Sanjay Sinha : पता नहीं क्यों, लेकिन आज सुबह से ही मन कर रहा था कि कोई मेरी कहानी सुनाता। मैंने तो न जाने कितनी कहानियां लिखीं, कितनी कहानियां लिखूंगा । लेकिन क्या कहीं कोई मेरी कहानी भी लिख रहा है? मैं जानता हूं, आप सब मेरी कहानियां लिख रहे हैं। बेशक आप उन्हें कागज़ पर नहीं उकेर रहे लेकिन आपने अपने दिल में मेरी ढेरों कहानियां उकेरी हैं, जब कभी आपसे मिलूंगा तो आप सब मुझे मेरी कहानी ज़रूर सुनाएंगे। आख़िर ज़िंदगी है भी क्या, चंद यादें और कुछ कहानियां। आइए आज आपको मुरुगेसन की कहानी सुनाता हूं। मुरुगेसन की चर्चा मैंने इस बार जबलपुर में Amit Chaturvedi से की थी, और उन्होंने कल मुझसे अनुरोध किया कि मैं उसकी कहानी आप सबको सुना दूं।
बात 2001 की है। अप्रैल का महीना था, और उस सर्द गर्मी में मैं अपनी पत्नी और छोटे से बेटे के साथ पहुंचा था अमेरिका के डेनवर शहर। शहर में उस दिन भयंकर बर्फ गिर रही थी, और उस अनजान से शहर में समझ में नहीं आ रहा था कि कहां से शुरुआत की जाए।
लोग अजनबी और शहर अजनबी। किसी तरह ठंड में कांपते हुए हम पास के डिपार्टमेंटल स्टोर तक गए ताकि खाने का कुछ जुगाड़ हो सके, और वहां से खाने-पीने का कुछ सामान लेकर अपने मोटल के लिए निकले। मोटल पहुंचने से पहले मुझे रास्ते में एक हिंदुस्तानी लड़का दिखा। मैं लपक कर उसके पास पहुंचा और अपना परिचय दिया। उसने मेरी ओर अनजान और उदास भाव से देखा और जाहिर किया कि उसे हिंदी समझ में नहीं आती, वो तमिलनाडु का है। और बातचीत अंग्रेजी में होने लगी।
उसने अपना परिचय दिया, मैं मुरुगेसन।
मैंने मुरुगेसन से कुछ देर वहीं बर्फ के बीच खड़े होकर बात की, और फिर उसे अपने मोटल में निमंत्रित किया। उसने बताया कि वो भी उसी मोटल में ठहरा है। और वो हमारे कमरे तक चला आया। मेरी पत्नी हैरान हो रही थी कि अभी अपने खाने का जुगाड़ नहीं है और मैं किसे पकड़ लाया हूं भोजन पर?
बातचीत होती रही, किसी तरह मेरी पत्नी ने कुछ पकाया और हमने खाया।
मुरुगेसन अपने कमरे में चला गया। अगले दिन मुझे मुरुगेसन फिर मिला, फिर उसके अगले दिन भी, और उसके अगले दिन भी। और मेरा दोस्त बन गया।
एक दिन मुरुगेसन मुझे एक पुस्तक बतौर उपहार दे गया।
पहला अध्याय पढ़ा –
समदंर में पत्थर से सट कर बहुत से कीड़े रहा करते थे। उन कीड़ों का जन्म वहीं होता, वो वहीं मर जाते। वो कभी पत्थर नहीं छोड़ते, इस डर से नहीं छोड़ते कि समंदर की तेज लहरें उन्हें डुबो देंगी। एक दिन एक छोटे से कीड़े ने अपने बुजुर्ग से पूछा कि हम इस पत्थर को छोड़ते क्यों नहीं? हम पानी के इस संसार की सैर क्यों नहीं करते?
