राजस्थान विधानसभा के लिए पड़े रिकॉर्ड मतदान इसका संकेत था कि इस बार प्रदेश के चुनाव परिणामों में कुछ बड़ा उलटफेर होने वाला है। ऐसा हुआ भी। भारतीय जनता पार्टी चुनाव जीतकर सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी और 162 सीटों पर कब्जा किया। वसुंधरा राजे सिंधिया के नेतृत्व में नई सरकार का गठन हुआ। दूसरी बार वसुंधरा राजे ने मुख्यमंत्री का ताज पहना। अपने पिछले मुख्यमंत्री कार्यकाल में वसुंधरा राजे काफी लोकप्रिय हुईं थी। इसीलिए जनता ने एक अच्छे राजनीतिज्ञ को सत्ता में लाने की चाह में उन्हें फिर से चुना।
राजस्थान विधानसभा चुनावों के नतीजे काफी चौकाने वाले रहे। खुद सत्ताधारी पार्टी कांग्रेस के लिए ही नहीं बल्कि भाजपा भी इन परिणामों से हतप्रभ है। स्वयं अशोक गहलोत भी नहीं समझ पाए कि ये सब कैसे हो गया। सारे आकलन धवस्त हो गए। विकास के नाम पर चुनावी मैदान में उतरी गहलोत सरकार के कई दिग्गज मंत्री ढेर हो गए। बाइस मंत्री अपनी सीट से हार गए। केवल तीन मंत्री ही वापसी कर पाए। कांग्रेस के हुए सफाए में गत चुनाव में जीते करीब सभी विधायकों का सूपड़ा साफ हो गया। पार्टी ने पिछले विधानसभा चुनाव में जीते 96 में से 76 विधायकों को पुनः उम्मीदवार बनाया था लेकिन इनमें से अशोक गहलोत सहित मात्र चार उम्मीदवार ही जीत सके। 17 जिलों में कांग्रेस का सफाया हो गया तो 12 जिलों में एक-एक सीट ही मिली। कांग्रेस मात्र 21 सीटों पर सिमट कर रह गई। गुजरात की राज्यपाल कमला के पुत्र कांग्रेस प्रत्याशी आलोक एवं हरियाणा के राज्यपाल जगन्नाथ पहाड़िया के पुत्र एवं कांग्रेस प्रत्याशी ओमप्रकाश पहाड़िया भी चुनाव नहीं जीत सके। कांग्रेस ने भ्रष्टाचार और यौन शोषण के आरोपों में लिप्त नेताओं के परिजनों को भी टिकट दिया। इसका खामियाजा पार्टी को भुगतना पड़ा। मतदाताओं ने वंशवाद और परिवारवाद को नकार दिया। तीसरा मोर्चा खड़ा करने का सपना संजोए बैठे किरोड़ी लाल मीणा को भी महज चार सीटों से ही संतोष करना पड़ा जबकि सवाईमाधोपुर सीट से तो उन्हें हार का मुंह देखना पड़ा। मतदाताओं ने अपने दिल की आवाज सुनी और भाजपा का नेतृत्व कर रही वसुंधरा राजे को चुना।
दरअसल, अशोक गहलोत सरकार ने अपने कार्यकाल के शुरुआती तीन साल तक राजशाही अंदाज में सत्ता पर राज किया। चुनाव नजदीक आते ही सरकार की ओर से ताबड़तोड़ घोषणाएं की गईं। लोकार्पण व शिलान्यास की बाढ़ आ गई। मुफ्त दवा, मुफ्त जांच, पेंशन, दो रुपए किलो अनाज जैसे कई फैसले लिए। गहलोत सरकार को लग रहा था कि उनकी फ्लैगशिप योजनाएं उनकी नैया पार लगा देगी लेकिन नैया तो भाजपा की आंधी व मोदी लहर में डूब गई। ये सभी योजनाएं और फैसले भी सरकार की वापसी नहीं करा सकें। कांग्रेस ने जिस विकास के फार्मूले से सरकार बनाने का ख्वाब देखा था, वह ढह गया। चुनाव में महंगाई, भ्रष्टाचार जैसे मुद्दे हावी रहे। प्रदेश की जनता ने कांग्रेस की नीतियों को सिरे से खारिज कर दिया। कांग्रेस जनभावनाओं को नहीं समझ पाई और अति आत्मविश्वास में रही। दूसरी तरफ गहलोत सरकार पूरे समय भ्रष्टाचार के आरोपों में घिरी रही। गहलोत सरकार के मंत्रियों पर कई आरोप लगे। रिफाइनरी, नगरीय विकास, जमीन, डेयरी, पेयजल, बिजली, खनिज योजनाओं और भ्रष्टाचार के आरोप लगते रहे। दुराचार, यौन शोषण के आरोपों में मंत्री घिरे रहे। दबाव में उनसे मंत्री पद छीन लिया गया। इतना ही नहीं, कांग्रेस की आपसी खींचतान भी पार्टी को ले डूबी। पार्टी के कई नेता, मुद्दों की बजाए आपसी खींचतान में लगे रहे। सत्ता के प्रति उनकी महत्वाकांक्षाएं हावी रही। आखिरकार, सरकार की नाकाम नीतियों से कांग्रेस सत्ता से बाहर हो गई.
लेखक बाबूलाल नागा विविधा फीचर्स के संपादक हैं.