तहलका के समूचे प्रकरण पर जब आप उनमें काम कर रहे पत्रकारों के नज़रिए से देखते हैं तो आपको दो तरह की अतियों का सामना एक साथ करना होता है. दोनों अतियां विरोधाभाषी और अतार्किक ही दिखेंगी आपको. एक विचार यह कि सभी ‘सरोकारी’ पत्रकारों को कंपनी छोड़ देना था तो दूसरा ये कि तेजपाल के अपराध की सज़ा संस्थान को क्यूं मिले? पहली बात का जबाब यही है कि आपको किसी व्यक्ति के (चाहे वह बॉस ही क्यूं न हो) अपराध की सज़ा खुद को देने की ज़रूरत नहीं है. जब तक महीने का तनख्वाह आपके खाते में आती रहे तब तक बने रहिये नौकरी पर.
वैसे भी अभी मीडिया इंडस्ट्री मंदी के दौर से गुजर रहा है. बड़ी-बड़ी दुकानों में सैकड़ों की संख्या में कार्मिकों की छटनी हो रही है तो ऐसे में कोई रिस्क लेने की जरूरत नहीं है. ज़ाहिर है आपके पास खुद की बैंटेले कार तो होंगी नहीं ना ही तेजपाल की तरह आपका कारोबार पोंटी चड्ढा से लेकर खनिज के धंधेबाजों तक पसरा होगा. शोमा ने कभी आपको कहा भी नहीं होगा कि उसके महल में से कोई हिस्सा आपको मिलने वाला है. मोटे तौर पर आप सभी ठीक-ठाक फीस के पैसे भर मध्यवर्गीय घरों के, छोटे-छोटे शहरों के भारी बोर दोपहर से झोला उठाये वाया माखनलाल, आइआइएमसी और जामिया समेत अन्य संस्थानों से डिग्री-डिप्लोमा हासिल कर रोजी-रोटी की तलाश में निकले होंगे. कुछ अपवादों को छोड़कर 70 के दशक के फ़िल्मी हीरो की तरह ढेर सारी जिम्मेदारियां भी हो सकती हैं आपकी. तो निश्चित रूप से बने रहिये. दुनिया बदल देने की कोई खुशफहमी पाले बिना, कुछ इसी तरह जैसे पीठ पर लैपटॉप लादे अन्य एमबीए या आईटी संस्थान के पेशेवर लगे हैं अपने धंधे में. हां, अगर सच में आपको लग रहा हो कि तहलका में काम कर आप कोई क्रान्ति कर रहे हैं, आपके बॉस सच में कोई मसीहा या फरिश्ता रहे हैं इस पेशे के, तो विनम्र निवेदन यही कि गांव-कस्बे के अपने घर में कुत्ते-बिल्ली पाल लें, मुगालते मत पालें.
दूसरे सवाल का जबाब ज़रा लंबा होगा और इस लेख का आशय ही दूसरे सवाल का जबाब खोजना है. आपका कहना ये है कि तरुण तेजपाल की सज़ा तहलका को क्यूं मिले? इसका जबाब देने से पहले उलटा सवाल है आपसे. क्या बंगारू लक्ष्मण के किये की सज़ा आज तक आप लोग भाजपा को नहीं दे रहे हैं. क्या कांग्रेस का अब ये अघोषित नारा नहीं है कि ‘चाहे जितना भी खाओ तेजपाल से पचाओ?’ क्या उस स्टिंग के समय से आजतक कभी भी आपने किसी को कहते सुना कि लक्ष्मण की सज़ा भाजपा को क्यूं दी जा रही है. इसके उलट उस समय भाजपाध्यक्ष को एक लाख पकड़ा दिया जाना मानो कांग्रेस के लिए जन्म-जन्मांतर तक भ्रष्टाचार करने का लाइसेंस थमा दिया जाना साबित हुआ. हर उस मौके पर जब-जब कांग्रेस द्वारा उस एक लाख रूपये से करोड़ों गुने ज्यादा का भ्रष्टाचार किया गया, उसका एक ही जबाब होता था कि भाजपा ने भी एक लाख लिया था. जब भी वो 1.76 लाख करोड के टू जी में रंगे हाथ पकड़ा गया उसका यही तर्क. सारे 122 लाइसेंस रद्द हुए फिर भी यही बात. कनिमोझी-राजा-कलमाड़ी सारे जेल हो आये फिर भी जनता के दिमाग में ठूस-ठूस कर बैठा दिया गया कि ‘चोर-चोर मौसेरे भाई’ हैं और कांग्रेस की दुकान चलती रही. अपन अक्सर यह कहते हैं कि अकेले तेजपाल ने कांग्रेस का इतना भला कर दिया जितना नेहरू और इंदिरा गांधी तक ने नहीं किया होगा.
