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टाइम ने दिखाया भारतीय मीडिया को आईना!

टाइम पत्रिका ने मनमोहन सिंह को फेल कर दिया और नरेन्द्र मोदी को पास। बतौर इक्नामिस्ट मनमोहन सिंह को फेल उस वक्त किया, जब प्रणव मुखर्जी वित्त मंत्रालय छोड़ रायसिना हिल्स की दौड़ में शामिल हुए और मनमोहन सिंह ने बतौर वित्त मंत्री अपना हुनर दिखाना शुरु किया। जबकि महज सोलह हफ्ते पहले ही नरेन्द्र मोदी को टाइम पत्रिका ने यह संकेत देते हुये पास किया कि जिस इक्नामी की जरूरत भारत को इस वक्त है, वह गुजरात के जरिये मोदी लगातार दे रहे हैं।

टाइम पत्रिका ने मनमोहन सिंह को फेल कर दिया और नरेन्द्र मोदी को पास। बतौर इक्नामिस्ट मनमोहन सिंह को फेल उस वक्त किया, जब प्रणव मुखर्जी वित्त मंत्रालय छोड़ रायसिना हिल्स की दौड़ में शामिल हुए और मनमोहन सिंह ने बतौर वित्त मंत्री अपना हुनर दिखाना शुरु किया। जबकि महज सोलह हफ्ते पहले ही नरेन्द्र मोदी को टाइम पत्रिका ने यह संकेत देते हुये पास किया कि जिस इक्नामी की जरूरत भारत को इस वक्त है, वह गुजरात के जरिये मोदी लगातार दे रहे हैं।

तो क्या यह माना जा सकता है कि अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह पर हिन्दुत्व के सामाजिक प्रयोगशास्त्री नरेन्द्र मोदी भारी पड़ गये? अगर मोदी और मनमोहन को लेकर अर्थशास्त्र की कोई सामानांतर रेखा खींचे तो दोनो में एक ही समानता खुले तौर पर सामने आती है। और वह है क्रोनी कैपटिलिज्म या कारपोरेट। मनमोहन सिंह ने चाहे क्रोनी कैपटिलिज्म का विरोध अपने भाषणों में किया और नरेन्द्र मोदी ने चाहे खुले तौर पर कारपोरेट की सत्ता से खुद की सत्ता को जोड़ा, लेकिन विकास के नाम पर जिन आर्थिक नीतियों को दोनों ने लागू किया वह पूरी तरह कारपोरेट के आसरे गवर्नेंस को खड़ा करना ही रहा।

मोदी हर बरस वाइब्रेंट गुजरात के जरिये कारपोरेट घरानों को जोड़ने का दायरा बढ़ाते चले गये और मनमोहन सिंह आर्थिक सुधार को अमल में लाने और पूंजी निवेश के लिये कारपोरेट के सामने नतमस्तक होते चले गये। क्योंकि 2004 ही वह साल जब केन्द्र में आरएसएस की वाजपेयी सरकार हारती है और नरेन्द्र मोदी को समझ में आता है कि अब उन्हें हिन्दुत्व की नहीं गवर्नेन्स की जरूरत है। क्योंकि दिल्ली में अब स्वयंसेवक वाजपेयी-आडवाणी नहीं, बल्कि विश्व बैंक और अमेरिकी हितों के आधार पर चलने वाले मनमोहन सिंह हैं। मनमोहन सिंह भी प्रधानमंत्री बनने के बाद पहली विदेश यात्रा अमेरिका की ही करते हैं और पहले पांच बरस में पुराने सारे रिकार्ड तोड़ते हुए 12 बार अमेरिका की यात्रा करते हैं।

