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दर्जन भर से अधिक पुस्तकों का विमोचन हुआ, बीस के करीब साहित्यकारों को पुरस्कृत किया गया

अपने देश में अभी 480 आदिवासी भाषाएं बोली जाती हैं. इनमें से हालांकि बहुत कम ऐसी भाषाएं होंगी जिनका अपना साहित्य, अपना व्याकरण और अपनी लिपि होगी. मगर इनमें से कुछ भाषाएं ऐसी जरूर हैं जिनको बोलने वालों की संख्या लाखों में है जैसे संताली, मुंडारी, बैगानी, कुड़कु, गोंडी. (यहां उन भाषाओं और समुदायों की चर्चा नहीं की जा रही है जो उत्तरपूर्व के आदिवासी इस्तेमाल करते हैं.)

अपने देश में अभी 480 आदिवासी भाषाएं बोली जाती हैं. इनमें से हालांकि बहुत कम ऐसी भाषाएं होंगी जिनका अपना साहित्य, अपना व्याकरण और अपनी लिपि होगी. मगर इनमें से कुछ भाषाएं ऐसी जरूर हैं जिनको बोलने वालों की संख्या लाखों में है जैसे संताली, मुंडारी, बैगानी, कुड़कु, गोंडी. (यहां उन भाषाओं और समुदायों की चर्चा नहीं की जा रही है जो उत्तरपूर्व के आदिवासी इस्तेमाल करते हैं.)

मगर इन 480 भाषाओं के साथ एक सबसे बड़ी त्रसदी यह है कि इनके लिए किसी सरकार ने किसी भाषा अकादमी का गठन नहीं किया है, सामूहिक तौर पर आदिवासी भाषा-साहित्य परिषद भी नहीं. यह सब उस दौर में हो रहा है जब मध्य प्रदेश जैसे आदिवासी बहुल राज्य में भोजपुरी और पंजाबी की साहित्य अकादमियां गठित हो जाती हैं और झारखंड में द्वितीय राजभाषा का बांग्ला और उर्दू को दिया जाता है. इसके बावजूद इनमें से कई भाषाओं में साहित्यकार साहित्य रच रहे हैं, पत्रिकाएं और किताबें प्रकाशित हो रही हैं, ब्लॉग लिखे जा रहे हैं और तो और समारोह आयोजित कर पुरस्कार भी दिये जा रहे हैं.

पिछले दिनों रांची में ऐसा ही एक समारोह अखड़ा महासम्मेलन के नाम से आयोजित हुआ. दो दिन तक चले इस सम्मेलन में झारखंड, ओड़िशा, बंगाल और दूर-दराज के राज्यों में रहने वाले आदिवासी लेखक-साहित्यकार जुटे और उन्होंने आदिवासी भाषाओं की अस्मिता पर चर्चा करते हुए उनके भविष्य की रूप रेखा खींची. यह आयोजन प्यारा केरकेट्टा फाउंडेशन की ओर से आयोजित किया गया था. प्यारा केरकेट्टा फाउंडेशन हर तीसरे साल रांची में अखड़ा महासम्मेलन का आयोजन करता है और इन सम्मेलनों में वह आदिवासी भाषाओं के संरक्षण और संवर्धन पर विचार-विमर्श करता है. आदिवासियों के लिए अलग राज्य के नाम पर बने झारखंड में यही एक मात्र संगठन है जहां आदिवासी भाषाओं के लिए कुछ सार्थक काम होते हैं.

फाउंडेशन की ओर से जोहार सहिया और अखड़ा के नाम से दो पत्रिकाओं का प्रकाशन होता है, जिसमें राज्य सभी आदिवासी और मूल निवासी भाषाओं की रचनाओं का प्रकाशन किया जाता है. इसके अलावा फाउंडेशन इन भाषाओं के रचनाकारों के किताबों का भी प्रकाशन करता है. इस लिहाज से यह एक छोटे-मोटे भाषा अकादमी की तरह काम करता है और संभवत: यह देश की एक मात्र ऐसी संस्था है जो आदिवासी भाषाओं के साहित्य को सामने लाने का महती काम कर रही है. इस काम को मूल रूप से वंदना टेटे और अश्विनी पंकज संभालते हैं. इसका आर्थिक पक्ष आदिवासी समाज से मिले चंदे और प्यारा केरकेट्टा फाउंडेशन में संचित छोटी से राशि से अब तक चल रहा है.

इस साल हुए महासम्मेलन में मुख्य अतिथि के रूप में हिंदी के जानेमाने कथाकार उदय प्रकाश आमंत्रित थे, जो अंतिम समय में किसी वजह से नहीं आ पाये और अपने न आने के कारणों का उल्लेख उन्होंने फेसबुक पर विस्तार से किया है. बहरहाल दलित एवं महिला विषय पर नियमित लेखन करने वाली अनीता भारती और जेएनयू के प्राध्यापक गंगा सहाय मीणा ने इस सम्मेलन में गोतिया (अतिथियों) की भूमिकाएं अदा कीं. दूसरे दिन इस भूमिका में इंडिया टुडे के संपादक दिलीप मंडल नजर आये, जिन्होंने न सिर्फ साहित्यकारों की रैली में भाग लिया बल्कि समापन वक्तव्य भी पेश किया.

सम्मेलन में दर्जन भर से अधिक पुस्तकों का विमोचन हुआ. बीस के करीब साहित्यकारों को पुरस्कृत किया गया. पुरस्कृत साहित्यकार हैं- असुर साहित्य के लिए मेलन असुर और संपति असुर, हो भाषा से कमल लोचन कोड़ाह और दयमंति सिंकु, खड़िया से विश्रम टेटे और प्रतिमा कुल्लु, खोरठा से डॉ नागेश्वर महतो और पंचम महतो, कुरमाली से भगवान दास महतो और सुनील महतो, कुडुख से अघनु उरांव और फ्रांस्सिका कुजूर, मुंडारी से मंगल सिंह मुंड़ा और तनुजा मुंड़ा, नागपुरी से डॉ बीपी केशरी और डॉ कुमारी वासंती, पंचपरगनिया से प्रो परमानंद महतो और विपिन बिहार मुखी, संताली भाषा से चुंड़ा सोरेन ‘‘सिपाही’’ और सुन्दर हेम्ब्रम. हिंदी की कवियत्री उज्‍जवला ज्योति तिग्गा को पहले रामदयाल मुंडा पुरस्कार से सम्मानित किया गया.

पुष्यमित्र की रिपोर्ट. साभार- 'हजारों ख्वाहिशें ऐसी' ब्लाग.

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