बुजुर्ग कीड़े ने उसे समझाया कि ऐसी गलती नहीं करना। हमारा जन्म हुआ है, इन पत्थरों के साथ चिपक कर जीने के लिए। अगर तुम इसे छोड़ दोगे तो डूब कर मर जाओगे। लेकिन वो छोटा कीड़ा नहीं माना। उसने कहा मुझे तो ये पत्थर छोड़ना ही है। और उसने पत्थर छोड़ दिया।
कई दिनों बाद, यूं ही समंदर की सैर करता हुआ वो छोटा कीड़ा उसी पत्थर के करीब से गुजर रहा था कि वहां पत्थर से चिपके हुए हजारों कीड़े चिल्लाने लगे," अरे ये देखो, ये हमारी तरह का कीड़ा है जो पानी में तैर रहा है।"
उस छोटे से कीड़े ने कहा कि हां, मैं वही कीड़ा हूं जिसे तुमने कहा था कि पत्थर छोड़ोगे तो डूब कर मर जाओगे। लेकिन देखो मैं नहीं डूबा। तुम भी पत्थर छोड़ दो। आओ मेरे साथ इस विशाल संसार की सैर करो।
तब उस बुजुर्ग कीड़े ने चिल्ला कर कहा, नहीं-नहीं, तुम पैदा होते ही हमसे अलग थे। तुम जब पैदा हुए थे तब आसमान में सितारे चमक रहे थे। तुम आम कीड़ा नहीं थे, तुम खास कीड़ा थे…तुम मसीहा थे। तुम्हें कुछ नहीं हुआ, लेकिन अगर हमने इस पत्थर को छोड़ दिया तो हम सब मर जाएंगे। छोटे कीड़े ने बहुत समझाया, लेकिन वो नहीं माने।
छोटे कीड़े ने कहा कि मसीहा कोई होता नही, मसीहा हम बनाते हैं…जरुरत मसीहा बनाने की नहीं, पत्थर को छोड़ने के साहस की है।
खैर, मुरुगेसन वहां एक कंपनी में सॉफ्टवेयर इंजीनियर था। उसके साथ ढेरों और भारतीय वहां काम करते थे।
एक दिन मुरुगेसन मेरे पास आया और बताया कि उसने नौकरी छोड़ दी है, भारत वापस जा रहा है। उसने ये भी कहा कि उसके साथ काम करने वाले ढेरों भारतीय उसे समझा रहे हैं कि भारत में कुछ नहीं रखा है। यहां ज़िंदगी कितनी अच्छी है।
मैंने पूछा कि तुम करोगे क्या? मुरुगेसन ने कहा कि कुछ अपनी पसंद का करना है। यहां ऐसे जीवन काटने से कुछ नहीं होगा। और मुरुगेसन चला गया।
मैं खुश था कि वो अपनी पसंद का कुछ करेगा, फिर भी उसके बिना मैं उदास था।
मुरुगेसन ने अपना काम शुरु कर दिया। उसने चेन्नई में अपना ऑफिस खोला। मुझे फोन पर बताया कि अपना काम कर रहा है, लेकिन अभी बहुत छोटे स्तर पर है। एक दिन मैंने भी उससे कहा कि सब छोड़ो, चले आओ वापस अमेरिका। सचमुच भारत में संघर्ष की ज़िंदगी है।
पर मुरुगेसन नहीं माना।
धीरे-धीरे उसका काम चलने लगा। चेन्नई के बाद बैंगलोर, चंडीगढ़, गुड़गांव… कई जगह ऑफिस खोलने लगा। और एकदिन मुरुगेसन ने फोन पर बताया कि वो अमेरिका में अपना दफ्तर खोल रहा है।
मुरुगेसन फिर अमेरिका आया, उसने दफ्तर खोला। बहुत बड़ा दफ्तर।
अब ज्यादा क्या बताऊं? मुरुगेसन की कंपनी इस समय अमेरिका में माइक्रोसॉफ्ट और एप्पल जैसी कंपनियों के साथ मिल कर बहुत बड़ा कारोबार कर रही है। भारत, सिंगापुर, अमेरिका में उसके कई दफ्तर हैं। उसे भी शायद ही पता हो कि कितने हजार मिलियन डॉलर की उसकी कंपनी बन गई है। खैर, बात ये नहीं कि उसकी कंपनी में कितने हजार कर्मचारी काम करते हैं, और कितना टर्नओवर है। बात ये है कि पिछले दिनों मुरुगेसन अमेरिका से दिल्ली आया था, खास तौर पर मुझसे मिलने। वो बहुत खुश था। मन लायक काम कर रहा था। उसकी आंखों में अजीब सी चमक थी, बहुत सी खुशियां थीं।
साल भर पहले मैं भी अमेरिका गया था। अमेरिका के सियाटेल शहर में उसका दफ्तर देख कर हैरान था।