संयोग से इसी पांच बरस में आधे दर्जन बार मोदी को अमेरिका जाने का वीजा दिये जाने से इनकार होता है और 2004 से पहले के गुजरात के दाग को ही मोदी की पहचान से उसी तरह जोड़ा जाता है, जैसे प्रधानमंत्री बनने से पहले मनमोहन सिंह को विश्व बैंक के अधिकारी के तौर पर देखा जाता था। और प्रधानमंत्री बनने के बाद यही पहचान दाग के साथ राजनीतिक बहस का हिस्सा बन जाती है। नरेन्द्र मोदी लगातार अमेरिकी नीति में खारिज होते है और मनमोहन सिंह लगातार राजनीतिक तौर पर अमेरिकी पिठ्ठू बनकर उभरते हैं। लेकिन 2009 के बाद जैसे ही राडिया टेप सामने आते हैं, मनमोहन सिंह के चकाचौंध का आर्थिक ढांचा भरभरा कर इसलिये गिरता है क्योंकि निशाने पर वही क्रोनी कैपटिलिज्म आता है, जो एक वक्त मनमोहन सिंह के मंत्रिमंडल की रिपोर्ट कार्ड को ‘ए प्लस दिलाता’ रहा। और तमाम मंत्री पीएमओ को यह बताने में अपनी सफलता मानते रहे कि फलां कारपोरेट के जरिये फलां परियोजना का अमलीकरण शुरु हो गया है या फिर फलां कारपोरेट फलां परियोजना में निवेश करेग। यानी मंत्रियों के ताल्लुक कारपोरेट से और कारपोरेट की नजर भारत की उस जमीनी योजनाओं पर जहाँ से ज्यादा-से-ज्यादा मुनाफा बटोरा जा सके।

कारपोरेट की यह पहल किसी प्रतिक्रियावादी फंडामेंटलिस्ट की तरह रही, जहाँ विकास को लेकर पूर्ण सहमति पूंजी निवेश और मुनाफे पर चले। यह असफल होगा तो इसके असर क्या हो सकते हैं इसपर कभी कारपोरेट ने सरकार को सोचने नहीं दिया और सरकार ने सोचा नहीं। असल में मनमोहन सरकार के गवर्नेंस का मतलब ही मैनेजेरियल तौर तरीके रह गये। चूंकि मंत्रियों के समूह से लेकर नौकरशाही तक में कारपोरेट के लिये मैनेजेरियल हुनर को दिखना ही महत्वपूर्ण माना जाने लगा तो मनमोहन सफल कैसे और किस फ्रंट पर होते। वहीं नरेन्द्र मोदी इसलिये सफल माने जाने लगे क्योकि सिंगल विंडो निर्णय लिये जा रहे थे। मोदी ने कारपोरेट को आसरा दिया। कारपोरेट के कंधे पर सवार हुये। कारपोरेट के जरिये गुजरात को वाइब्रेंट बनाया। तो ताल्लुक, हुनर और निर्णय सीधे अपने पास रखे। यानी मोदी ने खुद को क्रोनी कैपटिलिज्म में बदल दिया। वहां मंत्रियों का समूह या नौकरशाही का काम सिर्फ मोदी के निर्देश को लागू कराना है।

मंत्री या बाबू अपने हुनर से कारपोरेट के जरिये मोदी के सामने वैसे कद बढ़ाने की सोच भी नहीं सकता जैसा मनमोहन सरकार के भीतर मंत्री और नौकरशाह करते रहे। मोदी को इसका लाभ मिला और मनमोहन सिंह के लिये यह घाटे का सौदा बनता चला गया। कारपोरेट के लिये मोदी ब्ल्यू आईड ब्याय हो गये तो मनमोहन फेल गवर्नेन्स के प्रतीक बन गये। चूंकि गुजरात में नरेन्द्र मोदी ही हर संस्थान बने हुये है तो वहा संस्थानों की भूमिका भी मोदी की कारपोरेट वाहवाही में ढंक गयी। लेकिन मनमोहन सिंह की मुश्किल यह रही कि गवर्नेस का मतलब उनके लिये लोकतंत्र के दूसरे स्तम्भों की भूमिका को भी जगह देना था। इसलिये सीएजी से लेकर सीएसी और सुप्रीम कोर्ट से लेकर गठबंधन के सहयोगियों ने ही उन्हें घेरा। अगर 2009 के बाद की परिस्थियों को याद करें तो आईपीएल से लेकर कामनवेल्थ और 2जी स्पेक्ट्रम से लेकर कोयलागेट।

