Connect with us

Hi, what are you looking for?

No. 1 Indian Media News PortalNo. 1 Indian Media News Portal

प्रिंट-टीवी...

नईदुनिया का पराभव (एक) : सिर्फ़ चापलूसों की फ़ौज डुबा सकती है?

एक समय हिंदी पत्रकारिता का स्कूल कहे जानेवाले अखबार नई दुनिया का पराभव, पूरे हिंदी भाषी समाज के लिए चिंता का विषय होना चाहिए. इसकी स्थितियों, कारकों व कारणों को हम सबको समझना चाहिए. पत्रकारिता, पत्रकारिता के वित्तपोषण और बाजारवाद के इस दौर की प्रतिस्पर्धा में मुनाफ़े के अर्थशास्त्र पर स्वस्थ बहस शुरू होनी चाहिए. किसी भी लोकतांत्रिक समाज के लिए इन सवालों से कतराना घातक ही साबित होता है. यह आलेख श्रृंखला इसी विमर्श को शुरू करने का प्रयास है.

एक समय हिंदी पत्रकारिता का स्कूल कहे जानेवाले अखबार नई दुनिया का पराभव, पूरे हिंदी भाषी समाज के लिए चिंता का विषय होना चाहिए. इसकी स्थितियों, कारकों व कारणों को हम सबको समझना चाहिए. पत्रकारिता, पत्रकारिता के वित्तपोषण और बाजारवाद के इस दौर की प्रतिस्पर्धा में मुनाफ़े के अर्थशास्त्र पर स्वस्थ बहस शुरू होनी चाहिए. किसी भी लोकतांत्रिक समाज के लिए इन सवालों से कतराना घातक ही साबित होता है. यह आलेख श्रृंखला इसी विमर्श को शुरू करने का प्रयास है.

65 साल पहले इंदौर से शुरू होने वाले अखबार, नई दुनिया के बिकने की खबर इन दिनों चर्चा में है. कुछेक पत्रकारों में (शेष अन्य को मतलब भी नहीं) चिंता और सरोकार है. एक मित्र ने वेबसाइट पर लिखा है, नई दुनिया केवल एक अखबार नहीं रहा है. बल्कि यह एक संस्कार की तरह पुष्पित और पल्लवित हुआ. हिंदी पत्रकारिता के इतिहास में नई दुनिया ने वह मुकाम पाया, जो देश के नंबर एक और नंबर दो अखबार कभी सपने में भी नहीं सोच सकते. इस अखबार ने देश को सर्वाधिक संपादक और योग्य पत्रकार दिये हैं.

यह बिलकुल सटीक आकलन व निष्कर्ष है. पर इसमें जोड़ा जाना चाहिए कि नई दुनिया सिर्फ़ अच्छे पत्रकारों को देने के लिए ही नहीं जाना जायेगा. सबसे प्रमुख और महत्वपूर्ण बात यह है कि नई दुनिया ने अपने दौर, काल या युग के जलते-सुलगते सवालों को जिस बेचैनी और शिद्दत से उठाया, वह इस अखबार की पहचान और साख है. इसने हिंदी पत्रकारिता को एक संस्कृति दी (जो आज की दुनिया के नंबर एक और नंबर दो बन जानेवाले हिंदी अखबार सपने में भी नहीं कर पायेंगे). बहुत पहले स्वर्गीय राजेंद्र माथुर ने (1983-84 के आसपास) राहुल बारपुते पर एक लेख लिखा था. उसमें उन्होंने मालवा की संस्कृति, पुणे के प्रभाव और गंगा किनारे की उत्तर प्रदेश-बिहार की भिन्न संस्कृति की चर्चा की थी. उनकी बातों का आशय था, अपने को हिंदी की मुख्यधारा माननेवाली पट्टी और उसके बौद्धिक, मालवा की संस्कृति और उसमें नई दुनिया का योगदान और राहुल बारपुते के व्यक्तित्व का आकलन नहीं कर पायेंगे.

