पिछले कुछ दिनों से झारखंड में राजनीतिक उठा-पटक के बीच जो राजनीतिक दांव-पेंच लगाए जा रहे हैं वो झारखंड के 12 साल के इतिहास का एक बदनुमा अध्याय है। झारखंड के 12 साल के सफर को देखे तो वहां राजनीतिक अस्थिरता के ऐसे कई दौर आए हैं जहां लोकतंत्र की परिभाषा और उसकी गरिमा शर्मसार हुई है। आज झारखंड जिस मुहाने पर खड़ा है और जिस राजनीतिक संकट से जूझ रहा है उसका एकमात्र कारण झारखंड की राजनीतिक व्यवस्था और पार्टियां हैं।
दरअसल इस प्रदेश में जितने भी राजनीतिक दल हैं उनमें मौकापरस्ती की भावना कूट-कूट कर भरी हुई है। इसके पीछे एक कारण भी है क्योंकि वहां जितने भी राजनीतिक दल सक्रिय हैं वो येन-केन-प्रकारेण सत्ता में रहना चाहते हैं, लेकिन वे इतने भी सक्रिय नहीं कि अकेले दम पर सरकार बना लें। फिर शुरू होती है जोड़-तोड़ की राजनीति। आज झारखंड जिस लोकतांत्रिक संकट से चौतरफा घिरा है वो इसी जोड़-तोड़ का परिणाम है।
दरअसल बिहार से अलग होने के बाद झारखंड जब अस्तित्व में आया तब भाजपा ने बाबूलाल मरांडी के नेतृत्व में बड़ी मजबूती से सरकार बनाई थी लेकिन आपसी अन्तर्कलह की वजह से भाजपा से अलग हुए मरांडी ने भाजपा को बैकफुट पर ला दिया। उसके बाद अर्जुन मुंडा ने भाजपा को सहेजने की काफी कोशिशें की लेकिन वे भाजपा को मुख्यधारा में नहीं ला सके। नतीजतन भाजपा आज झारखंड में एक अनुषंगी पार्टी बनकर रह गई है।
दरअसल इस पूरे परिप्रेक्ष्य में दो बातों का विश्लेषण आवश्यक है जिसमें पहला तो यही कि 12 सालों के इतिहास में राजनीतिक दलों की क्या भूमिका रही है और उन्होंने अब तक झारखंड के राजनीतिक पटल पर क्या हासिल किया है। अगर हम दो बड़े राष्ट्रीय दलों की बात करें तो कांग्रेस इन सालों में कभी प्रखर नहीं हुई। झारखंड में हुए किसी भी विधनसभा चुनाव में ऐसा नहीं लगा कि कांग्रेस केन्द्रीय भूमिका में आएगी या फिर अकेले दम पर सरकार बना पाएगी। हां 2008 में शिबू सोरेन की सरकार में जरूर सहभागी रही थी। लेकिन उस वक्त भी उसने कोई छाप नहीं छोड़ी थी। जहां तक भारतीय जनता पार्टी की बात है तो वह झारखंड के गठन के दिनों से ही केन्द्रीय भूमिका में रही है।
बाबूलाल मरांडी के बाद अर्जुन मुंडा ने झारखंड में भाजपा की कमान सम्भाली। लेकिन वे पार्टी और विधायकों को सम्भाल नहीं पाए। नतीजा यह हुआ कि पार्टी आज जिस पायदान पर है वो किसी राष्ट्रीय पार्टी के भविष्य के लिए ठीक नहीं है। हाल में झामुमो और भाजपा के गठबंधन का जिस तरह बिखराव हुआ है उससे भाजपा के छवि और उसकी विश्वसनीयता को और ज्यादा नुकसान पहुंचा है। आज झारखंड में भाजपा की स्थिति उत्तर प्रदेश जैसी हो गई है। शायद उसने उत्तर प्रदेश की गलतियों से कुछ सबक नहीं लिया। कभी उत्तर प्रदेश में अकेले दम पर सरकार बनाने वाली भाजपा मायावती (बसपा) की पिछलग्गू बनकर हाशिए पर खड़ी है। ठीक वैसे ही वह झारखंड में झामुमो की पिछलग्गू बनी हुई है।
इन राजनीतिक दलों से परे अन्य दलों मसलन झारखंड मुक्ति मोर्चा, राजद, जद (यू), आजसू, निर्दलीय आदि की बात करें तो इन्होने समय-समय पर राष्ट्रीय दलों को आईना दिखाया है और गाहे-बगाहे उन्हें सरकार बनाने के लिए अपने दर पर मत्था टेकने के लिए मजबूर किया है। यानि कुल मिलाकर झारखंड को राजनीतिक मुद्दे पर निराशा ही हाथ लगी है। क्योंकि किसी भी राजनीतिक दल ने सरकार के नाम पर स्थिरता नहीं दी है। झारखंड की राजनीतिक बदहाली का अंदाज इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि 15 नवम्बर, 2000 को बिहार से अलग होने के बाद 12 सालों में दो बार चुनाव तो हुए हैं लेकिन 8 मुख्यमंत्री बन चुके हैं और 3 बार राष्ट्रपति शासन लग चुका है।
दूसरी तरफ जब राजनीतिक गलियारों से बाहर निकल आर्थिक परिदृश्य की बात करते हैं तो स्पष्ट है कि किसी राज्य का आर्थिक पक्ष वहां की राजनीतिक पृष्ठभूमि पर निर्भर करता है। ऐसे में जब झारखंड के परिवेश में इसकी बात होती है तो इन राजनेताओं और दलों ने झारखंड का आर्थिक रूप से बंटाधर ही किया है। प्राकृतिक रूप सम्पन्न झारखंड को सबने जब चाहा जैसे चाहा लूट लिया। निर्दलीय विधायक से मुख्यमंत्री बने मधु कोड़ा ने प्राकृतिक संसाधनों का ऐसा दोहन किया कि झारखंड आज तक कराह रहा है। दरअसल इन दोनों पक्षों में झारखंड के साथ छलावा ही हुआ है और वर्तमान में जो परिस्थितियां विकसित हुईं हैं उसमें झारखंड एक फिर भटक गया है।
लेखक अजय पाण्डेय अमर भारती में वरिष्ठ उप संपादक के पद पर कार्यरत हैं।