अब जब बात चल ही निकली है तो ज़रा स्टिंग के बारे में भी कुछ विमर्श हो जाए. अपना शुरू से यह मानना रहा है कि अगर कहीं कोई अपराध हो रहा हो और उसे आपने गुप्त तरीके से फिल्मा लिया तो निश्चय ही आप पत्रकारिता के उच्च मानदंडों पर खड़े उतरे हैं. लेकिन इसके उलट अगर आप खुद किसी अपराध को प्रायोजित करें तब ज़ाहिर है किसी के हाथ में खेल रहे होते हैं आप. अगर आपने किसी ऐसे मामले में लुभाया किसी को जिससे उसका दूर-दूर तक नाता नहीं हो और जब वो आपके द्वारा झूठ बोल-बोल कर थमाए गए नोटों को स्वीकार कर लिया तो उसे फिल्माकर अगर आपने ये समझा कि सच में आपने कोई कीर्तिमान स्थापित कर लिया है तो इसका नैसर्गिक दंड आपको आज न कल मिलना ही है. भारतीय वांग्मय तो इसी बात की गवाही देता है कि अगर आपने किसी को अपराध करने को उकसाया-लुभाया तो पहले आप दंड के भागी बनेंगे, फिसल ‘जाने’ वालों पर बाद में सोचा जाएगा. रामायण का उद्धरण याद कीजिये. मारीच नाम का राक्षस सोने का मृग बन कर सीता को लालच देता है. जबकि उस समय भी यह सामान्य मान्यता थी कि सोने का हिरन हो ही नहीं सकता. लोभ में आ जाती हैं सीता और राम जाते हैं उसका शिकार करने. आपने गौर किया होगा कि सीता को डगमगा जाने की सज़ा भले बाद में भोगनी पड़ी हो लेकिन मारा सबसे पहले ‘मारीच’ ही जाता है. बंगारू प्रकरण में मारीच नाम के राक्षस की भूमिका में यही तरुण तेजपाल थे. यह तो हुई धन की बात. लोग मोटे तौर पर दो ही चीज़ों के लिए भ्रष्ट होते हैं. एक धन और दूसरा ‘काम’ के लिए. उसका भी एक उदाहरण है कि जब महादेव का ताप भंग करने कामदेव पहुचा तो क्षण भर के लिए स्त्री पर मोहित हो जाने का दंड भले ही महादेव को तपस्या भंग हो जाने के रूप में भुगतना पड़ा हो आगे लेकिन जल कर भस्म तो सबसे पहले कामदेव ही हुआ था. नकली रक्षा सौदे में वेश्याओं तक की मदद लेकर तरुण तेजपाल कामदेव भी हो गए थे. यानी अगर उन प्रसंगों की कसौटी पर बंगारू स्टिंग को कसें तो मारीच और कामदेव का मिला-जुला रूप होने के बावजूद तरुण को दंड के बदले ढेर सारे पुरस्कार ही मिले लेकिन लक्ष्मण-रेखा बिना लांघे भी बंगारू बियाबान में चले गए.
