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सुख-दुख...

जब संपादक दलाल बन गए हैं तो अखबार में गालियां तो छपेंगी ही!

आज दोपहर को अचानक वाराणसी से मेरे एक पत्रकार मित्र का फोन आया, मैं अपनी पत्रिका को अंतिम ले आउट देने में लगा था, फिर भी फोन रिसीव किया. उसने कहा यार भड़ास साइट आज देखी क्या? मैंने कहा क्यू…कहा की देखो…सहारा में मायावती के खिलाफ गाली लिखी है..बड़ा बवाल हो रहा है.. मैंने सोचा कि माननीय यशवंत जी सिर्फ बवाल ही करवाते हैं.. सारे अखबार वालों ने इनकी साइट बंद करके रखी…फिर भी भास्कर वालों की पञ्च लाइन ….जिद करो..आगे बढ़ो..का फार्मूला अपनाये हुए है. अपने ऑफिस में मैंने इसकी चर्चा की..संपादक लेबल के कुछ बड़े अखबारों के पत्रकार भी बैठे थे… सबने कहा कि जागरण वाला मामला फिर सामने आया है.

आज दोपहर को अचानक वाराणसी से मेरे एक पत्रकार मित्र का फोन आया, मैं अपनी पत्रिका को अंतिम ले आउट देने में लगा था, फिर भी फोन रिसीव किया. उसने कहा यार भड़ास साइट आज देखी क्या? मैंने कहा क्यू…कहा की देखो…सहारा में मायावती के खिलाफ गाली लिखी है..बड़ा बवाल हो रहा है.. मैंने सोचा कि माननीय यशवंत जी सिर्फ बवाल ही करवाते हैं.. सारे अखबार वालों ने इनकी साइट बंद करके रखी…फिर भी भास्कर वालों की पञ्च लाइन ….जिद करो..आगे बढ़ो..का फार्मूला अपनाये हुए है. अपने ऑफिस में मैंने इसकी चर्चा की..संपादक लेबल के कुछ बड़े अखबारों के पत्रकार भी बैठे थे… सबने कहा कि जागरण वाला मामला फिर सामने आया है.

खैर… अब सवाल ये उठता है कि इसमें आरई कहां से दोषी है? डेस्क हेड कैसे दोषी है? प्रूफ रीडर का पद किसने समाप्त किया… अखबार वालों के मालिकों को जिन कथित बड़े महानुभाव संपादकों ने मल्टी संस्करण निकलने की सलाह दी.. क्या उन्हें ये नहीं पता था की इसमें उतने ही जानकार लोगों की जरुरत होगी.. मेरा ये दुर्भाग्य है कि अपने पत्रकारिता के शुरुआती दौर में जिन संपादकों को मैं जानत था, आज उसमें से ज्यादातर दलाल बने हुए हैं…कुछ जाति को लेकर पद पर बैठे हैं तो कुछ सेटिंग की बदौलत.. कभी-कभी इन संपादकों से मैं नौकरी भी मांगता हूँ, पर ये अपने साथ होटल में खिलाते तो है, साथ बैठाते तो हैं, पर नौकरी नहीं देते. इसका कारण है कि ये पांच-आठ हजार में आदमी खोजते हैं, ट्रेनी मिल जाये तो फिर क्या कहना.

अब बताओ. पांच हजार में जो डेस्क पर काम करेगा… उसकी मानसिकता क्या होगी.. किस लेबल का वो आदमी होगा और उससे कैसी पत्रकारिता अथवा डेस्क पर काम की उम्मीद की जा सकती है. दुःख इस बात का लगता है कि जिन बड़े संपादकों की बातें बड़ी होती हैं उनका काम बड़ा नहीं होता.. क्या वे संपादक इस बात को नहीं जानते हैं कि डेस्क पर उसी आदमी की नियुक्ति होती है, जो फील्ड में काफी अनुभव रखता है. ताकि जब फील्ड से खबर आये तो उसे पता होना चाहिए कि इस खबर की आत्मा क्या है? लेकिन अब ऐसा नहीं है. प्रूफ रीडर, सब एडिटर ख़तम… अब सम्पादक जी कहते हैं कि पेज बनाना आता है? अगर कहा की नहीं….तो फिर बस हो गयी नौकरी… इन्हें पत्रकारिता वाले आदमी नहीं चाहिए, इन्हें ऑपरेटर चाहिए. और इन्हीं किसी ऑपरेटर नें मायावती को गाली लिख दी.

मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि पूरी दुनिया में कोई भी ऐसा पत्रकार नहीं होगा जो अगर डेस्क पर काम कर रहा होगा तो वह गाली लिख देगा. अब बताओ गाली लिखने वालों को नौकरी किसने दी.. अखबार के मालिक ने, इसके लिए प्रबंधन दोषी है….नहीं.. इसके लिए सभी बड़े अखबारों के प्रधान संपादक दोषी हैं. इतिहास उन्हें कभी माफ़ नहीं करेगा. खुद बड़ी सेलरी लेने के चक्कर में ये लोग समाज को बर्बाद कर रहे हैं. और भाषा ऐसी बोलेंगे कि लगेगा की आपका बाप दुश्मन हो सकता है लेकिन ये संपादक जी कभी आपके दुश्मन नहीं होंगे.. आलोक तोमर जी तो नहीं रहे, प्रभाष जोशी भी अब इस दुनिया में नहीं है. कुछ गिने-चुने अच्छे संपादक हैं, तो वो या तो हाशिये पर हैं या फिर ढलती उम्र में घर पर बैठे हैं.. दलाल लोग राज कर रहे हैं.. और 98 प्रतिशत अखबारों में आज संपादक योग्यता के आधार पर नहीं, कुछ और आधार पर तय किये जाते हैं. इसके लिए भी कहीं भी अखबार का मालिक या फिर बड़ा प्रबंधन दोषी नहीं है. दोष सिर्फ उन पत्रकारों का है जो अब कथित बड़े संपादक बन गए हैं और राज्य सभा में जाने के लिए तड़प रहे हैं.

अगर मैं इस साइट पर दो-चार संपादकों के नाम लिख दूं कि इन्हें किस आधार पर संपादक बनाया गया तो बवाल हो जायेगा.. फिर हमको भी बिहार और झारखण्ड में नौकरी नहीं मिलेगी, वैसे ही जैसे यशवंत जी की साइट पर अपने अख़बारों के विरोध में खबर चलने के बाद तुरंत उससे प्रतिक्रया तो आती है लेकिन उस अखबार के दफ्तर में भड़ास देखने की सख्त मनाही है. इसलिए कभी इस मामले को लेकर आगे बात बनती है तो फिर नाम लिखा जायेगा, लेकिन फिलहाल यहाँ जिस आरई व डेस्क वालों को हटाया गया, वो गलत है. इसमें सिर्फ जांच करके एक आदमी को हटाना था और हटाना ही नहीं बल्कि उस पर मुकदमा भी दर्ज करवाना था, लेकिन फिर वही बात. ऊपर बैठे बड़े संपादक नीचे के छोटे संपादकों की कुर्सी ले ली..साला पूरा अंग्रेजी राज है रे भैया.. ऊपर के अधिकारी को कुछ नहीं होगा.. नीचे वालों की तो ऐसी की तैसी.

लेखक उदय शंकर खवाड़े अपकमिंग मैगजीन एनसीआर लुक के इनपुट हेड हैं.

 

 
 

 
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