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तीसरे मोर्चे के भी खास निशाने पर रहेंगे मोदी!

तीसरे मोर्चे के लिए वामपंथी नेता तेजी से सक्रिय हो रहे हैं। तीसरे राजनीतिक विकल्प का ताना-बाना तैयार करने के लिए जोड़-तोड़ की मुहिम शुरू की जा रही है। 5 अगस्त से संसद का मानसून सत्र शुरू होने जा रहा है। सभी दलों के दिग्गज दिल्ली पहुंचने वाले हैं। सीपीएम के वरिष्ठ नेताओं की रणनीति है कि संसद सत्र के दौरान क्षेत्रीय सेक्यूलर दलों से साझा राजनीति के लिए समझदारी बना ली जाए।

तीसरे मोर्चे के लिए वामपंथी नेता तेजी से सक्रिय हो रहे हैं। तीसरे राजनीतिक विकल्प का ताना-बाना तैयार करने के लिए जोड़-तोड़ की मुहिम शुरू की जा रही है। 5 अगस्त से संसद का मानसून सत्र शुरू होने जा रहा है। सभी दलों के दिग्गज दिल्ली पहुंचने वाले हैं। सीपीएम के वरिष्ठ नेताओं की रणनीति है कि संसद सत्र के दौरान क्षेत्रीय सेक्यूलर दलों से साझा राजनीति के लिए समझदारी बना ली जाए।

सीपीएम की इस पहल में सबसे बड़ी दिक्कत तृणमूल कांग्रेस की सुप्रीमो ममता बनर्जी बन रही हैं। क्योंकि, वे किसी भी स्थिति में वाम मोर्चे के साथ नहीं खड़ी हो सकतीं। क्योंकि, पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस का मुख्य राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी वाम मोर्चा ही है। इन दिनों दोनों धड़ों के बीच कई मुद्दों पर हिंसक टकराव की भी नौबत आ खड़ी हुई है। ऐसे में, सीपीएम के उस्तादों ने बड़ी चालाकी से कोशिश शुरू की है कि तीसरे मोर्चे से ‘ममता कांटा’ पहले ही अलग-थलग कर दिया जाए।

सीपीएम के वरिष्ठ सांसद सीताराम येचुरी कह चुके हैं कि इस दौर में तीसरे राजनीतिक विकल्प की सख्त जरूरत है। क्योंकि, भाजपा और कांग्रेस की आर्थिक नीतियों में मौलिक रूप से कोई फर्क नहीं है। दोनों दलों के नेतृत्व में चलने वाले गठबंधन एक तरह से दिशाहीन हैं। ये मोर्चे आम आदमी को खुशहाली देने वाली राज व्यवस्था नहीं बना सकते। ऐसे में, बहुत जरूरी हो गया है कि गैर-भाजपा और गैर-कांग्रेस का कोई तीसरा राजनीतिक प्रयोग हो। इसके लिए उन लोगों ने प्रयास तेज किए हैं। सीपीएम के वरिष्ठ नेता प्रकाश करात ने तो काफी पहले कह दिया था कि सेक्यूलर विचारों वाले दल एक बार फिर जुटें, तो तीसरे मोर्चे का गठन कोई मुश्किल बात नहीं है।

करात की नजर में इस राजनीतिक प्रक्रिया में सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव की बड़ी भूमिका हो सकती है। वैसे भी उत्तर प्रदेश में सबसे ज्यादा लोकसभा की सीटें हैं। यदि सपा ने विधानसभा चुनाव के तरीके से लोकसभा में भी अच्छा प्रदर्शन किया, तो तीसरे मोर्चे की तरफ से मुलायम सिंह प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार हो सकते हैं। वाम मोर्चा समय आने पर मुलायम सिंह का इस पद के लिए समर्थन भी कर सकता है।

पिछले दिनों सीताराम येचुरी ने डीएलए से बातचीत के दौरान कहा था कि खांटी समाजवादी नेता मुलायम सिंह में प्रधानमंत्री बनने के सभी गुण हैं। यदि सपा लोकसभा में काफी सीटें जीत गई, तो मुलायम सिंह के लिए नई संभावनाएं जरूर बनेंगी। यहां राजनीतिक हल्कों में सीपीएम के इन तेवरों के पीछे एक खास रणनीति समझी जा रही है। यही कि सीपीएम नेतृत्व बड़ी होशियारी से मुलायम का गुणगान करके उनको खुश करने की कोशिश कर रहा है। ताकि, वे दीदी (ममता) के मोह से एकदम बाहर आ जाएं।