आप सबसे पहले बंगारू स्टिंग का समय याद कीजिये. उस समय केन्द्र में राजग का शासन था. लक्ष्मण के पास तो क्या खुद भाजपा के पास भी रक्षा मंत्रालय नहीं था. जिस रक्षा मंत्रालय को हथियार आदि खरीदना होता है उसके मंत्री भारतीय राजनीति के चुनिंदे ईमानदार चेहरे में से एक जार्ज फर्नांडिस के पास था. आप अन्य चीज़ों के लिए भले फर्नांडिस की भूमिका के बारे में चर्चा कर सकते हैं लेकिन कम से कम आर्थिक भ्रष्टाचार का आरोप उन पर कभी कोई तटस्थ व्यक्ति नहीं लगा सकता. (हालांकि उनके कार्यकाल में ही कथित ‘ताबूत घोटाला’ भी सामने लाया गया था लेकिन उसमें वे बेदाग़ निकले थे. वह कथित घोटाले का विषय महज़ इतना था कि कारगिल युद्ध में शहीद हुए जवानों के शव लगातार आ रहे थे. उसके लिए ताबूत कम पड़ रहे थे तो बिना टेंडर के अपेक्षाकृत महंगे दरों पर ताबूत खरीद लिया गया था. ज़ाहिर है आपके पिता या पुत्र की लाश आंगन में रखा हो तो आप कफ़न के कपड़े के लिए दस दूकान में जाकर मोल-तोल नहीं करते.) तो ऐसे में आप एक दलित और तुलनात्मक रूप से कम शातिर नेता के पास एक नकली कंपनी बना कर जाते हों. उसमें नकली कंपनियों के नकली दलाल शामिल हों. सौदे नकली हों और तब आप पार्टी फंड के नाम पर एक लाख रुपया उस आदमी को पकड़ा दें जिसने अभी तक ढंग से चीज़ों को समझा भी नहीं हो, और उसके बाद अपनी इस हरकत को छिपे कैमरे में कैद कर आप तहलका मचा दें और इसे सदी का सबसे बड़ा ‘वाटरगेट’ साबित कर दें, मूर्ख ही होंगे वो लोग जो इसे साहसिक पत्रकारिता कहें.
इसके अलावा इस मामले में ये भी उल्लेखनीय बात है कि कुछ दिन पहले ही अटल जी द्वारा परमाणु परीक्षण के बाद दुनिया ने भारत पर आर्थिक प्रतिबन्ध लगाया हुआ था. ज़ाहिर है हथियार की खरीदी का कोई सौदा उस समय संभव ही नहीं था. लेकिन आपने एक इतनी बड़ी साजिश को अंजाम देने को भी ‘पत्रकारिता’ कहना मुनासिब समझा लेकिन बिना किसी अपराध के, बिना किसी सौदे के, कैग के शब्दों में कहूं तो बिना राजकोष को कोई नुक्सान पहुचाए भी भाजपा सदा के लिए भ्रष्टाचारी दल बन गयी जबकि कांग्रेस कुछ समय पहले के ही असली बोफोर्स सौदे में असली कमीशन खाने के बाद भी कभी आपके स्टिंग के निशाने पर नहीं आया. हाल ही में एक किताब में यह खुलासा हुआ है कि राजीव गांधी ने संस्थागत रूप से यह तय किया था कि रक्षा सौदे में दलाली का पैसा सीधे कांग्रेस के फंड में ट्रांसफर किया जाएगा और इसे पैसे से दल का काम काज चलाया जाएगा. यूपीए के पहले कार्यकाल की समाप्ति तक सोनिया गांधी ने सीबीआई पर दबाव डाल कर इसी सौदे का क्वात्रोकी से जब्त 62 करोड रुपया भी डी-फ्रीज़ कराया तब भी आपको किसी स्टिंग की ज़रूरत नहीं महसूस महसूस हुई. वीपी सिंह को उस समय सेंट किट्स नामक द्वीप में एक नकली खाता खोल कर बदनाम किया गया उस पर भी शायद ही आपने ध्यान दिया होगा. लेकिन एक नकली रक्षा सौदा भारत के सभी घोटालों पर भारी पड़ता रहा. और उसको अंजाम देकर तरुण तेजपाल सबसे करेजियस पत्रकार बने रहे. कभी सांसदों के हाथ में पांच हजार की रकम थमा कर दर्जनों लोगों का कैरियर चौपट कर दिया गया लेकिन असली सौदे में प्रमाण के साथ झामुमो सांसदों को कांग्रेस द्वारा करोड़ों की रकम देकर खरीदने का मामला सामने आया था, पैसे भी बैंक के संसद की शाखा में ही जमा ही होना पाया गया था. तब के प्रधानमंत्री को सज़ा भी निचली अदालत द्वारा दिया गया था लेकिन बाद में भी कभी उन मामलों की तफ्शीश करने की जरूरत आपको इसलिए नहीं हुई क्यूंकि वे सारे कांग्रेस के खिलाफ के मामले थे.
