वैश्वीककरण के इस दौर में जनपक्षीय पत्रकारिता गुम होती जा रही है। बाजारवाद ने राष्ट्रीय मीडिया के स्वरूप को बदल डाला है। आरोपों में घिरा, यह संपूर्ण भारतीय समाज का माध्यम नहीं बन पाया है। तथाकथित एक वर्ग तक सिमट कर यह रह गया है। सामाजिक पहलुओं को लगातार दरकिनार करते हुए, राष्ट्रीय मीडिया के उपर सवर्ण मानसिकता का होने का आरोप पहले ही लग चुका है। आज जो सबसे बड़ा सवाल है, वह है, मीडिया का जनपक्षीय नहीं होना?
एक दौर था जब जनपक्षीय मसलों को बखूबी जमीनी स्तर से उठाया जाता था। रविवार, दिनमान, जनमत जैसे माध्यमों की जनपक्षीय पत्रकारिता आज नहीं के बराबर दिखती है? समाज के अंदर सुदूर इलाकों में घटने वाली घटनाएं, धीरे-धीरे मीडिया के पटल से गायब होती जा रही है। समाज के दबे-कुचले लोगों के उपर दबंगों के जुल्म सितम की खबरें, बस ऐसे आती हैं जैसे हवा का एक झोंका हो! जिसका असर मात्र क्षणिक होता है। साठ-सत्तर के दौर में ऐसा नहीं था सामाजिक गैर बराबरी को जिस तेवर के साथ उठाया जाता था उसका असर देर तक राजनीतिक, सामाजिक और सत्ता के गलियारे में गूंजता रहता था। ऐसा नहीं कि आज दलित-पिछड़ों या फिर समाज के दबे- कुचले लोगों पर सवर्णों और दबंगों का आत्यचार थम गया हो? या फिर जनपक्षीय मुद्दे नहीं रहे? बल्कि, मीडिया की नजर अब उन मुद्दों पर नहीं के बराबर जाती है।
देखा जा सकता है कि बढ़ते खबरिया चैनलों के फोकस में सामाजिक-जनपक्षीय मुद्दों की जगह तथाकथित उच्चवर्ग रहता है। कैमरे का फोकस मैले-कुचले फेकनी पर नहीं होती बल्कि हाई प्रोफाइल की स्वीटी पर केंद्रित होती है। बात साफ है जो बिके उसे बेचो। वरिष्ठ पत्रकार राजकिशोर कहते है, ’’मीडिया का मूल चरित्र उसमें काम करने वाले पत्रकार नहीं, बल्कि उसके मालिक और विज्ञापन तथा सरकुलेशन प्रमुख तय करते हैं। वे ही तय करते हैं कि क्या बिकता है और इसलिए क्या बेचा जाना चाहिए। लेकिन यह अधूरा सत्य है।''
वहीं मीडिया के हालात पर भारतीय प्रेस परिषद के चेयरमैन एवं न्यायमूर्ति मार्कण्डेय काटजू कहते हैं, ’’इसमें कोई संदेह नहीं कि मनोरंजन और सूचना पहुंचाने का काम मीडिया को करना ही चाहिए। परंतु, जब मीडिया 90 फीसदी मनोरंजन करे और महज 10 फीसदी हिस्से में वास्तविक और सामाजिक-आर्थिक मसले को उठाए, तो साफ है कि उसने अपने कर्तव्यों के अनुपात के मायने भुला दिए हैं। अब भी हमारे देश की 80 फीसदी आबादी गुरबत की दिल दहला देने वाली जिंदगी जी रही है। बेरोजगारी, महंगाई, स्वास्थ्य सेवा और शिक्षा से जुड़ी अनगिनत समस्याएं उनके साथ हैं। ऊपर से, सिर छिपाने के लिए लोगों के पास छत तक नहीं है। अब तक ‘ऑनर किलिंग’ व दहेज हत्या जैसी सामाजिक कुरीतियों का उन्मूलन मुमकिन नहीं हो सका है। तब भी मीडिया कवरेज का 90 फीसदी हिस्सा फिल्मी सितारों, फैशन की नुमाइश, गीत-संगीत, रियलिटी शो, क्रिकेट इत्यादि से अटा-पटा रहता है।’’