कटघरे में मनमोहन सरकार ही खड़ी हुई। और उसके छींटे कहीं ना कहीं उन संस्थानों पर भी पडें जिनकी भूमिका लोकतंत्र के लिहाज से चैक एंड बैलेस बनाने वाली होनी चाहिये थी। पूर्व चीफ जस्टिस बालाकृष्णन से लेकर सेना के पूर्व चीफ तक के नाम घोटालों से जुडे़। राडिया टेप ने तो दिग्गज मीडिया घरानो के दिग्गज पत्रकारों को कटघरे में खड़स कर दिया। संसद के भीतर हवा में लहराये नोटों के पीछे का खेल जो स्टिंग आपरेशन के जरिये कैमरे में कैद हुआ उसे भी उसी सार्वजनिक नहीं किया गया। जबकि इस दौर में लगातार विपक्ष सरकार पर हमले भी करता रहा और सौदेबाजी से मुंह भी नहीं मोड़ा। सीपीएम ने मनमोहन सरकार को गिराना चाहा तो मुलायम-अमर की जोड़ी ने बचा लिया। भाजपा ने नोट के बदले वोट का खेल बताना चाहा तो संसदीय व्यवस्था ने सत्ता की व्यवस्था का खेल दिखलाकर व्हीसिल ब्लोअर को ही कटघरे में खड़ा कर दिया। इस पूरी प्रक्रिया में ऐसा क्या है जिसे टाईम पत्रिका ने समझा लेकिन भारत की मीडिया ने नहीं समझा। अगर बारीकी से हर परिस्थिति को देखे तो सत्ता के साथ मीडिया की जुगलबंदी का खेल पहली बार टाईम पत्रिका ही सामने लाती है। क्योंकि मनमोहन सिंह को लेकर लगातार मीडिया की भूमिका एक ईमानदार प्रधानमंत्री वाली ही रखी गई।

आर्थिक सुधार के जरिये दुनिया की बिगड़ी अर्थव्यवस्था के बीच भारत की अर्थव्यवस्था को पटरी पर रखने वाले प्रधानमंत्री के तौर पर ही मनमोहन सिंह की छवि रखी गई। सवाल मंहगाई से लेकर भ्रष्‍टाचार और कालेधन को लेकर संसद से सड़क तक कोई भी सवाल कहीं से भी उठे लेकिन इस दौर में पहली बार प्रभावी मीडिया घरानों ने संकेत यही दिये कि चुनी हुई सरकार की लिजेटमसी पर अंगुली उठाना सही नहीं है। आलम यहा तक रहा है कालेधन पर नकेल कसने के लिये सुप्रीम कोर्ट ने सरकार की टास्कफोर्स के उपर अपने दो जजों को बैठाने की बात कही और दुनिया की रेटिंग कंपनियों ने भारत को नेगेटिव दिया लेकिन सरकार के नजरिये को ही प्रथमिकता मिली। और पूरे दौर में अकसर यह सवाल उछलता रहा कि सरकार अगर पटरी से उतरी हुई है तो विपक्ष है ही नहीं। यानी शून्य विपक्ष के होने से मनमोहन सरकार कैसे भी काम करती रहे वह इसलिये मंजूर है क्योंकि राजनीतिक तौर पर वह सत्ता में तो है। जाहिर है बड़ा सवाल यही उठता है कि क्या टाईम पत्रिका ने भारतीय मीडिया को आईना दिखाया है।

क्या मनमोहन इक्नामिक्स ने मीडिया को भी उसी जमीन पर ला खड़ा किया है जहां सरकार की तर्ज पर सत्ता होने का सुकुन ही सबकुछ हो चला है। या फिर विपक्षहीन राजनीति की बात कहते कहते अंग्रेजी मीडिया इस भ्रम में गोते लगाने लगा है कि उसके मीडिया के भीतर भी विकल्‍प या विरोध की क्षमता खत्म हो चली है। और इसीलिये इस दौर में कारपोरेट ने मीडिया में भी अपनी साझीदारी शुरु कर दी है। यानी जिस कारपोरेट ने मोदी से लेकर मनमोहन को घेरा अब वह सहमति बनाने के लिये मीडिया को भी घेर रहा है। यह सवाल टाईम पत्रिका के कवर पेज पर अवसर खोने वाले मनमोहन सिंह या अवसर पाने वाले मोदी से कही ज्यादा बड़ा इसलिये है क्योंकि मीडिया की धार अगर कारपोरेट के आसरे सत्ता के लिये म्यान बनने पर उतारु है तो फिर संकट मनमोहन सिंह के ननएचीवर होने का नहीं बल्कि भारतीय मीडिया के ननएचीवर होने का है। यानी मनमोहन सरकार को सफल होने के लिये विदेशी पूंजी निवेश चाहिये तो सरकार की इस गुलामी को समझने के लिये आम पाठक को टाईम सरीखी पत्रकारिता चाहिये। है ना कमाल।

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वरिष्‍ठ पत्रकार पुण्‍य प्रसून बाजपेयी के फेसबुक वाल से साभार.

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