आज जब कभी मैं किसी से मुरुगेसन की चर्चा करता हूं, तो इस बात की चर्चा ज़रूर करता हूं कि जो पत्थर छोड़ने का साहस करते हैं, वही मसीहा बनते हैं। वर्ना उसके साथ अमेरिका में रह रहे ढेरों भारतीयों में क्या कमी थी? आज उनमें से बहुत सारे तो मुरुगेसन की कंपनी में ही काम करते हैं, और जब कभी मुरुगेसन उनके सामने पड़ जाता होगा तो कहते होंगे कि तुम अलग थे, बचपन से ही अलग। तुम जब पैदा हुए थे तब सितारा चमका था, तुम मसीहा हो…मसीहा।
Sanjay Sinha : कल मुरुगेसन की कहानी लिखते हुए सोचा नहीं था कि उससे हुई मुलाकात का जिक्र आपको इतना उत्साहित कर देगा। जाहिर है आज मुझे मुरुगेसन के माता-पिता की दिल्ली यात्रा के प्रसंग को लिखना चाहिए था, आज वो प्रासंगिक होता। लेकिन आंख देर से खुली, क्योंकि जाग कर भी जागने का मन नहीं था। सारी रात मुझे छोड़ गए अपने भाई को सपने में देखता रहा, उसके साथ बिताए तमाम पल यूं ही याद आते रहे। हर पल बिस्तर पर मेरे साथ उसके होने का अहसास होता रहा। और मैं इसी उधेड़-बुन में रहा कि जाग जाऊं या अपने अहसास को यूं ही जीता रहूं।
और यूं ही लेटे लेटे मुझे याद आया कि मेरे भाई ने मुझे एक कहानी सुनाई थी, राजा और शिल्पकार की। पहले कहानी सुनाता हूं फिर आगे की चर्चा करूंगा।
किसी राज्य में एक शिल्पकार हुआ करता था। बहुत बढ़िया शिल्पकार। उसी ने उस राज्य के राजमहल को बनाया था। उस शिल्पकार की तारीफ दूर-दूर तक हुआ करती थी, लेकिन शिल्पकार को लगता था कि राजा उससे बहुत स्नेह नहीं करता और ना ही उसे उसकी मेहनत का पूरा मेहनताना मिलता है। ऐसे में वो मन ही मन निराश रहने लगा और एक दिन उसने तय किया कि वो इस राज्य को छोड़ कर किसी और राजा के पास चला जाएगा।
उसने ऐसा ही किया। उसने राजा को बताया कि वो कहीं और जाना चाहता है। राजा ने उसे रोकने की समझाने की कोशिश की, लेकिन शिल्पकार नहीं माना। आखिर में राजा ने कहा कि ठीक है तुम चले जाओ, लेकिन जाने से पहले यहां एक छोटा सा महल और बना जाओ। शिल्पकार मान गया।
शिल्पकार ने काम शुरू कर दिया, लेकिन उसके मन में था कि अब यहां रहना ही नहीं, तो ज्यादा दिमाग क्या लगाना? उसने महल को जैसे-तैसे बे-मन से बना दिया, और राजा के पास पहुंच गया कि महाराज आपके कहे मुताबिक एक छोटा सा महल बना दिया है।
राजा बहुत खुश हुआ और उसने शिल्पकार से कहा कि मैं तुमसे बहुत स्नेह करता हूं। अब क्योंकि तुमने जाने का मन बना लिया था, इसलिए मैंने ये छोटा महल तुमसे बनवाया ताकि तुम्हें जाते हुए बतौर उपहार दे सकूं।
शिल्पकार को काटो तो खून नहीं। उसने तो चलते हुए यूं ही जैसे तैसे, बेमन से काम कर दिया था। मन ही मन सोच में पड़ गया कि काश उसने अपना आखिरी काम भी मन लगा कर किया होता। अगर उसे पता होता कि ये महल राजा उसके लिए बनवा रहा है तो इसमें पूरा मन और समय लगाया होता।
इतनी कहानी सुनाने के बाद मेरे भाई ने कहा था कि हमें अपना आखिरी काम भी दुरुस्त करना चाहिए, क्या पता वो हमारे ही गले पड़ जाए!
आज सोच रहा हूं तो बहुत से संदर्भ याद आ रहे हैं। कई बार अपने किए को हम जानबूझ कर ऐसा कर देते हैं जो नहीं करना चाहिए। और अक्सर उसे भुगतते भी खुद ही हैं।
आजतक न्यूज चैनल में कार्यरत पत्रकार संजय सिन्हा के फेसबुक वॉल से.