यह सही है. एक शिष्टता, संस्कार और मर्यादा से राहुल बारपुते, राजेंद्र माथुर, अभय छजलानी जैसे लोगों ने नई दुनिया को शीर्ष पर पहुंचाया. क्या इतने बड़े अखबार को सिर्फ़ चापलूसों की फ़ौज डुबा सकती है? नहीं, साम्राज्यों या संस्थाओं के पतन में षड्यंत्रकारी या दरबारी चापलूसों की एक सीमा तक ही भूमिका रहती है. क्या सफ़लता से चल रहे बड़े या छोटे घरानों में ये चापलूस या षड्यंत्रकारी नहीं होते. दरअसल, साम्राज्यों या संस्थाओं के पतन के मूल में अन्य निर्णायक व मारक कारण होते हैं. समय की धार को न पहचानना और उसके अनुरूप कदम न उठाना, पतन का मूल कारण होता है. फ़िर सबसे बड़ा मारक कारक तो आर्थिक व्यवस्था है. इस तरह की किसी चीज के पतन के मूल में, ऐसी चीजों के प्रभाव जरूर होते हैं. पर इससे अधिक विध्वंसकारी तत्व अलग होते हैं. नई दुनिया का अवसान, इस युग के धाराप्रवाह का प्रतिफ़ल है. यह बड़ा और व्यापक सवाल है.

यह सिर्फ़ नई दुनिया तक सीमित नहीं है. देश की अर्थनीति और राजनीति से जुड़ा यह प्रसंग है. माक्र्स-एंगेल्स की अवधारणा सही थी. आर्थिक कारण और हालात ही भविष्य तय करते हैं. डार्विन का सिद्धांत ही बाजारों की दुनिया में चलता है. मार्केट इकोनॉमी का भी सूत्र है, बड़ी मछली, छोटी मछली को खा जाती है. निगल जाती है. आगे भी खायेगी या निगलेगी. बाजार खुला होगा, अनियंत्रित होगा, तो यही होगा. जिसके पास पूंजी की ताकत होगी, वह अन्य पूंजीविहीन प्रतिस्पर्धियों को मार डालेगा. 1983-85 के बीच, राजेंद्र माथुर का राहुल बारपुते पर एक लेख पढ़ा था. लेख का शीर्षक था- हिंदी पत्रकारिता संदर्भ राहुल बारपुते.

माथुर जी से मुलाकात तो धर्मयुग में काम करते दिनों में हुई थी. 1980 के आसपास. गणेश मंत्री के साथ. तब से उनकी प्रतिभा से परिचित था. नई दुनिया की श्रेष्ठ परंपरा से भी. उस लेख में माथुर जी ने लिखा था, ’पांच साल दिल्ली में नवभारत टाइम्स की संपादकीय के बारे में कह सकता हूं कि नयी-पुरानी और दुर्लभ किताबों की दृष्टि से, बीसियों किस्म की पत्र-पत्रिकाओं की दृष्टि से, पत्रकारिता की ताजा पेशेवर सूचनाओं की दृष्टि से और संसार में जो ताना-बाना प्रतिक्षण बुना जा रहा है, उसे छूकर देखे जाने के सुख की दृष्टि से, जो 27 अखबारी वर्ष मैंने नई दुनिया में गुजारे, वे दिल्ली की तुलना में कतई दरिद्र नहीं थे. एक माने में बेहतर ही थे, क्योंकि तब सार्थक पढ़ाई-लिखाई की फ़ुरसत ज्यादा मिलती थी.’ यह थी नई दुनिया की परंपरा. नई दुनिया महज एक अखबार नहीं रहा है. वह हिंदी के बौद्धिक जगत का सांस्कृतिक आलींगन कर रहा है. हिंदी क्षेत्र में संस्कार और संस्कृति गढ़ने-बताने-समझने और विकसित करने का मंच भी. आज अखबारों में बाइलाइन या क्रेडिट पाने की छीना-झपटी होती है.