उल्लेखनीय है कि पिछले दिनों तृणमूल कांग्रेस के एक वरिष्ठ सांसद ने मुलायम को अपनी दीदी (ममता) का खास संदेश दिया था। सपा सुप्रीमो को बताया गया कि राष्ट्रपति चुनाव के दौरान तृणमूल कांग्रेस और सपा के बीच जो राजनीतिक खटास पैदा हुई थी, उसे अतीत की बात मानी जाए। यदि सपा सुप्रीमो तीसरे मोर्चे के लिए दिलचस्पी लें, तो तृणमूल कांग्रेस इसमें सहयोग करने को तैयार हैं। बस, शर्त यही है कि इस राजनीतिक मुहिम से वाम मोर्चे को दूर रखना है।

दरअसल, ममता बनर्जी अपने स्तर पर सेक्यूलर दलों का एक फ्रंट तैयार करना चाहती हैं। इस संदर्भ में वे जदयू के नेता एवं बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से बात भी कर चुकी हैं। इसके पहले ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक से ममता की बातचीत हो चुकी है। सेक्यूलर फ्रंट के लिए टीडीपी के प्रमुख चंद्र बाबू नायडू भी तैयार हैं। इस सिलसिले में अनौपचारिक तौर पर पूर्व प्रधानमंत्री एच डी देवगौड़ा भी कई नेताओं से बातचीत कर चुके हैं। लेकिन, तीसरे मोर्चे के ताने-बाने नए सिरे   से बुनने में सबसे बड़ी बाधा वाम मोर्चा और तृणमूल कांग्रेस के धुर विरोधी रिश्ते आ रहे हैं। क्योंकि, तृणमूल कांग्रेस और वामपंथी नेता किसी भी सूरत में एक मंच पर आने को तैयार नहीं हैं।

इस संदर्भ में येचुरी यही कहते हैं कि वे लोग राजनीतिक छुआ-छूत में विश्वास नहीं करते। लेकिन, जिस तरह से तृणमूल कांग्रेस पश्चिम बंगाल में सरकार चला रही है, उसे देखकर नहीं लगता कि इस दल के पास कोई राजनीतिक समझदारी बची है। यदि ये पार्टी अपने तौर-तरीकों में कुछ सुधार कर ले, तो वे लोग इस पार्टी को लेकर कोई अड़ियल रवैया नहीं अपनाना चाहेंगे। लेकिन, इतना जरूर है कि उन लोगों का निजी अनुभव तृणमूल कांग्रेस को लेकर अच्छा नहीं हैं।

शुरुआती दौर में वाम दलों ने तीसरे मोर्चे के संदर्भ में नकारात्मक तेवर अपनाए थे। यही कहा था कि इस मोर्चे की राजनीतिक साख अच्छी नहीं रही है। पिछले वर्षों में इसके जो राजनीतिक प्रयोग रहे हैं, वे जनता की नजर में अपनी साख नहीं बना पाए। ऐसे में, महज राजनीतिक सौदेबाजी के लिए ऐसी किसी राजनीतिक जोड़-तोड़ में वाम दलों की कोई दिलचस्पी नहीं है। लेकिन, वाम दलों ने अब अपनी रणनीति बदल दी है। वे कोशिश कर रहे हैं कि ‘सेक्यूलर फ्रंट’ जैसे मोर्चे बनने के बजाए सीधे तीसरे मोर्चे के लिए जमकर लॉबिंग की जाए।

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इसकी एक वजह यह भी है कि मीडिया सर्वेक्षणों में यह बात सामने आने लगी है कि ताजा स्थितियों में एनडीए और यूपीए दोनों की ताकत महज 150-150 सीटें जीत पाने की बन पा रही है। ऐसे में, 200 से ज्यादा सीटें सेक्यूलर दलों के खाते में आ सकती हैं। जाहिर है कि चुनाव के बाद राजनीतिक तस्वीर कुछ ऐसी ही बनी, तो सत्ता में तीसरा मोर्चा आ सकता है। क्योंकि, एनडीए भी 6 साल सत्ता में रह चुका है। इस दौर में भाजपा के ‘सुशासन’ की तमाम पोल खुल चुकी है। जबकि, यूपीए-2 की दूसरी पारी लगातार राजनीतिक झंझावातों के बीच से गुजर रही है। इस दौर में महंगाई तेजी से बढ़ी है। मनमोहन सरकार ने इस दौर में घोटालों और महाघोटालों के नए रिकॉर्ड बनाए हैं। ऐसे में, यूपीए सरकार के लिए राजनीतिक स्थितियां अनुकूल नहीं रहीं।