सच है कि जनमत के निर्माण में पत्रकारिता की भूमिका बहुत ही महत्वपूर्ण होती है। इसके बावजूद मीडिया जनपक्षी मुद्दों को लगातार नहीं उठाती। जहां तक दलित मुद्दों के पक्ष में जनमत निर्माण की बात है, तो मीडिया इसे छूने से कतराती है। इसका कारण यह भी हो सकता है कि मीडिया संस्थानों से दलितों का कम जुड़ाव का होना। हालांकि वरिष्ठ पत्रकार राजकिशोर ने चिंता व्यक्त करते हुये अपने आलेख, ’’मीडिया और सामाजिक गैर बराबरी’’ में लिखा है कि, ’’जब अल्पसंख्यक, दलित, पिछड़ी जातियां और इन वर्गों की महिलाएं बाढ़ के पानी की तरह मीडिया के हॉलों और केबिनों में प्रवेश करेंगी। सड़क पर जाकर रिपोर्टिंग करेगी तब मीडिया के सरोकारों में जरूर बदलाव आयेगा।'' राजकिषोर जी की यह बात वाजिब है कि मीडिया में जब घुसपैठ होगी तब जनपक्षीय, दलित पक्षीय सवालों को अनदेखी करना संभव नहीं हो पायेगा।
देश की एक चौथाई जनसंख्या दलितों की है और सबसे ज्यादा उपेक्षित और पीड़ित शोषित वर्ग है। आजादी के कई वर्षों बाद भी इनकी स्थिति में कोई विशेष सुधार नहीं हुआ है। अत्याचार की घटनाएं बढ़ ही रही है। कहने के लिये कानूनी तौर पर कई कानून हैं। फिर भी घटनाएं घट रही हैं और वे घटनाएं मीडिया में उचित स्थान नहीं पा पाती। क्योंकि मीडिया, पूंजीपतियों की गोद में खेल रही है। गणेश शंकर विद्यार्थी ने अखबार ‘प्रताप’ में लिखा था कि, ’’पत्रकारिता को अमीरों की सलाहकार और गरीबों की मददगार होनी चाहिये’’। लेकिन हालात बदल चुके हैं आज के पत्रकारों ने इस मूलमंत्र को व्यवसायिकता के पैरो तले रौंद दिया है।
हालांकि, ऐसा नहीं था कि मीडिया शुरू से जनपक्षीय मुद्दों के खिलाफ रही हो। साठ के दशक में जब दलितों, अछूतों और आदिवासियों, दबे-कुचलों की चर्चाएं मीडिया में बखूबी हुआ करती थी। जनपक्षीय मुद्दों को उठाने वाले पत्रकारों को वामपंथी या समाजवादी के नजरिये से देखा जाता था। लेकिन, सत्तर के दशक में गरीब, महंगाई, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों ने राष्ट्रीय मीडिया को बदलाव में धकेलना शुरू कर दिया। भारतीय मीडिया हिंदी मीडिया की जगह हिन्दू मीडिया में तब्दील हो गयी। महंगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, अपराध और राजनीतिक समस्याओं के सामने दलित-आदिवासी-पिछड़ों के मुद्दो दबते चले गये। गाहे-बगाहे बाबरी मस्जिद प्रकरण के दौरान हिन्दू मीडिया का एक खास रूप देखने को मिला। भारतीय मीडिया अपने लोकतांत्रिक मूल्यों और धर्मनिरपेक्ष स्वरूप को कब छोड़ भौतिकवाद, साम्प्रदायवाद या यों कहें हिन्दूवादी मीडिया में बदली, इसका अंदाजा भी नहीं लग पाया।
हालांकि राष्ट्रीय मीडिया के अंदर वैसे कई पत्र-पत्रिकाएं छोटे और बड़े स्तर पर साम्प्रदायिक ताकतों और भौतिकवाद के खिलाफ कलम उठाते रहे। यही वजह है कि गुजरात दंगे का चित्रण और सही तस्वीर भी मीडिया के सामने आयी थी। ऐसा नहीं कि साठ और सत्तर के दशक में जो घटनाएं दलितों या समाज के कमजोर वर्गों के बीच घटती थी वे आज पूरी तरह बंद हो गयी हों। उस वक्त की जनपक्षीय पत्रकार इन मुद्दों को प्रमुखता से छापते थे जबकि आज की जनपक्षीय पत्रकार ढूंढने पर भी नहीं मिल पाते। भले ही यह उनकी व्यवसायिक मजबूरियां रही हो।
लेखक संजय कुमार बिहार के वरिष्ठ पत्रकार हैं तथा पटना में इलेक्ट्रानिक मीडिया से जुड़े हुए हैं.