लखनऊ। मुल्क के लगातार तरक्की के दावों के बीच ये कड़वी हकीकत है कि हिंदुस्तान में 2011 की जनगणना के अनुसार, 36 फीसदी घरों के आसपास पानी का एक स्रोत नहीं है। ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाएं पानी लेने के लिए कम से कम 500 मीटर की दूरी तक पैदल जाने के लिए मजबूर हैं। यह स्थिति उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड या राजस्थान, बिहार, झारखंड और उड़ीसा जैसे अन्य राज्यों में सूखा या स्थाई जल संकट वाले क्षेत्रों में और भी चुनौतीपूर्ण है।
जल संकट उपलब्ध शौचालयों के उपयोग पर विपरीत प्रभाव डालता है और यह स्थिति को और बिगाड़ता है। दुखद यह भी है कि सबसे तेजी से बढ़ती दुनिया की तीसरी अर्थव्यवस्था में बीते दस वर्ष की अवधि में व्यक्तिगत घरेलू स्तर पर बनाए गए लगभग 3.5 करोड़ शौचालय गायब हैं। इन शौचालयों को देश के प्रमुख कार्यक्रम ‘संपूर्ण स्वच्छता अभियान’ के तहत बनाया गया था, जिसे अधिक प्रोत्साहन के साथ मई 2012 में निर्मल भारत अभियान का नाम दिया गया है। ‘गायब’ शौचालयों की सबसे ज्यादा संख्या भारत के कुछ गरीब राज्यों में है जैसे मध्य प्रदेश में 87 प्रतिशत और उत्तर प्रदेश में 78 प्रतिशत। हालांकि अब इन आंकड़ों पर मंत्रालय द्वारा चुनौती दी जा रही है लेकिन बेस लाइन सर्वे पहले ही संकेत दे रहे हैं कि बीमारू राज्यों में परिदृश्य अच्छा नहीं है। मंगल अभियान कि सफलताओं के बीच भारतीय बच्चों को स्वच्छता की कमी के कारण होने वाली महत्वपूर्ण समयाओं जैसे अतिसारीय मौत, कुपोषण और अविकास से बचने में हिंदुस्तान असफल हो रहा है.
जल और स्वच्छता पर काम करने वाली संस्था वाटर एड के संतोष दिवेदी के अनुसार जल एवं स्वच्छता के लिए संयुक्त निगरानी कार्यक्रम (जेएमपी) रिपोर्ट 2013 कहती है कि भारत 59 फीसदी यानी 62 करोड़ 60 लाख लोग अभी भी खुले में शौच जाते हैं। इस तरह भारत सहस्राब्दि विकास लक्ष्य को प्राप्त करने में 11 सालों से पिछड़ रहा है। भारत सरकार ने 2015 तक खुले में शौच को 50 फीसदी तक कम करने का संकल्प लिया था। अगर स्वच्छता की समस्या को तत्काल लक्षित नहीं किया गया तो भारत कुपोषण और बालमृत्यु को कम करने के अपने लक्ष्य को पाने में पीछे रह जाएगा क्योंकि अस्वच्छता कुपोषण और बाल मृत्युदर दोनों का कारण है।
सरकारी जनगणना आकड़े बताते हैं कि भारत में 60 करोड़ की आबादी से ऊपर के लोग खुले में शौच करने के लिये मजबूर हैं और देश के लगभग 68 प्रतिशत ग्रमीण क्षेत्र के लोगों के पास शौचालय व्यवस्था नहीं है। ग्रामीण क्षेत्रों में केवल 24‐09 प्रतिशत अनुसूचित जाति और 17‐64 प्रतिशत अनुसूचित जनजाति के लोगों के पास प्रसाधन व्यवस्था है जो हकीकत में और भी कम हो सकती है। 1986 से हमारी सरकार गरीबों के लिए शौचालय बनवाने के नाम पर हजारों करोड़ रुपये खर्च कर चुकी है और 12वीं पंचवर्षीय योजना में 37,159 करोड़ रुपये का बजट बनाया गया है। सरकार ने प्रति शौचालय 9100/-रुपये की सब्सिडी बढ़ाई है और पात्रता की शर्तों को भी विस्तृत किया है ताकि ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को लाभान्वित किया जा सके। पर विडम्बना यह है कि ज़मीनी स्तर पर होने वाली प्रगति की गति बहुत धीमी है।
2011 की जनगणना के आंकड़ों ने खुलासा किया कि भारत सरकार के पेय जल और सफाई मंत्रालय द्वारा दिए गए आंकड़ों की अपेक्षा घरों में शौचालय की सुविधा 22‐39 प्रतिशत कम है। लगभग 3,75,76,324 शौचालय गायब हैं। अभी भी ऐसी 26 लाख सूखी लैट्रिन हैं जहां एक मानव को दूसरे मानव का मल हाथों से उठाना पडता है। बड़े-बडे दावों व वायदों के बावजूद हम पूरी तरीके से इस अमानवीय काम व परम्परा को पूरी तरह से हटा या खत्म नहीं कर पाए हैं।
सामाजिक कार्यकर्ता संदीप खरे इस मुद्दे पर कई सवाल उठाते है. संदीप के अनुसार भारत सरकार ने भारत को 2022 तक खुले में शौच मुक्त बनाने के लिये जो वादा किया था, वो कहाँ तक पहुँचा है? क्या सरकारें यह सुनिश्चित कर सकती हैं कि वह पूरी पारदर्शिता और उत्तरदायित्व के साथ लोगों का पैसा प्रसाधन व्यवस्था को बढ़ाने में और सफाई सुविधा प्रदान करने में खर्च करेगी? क्या सरकारें यह पक्का कर सकती है कि शौचालय पर होने वाली प्रगति समान और समावेषित करने वाली है? अगर हम पिछले अनुभवों को देखें तो ऐसी साफ सफाई योजना की त्वरित आवश्यकता है जो गरीब, वृद्ध, विकलांग एवं गर्भवती महिलाओं तथा दूर दराज़ के इलाकों में रहने वाले लोगों तक इसके लाभ पहुंचा सके।
अब स्वैच्छिक संगठनो ने इस मुद्दे को आगे लाने का संकल्प लिया है. वाटर एड, विज्ञान फाउंडेशन, फ्रेश वाटर, एक्शन नेटवर्क इस मसले पर एक क्राइसिस टाक का आयोजन कर रहे हैं जहां सरकारी प्रतिनिधियों से बातों का जवाब मांगा जाएगा।
लेखक उत्कर्ष सिन्हा अवधनामा, लखनऊ के प्रधान संपादक हैं.