यह अलग बात है कि भाजपा के लालकृष्ण आडवाणी जैसे वरिष्ठ नेताओं को लग रहा है कि केंद्र सरकार से नाराजगी के चलते भाजपा की बेहतर चुनावी संभावनाएं बन गई हैं। उन्होंने तो पिछले दिनों यहां तक दावा किया कि मौजूदा हालात में भाजपा जीत का नया रिकॉर्ड बना सकती है। बस, उन्होंने अपनी पार्टी के लोगों को यही सलाह दी है कि वे इस अनुकूल अवसर का लाभ उठा लें। आपसी ‘महाभारत’ में अपनी ऊर्जा न जाया करें।

कांग्रेस के प्रवक्ता शकील अहमद कहते हैं कि आडवाणी जैसे नेता अपनी पार्टी के लोगों की हताशा दूर करने के लिए इस तरह के जुमले उछाल रहे हैं। ऐसे में, आडवाणी की टिप्पणी को बस, बड़बोलापन ही कहा जा सकता है। राजनीतिक हल्कों में आडवाणी के नए ‘जोश’ को लेकर भी कई तरह की चर्चाएं शुरू हुई हैं। उल्लेखनीय है कि नरेंद्र मोदी के मुद्दे पर आडवाणी, पार्टी नेतृत्व से तुनके रहे हैं। क्योंकि, उनके विरोध के बावजूद पार्टी ने मोदी को चुनाव प्रचार अभियान समिति की कमान सौंप दी है।

अभी यह भरोसे से नहीं कहा जा रहा कि मोदी के मुद्दे पर आडवाणी का गुस्सा एकदम शांत हो गया है। लेकिन, वे अचानक पार्टी की संभावनाओं को लेकर जोश में तो आ ही गए हैं। इसकी क्या वजह हो सकती है, इसको लेकर पार्टी के अंदर कई तरह के कयास जारी हैं। बहरहाल, नरेंद्र मोदी की अगुवाई में भाजपा की चुनावी तैयारी काफी जोरों पर है। खुद, मोदी कांग्रेस के खिलाफ खासी आक्रामक मुद्रा में दिखाई पड़ते हैं। वे सीधे तौर पर मनमोहन सरकार के साथ ‘10 जनपथ’ पर तीखे निशाने साधते रहते हैं। स्पष्ट संकेत हैं कि टीम मोदी राजनीतिक ध्रुवीकरण के लिए हिंदुत्व कार्ड चलाने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ेगी। पिछले दिनों मोदी खुद अपने को हिंदू राष्ट्रवादी करार कर चुके हैं।

मोदी के खास सिपहसालार एवं उत्तर प्रदेश के प्रभारी महासचिव अमित शाह, अयोध्या जाकर राम मंदिर का मुद्दा गरमाने की कोशिश कर चुके हैं। मोदी के इन तेवरों के चलते कांग्रेस ने भी पलटवार की तैयारी शुरू की है। इस पार्टी के नेता बार-बार गुजरात के दंगों में टीम मोदी की भूमिका का जिक्र करते हैं। कोशिश हो रही है कि इस रणनीति के चलते कम से कम मुस्लिम वोट का रुझान पूरे देश में कांग्रेस के प्रति बढ़ जाए।

कांग्रेस की इस रणनीति का आकलन करके वामदलों ने भी कहना शुरू कर दिया है कि कांग्रेस की सेक्यूलर राजनीति एक बड़ा पाखंड है। यदि देश में सही मायने वाली सेक्यूलर राजनीति को बढ़ावा देना है, तो जरूरी है कि तीसरा राजनीतिक विकल्प मजबूत हो। मुलायम, चंद्र बाबू नायडू, नवीन पटनायक व नीतीश कुमार जैसे सेक्यूलर दिग्गजों ने कांग्रेस से भी ज्यादा, मोदी पर निशाना साधना शुरू किया है।

मुलायम ने तो कह दिया है कि चुनाव के बाद ही सही मायने में तीसरे मोर्चे का गठन होगा। लेकिन, जमीनी सच्चाई यही है कि मोदी जैसे नेताओं के खतरनाक मंसूबों को सपा जैसे खांटी सेक्यूलर दल ही ध्वस्त कर सकते हैं। कांग्रेस के लोग तो महज बातें करते हैं, इससे ज्यादा कुछ नहीं। यह बात जनता समझने भी लगी है।

लेखक वीरेंद्र सेंगर डीएलए (दिल्ली) के संपादक हैं। इनसे संपर्क [email protected] के जरिए किया जा सकता है।

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