 'डिफेंसिव' दिखने लगेंगे, और उनकी ऊर्जा का एक बहुत बड़ा भाग अपने ऊपर दिन-रात लग रहे आरोपों का स्पष्टीकरण देने में ही व्यतीत हो जाएगा, भले व्यापक समाज उन्हें चरित्रवान ही क्यों न मानता हो। 
 
इसके विपरीत यदि सज्जन लोग चरित्र के स्थान पर यह कहना शुरू करें कि हमारा चरित्र तो उसी स्तर का है जितना किसी आम आदमी का, और आम आदमी चरित्र निर्माण से अधिक इच्छुक है व्यवस्था परिवर्तन में क्योंकि वर्तमान व्यवस्था में उसकी सहभागिता शून्य है, तो चरित्रहीनों के दुष्चक्र से निकलने का यह सरल मार्ग भी होगा और उन्हें व्यवस्था परिवर्तन के अखाड़े में उतरने की मजबूरी भी। 
 
इस मार्ग को भारत के आम आदमी का भी पूरा समर्थन हासिल होगा क्योंकि उसकी सामूहिक इच्छाशक्ति भी व्यवस्था परिवर्तन और स्वराज की चाह कर रही है, डिलेवरी चाहती है, किसी से चरित्र के सर्टिफिकेट की नहीं।
 
लेखक सिद्धार्थ शर्मा से [email protected] के जरिए संपर्क किया जा सकता है.
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