उसके बाद तो खैर यमुना लगातार गंदी होती गयी. कभी राडिया टेप आया जिसमें एक कोर्पोरेट दलाल कैबिनेट का पोर्टफोलियों तक तय करते हुए पाई गई थी. टू जी, कोयला, कॉमनवेल्थ, आदर्श, रेल, से लेकर क्या-क्या नहीं हुआ. सारे आरोप लगभग सही पाए गए. कोयला घोटाले की फाइल तक चोरी हुई. सुप्रीम कोर्ट ने केन्द्र को दो टूक विश्वासघाती कहा. खुद प्रधानमंत्री के सचिव (कोयला) रहे व्यक्ति ने पीएम को दोषी माना लेकिन कांग्रेस की साझीदारी में पत्रिका चलाते हुए, पोंटी चड्ढा के साथ सेक्स क्लब बनाते हुए, खनिज माफियाओं के होटल में कथित थिंक फेस्ट चलाते हुए, उसकी खबरों को दबाते हुए भी आपको कभी इतने बड़े-बड़े मामलों में पड़ने की कभी कोई ज़रूरत महसूस नहीं हुई. ज़माने बाद आपके सहोदर अनिरुद्ध बहल की नींद खुली भी तो ऐसे ही एक नया प्रायोजित स्टिंग कर ऐसे मामले को सामने लाया गया जिसमें कांग्रेस के विरोधी भाजपा और ‘आप’ को बदनाम किया जा सके कि वो करोड़ों खर्च कर आईटी के माध्यम से कांग्रेस की छवि खराब करती है. हालांकि इस मामले में भी आप सुविधाजंक ढंग से राजस्थान के सीएम का साबित हुआ स्कैंडल भूल गए जिसमें तुर्की से लाखों लाईक खरीदे गए थे.
तो तहलका में कार्यरत पत्रकार बंधुओं से यही कहना चाहूंगा कि हज़ारों ऐसे तर्क हैं जिसकी कसौटी पर आपको तहलका को कसने की ज़रूरत है. निश्चित ही आप सभी अपने पद पर बने रहे लेकिन खुद के बारे में कोई सुपीरियरिटी कॉम्प्लेक्स मत पालें. अगर तहलका को ढेर सारे पुरस्कार भी मिल गए हैं तो इसे भी उसी नज़रिए से देखें जैसे देशद्रोह के अपराध में हाई कोर्ट तक से सजायाफ्ता विनायक सेन को कई पुरस्कार मिल जाते हैं और साथ ही कांग्रेस जिसे योजना आयोग जैसी संवैधानिक संस्थाओं में मनोनीत भी कर देती है. या जैसे कि सैकड़ों सरोकारी और प्रतिभावान साहित्यकारों के मौजूद रहते एक उपन्यास लिख कर अरुंधती राय को बुकर मिल जाता है. मित्रों, आपलोग बिलकुल भी दोषी नहीं हैं लेकिन कोई महापुरुष
भी नहीं है न ही आपकी पत्रिका कोई माधवराव सप्रे या महात्मा गांधी के समय की पत्रकारिता है. बस सब इमानदारी से अपनी नौकरी बचाए रहिये और वैसे ही आनंदित होइए जैसे अन्य क्षेत्रों के प्रोफेशनल अपना काम करके मस्ती करते हैं. शुभ कामना.

लेखक पंकज झा पत्रकार और बीजेपी नेता है. वर्तमान में वे भाजपा के छत्तीसगढ़ प्रदेश के मुखपत्र दीपकमल पत्रिका के संपादक के रूप में कार्यरत हैं. पंकज से jay7feb@gmail.com के जरिए संपर्क किया जा सकता है.
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