उस अखबार ने कुछ मूल्य और प्रतिमान गढ़े. गंभीर और मर्यादित पत्रकारिता के लिए. माथुर साहब ने लिखा था कि ‘राहुल बारपुते हर रोज मेरे कॉलम के साथ, मेरा नाम छापने को तैयार थे. मुङो यह ईल लगा. मैंने आग्रह किया कि मैं प्रतिदिन अहस्ताक्षरित ही लिखूंगा’. क्योंकि माथुर साहब को प्रेरणा मिली थी उन दिनों के चोटी के स्तंभकारों से, जो अपना नाम नहीं छापते थे. तब ए. डी. गोरवाला जी, विवेक नाम से लिखते थे. शामलाल जी, अदिव के नाम से लिखते थे. दुर्गादास जी, इंसाफ़ के नाम से लिखते थे. तब शरद जोशी जी भी नई दुनिया में ब्रह्मपुत्र नाम से लिखते थे.यह संस्कार, और परिपाटी-मर्यादा विकसित करने का पालना रहा है, नई दुनिया. आज देख लीजिए, संपादक, अपने ही अखबार में अपनी तसवीर, अपने लोगों की फ़ोटो, अपने परिवार का गुणगान कर किस मर्यादा और अनुशासन का पालन करते हैं? यह दरअसल धाराओं की लड़ाई है.

एक सामाजिक धारा है, जिसका प्रतिबिंब नई दुनिया का पुराना अतीत रहा है. मूल्यों से गढ़ा गया. तब नई दुनिया ने वैदेशिक कालम की शुरुआत की. जब इसकी कोई खास जरूरत नहीं थी, पाठकों के बीच इसकी मांग नहीं थी. पर अपने पाठकों का संसार समृद्ध करना उसने अपना फ़र्ज समझा. आज बड़ी पूंजी से निकलने वाले अखबारों का फ़र्ज क्या है? वे पाठकों को उनकी रुचि का सर्वे करा कर फ़ूहड़ और ईल चीजें भी देने को तैयार हैं. पाठकों की इच्छा के विपरीत, उनके संस्कार गढ़ने, ज्ञान संसार समृद्ध करने का जोखिम लेने को तैयार नहीं. पर नई दुनिया ने यह किया. आज पहला मकसद है, अखबारों का, प्राफ़िट मैक्सीमाइजेशन. यह नयी पत्रकारिता बाजार को साथ लेकर चलती है. हर वर्ग को खुश रखना चाहती है.

उपभोक्तावादी संसार उसे ताकत देते हैं, इसलिए यह धारा आज ज्यादा प्रबल है. यह तामसिक है. पहली धारा (जिससे नई दुनिया का अतीत जुड़ा है) वह सात्विक रही है. आज सात्विक और तामसिक धाराओं के बीच संघर्ष है. फ़िलहाल तामसिक धारा का जोर है. सात्विक, कमजोर और उपहास के पात्र. पर अंतत: जय सात्विक धारा की होगी. इसमें भी किसी को शंका नहीं होनी चाहिए? उस दौर में हिंदी का सबसे अच्छा अखबार, नई दुनिया कहा गया. क्यों? क्योंकि माथुर साहब के शब्दों में, नातों-रिश्तों, ठेका और फ़ायदों का जमाना शुरू ही नहीं हुआ था. पत्रकारिता का पैमाना क्या था? माथुर साहब के ही शब्दों में ही पढ़िए-‘नई दुनिया में रह कर आप कह सकते हैं कि जो मैं लिखता हूं, वह मैं हूं. लेखन से जो सराहना की गूंज लौट कर आती है, वही मेरा पद है, और समाज निर्मित तथा समाज प्रदत्त होने के कारण यही सचमुच प्रमाणिक है.’

जारी…

Advertisement. Scroll to continue reading.

लेखक हरिवंश देश के जाने-माने पत्रकार हैं. वे बिहार और झारखंड में नंबर वन हिंदी दैनिक प्रभात खबर के प्रधान संपादक हैं. उनका यह लिखा प्रभात खबर में प्रकाशित हो चुका है.

 

 
 

 
Click to comment

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

… अपनी भड़ास [email protected] पर मेल करें … भड़ास को चंदा देकर इसके संचालन में मदद करने के लिए यहां पढ़ें-  Donate Bhadasमोबाइल पर भड़ासी खबरें पाने के लिए प्ले स्टोर से Telegram एप्प इंस्टाल करने के बाद यहां क्लिक करें : https://t.me/BhadasMedia 

Advertisement

You May Also Like

विविध

Arvind Kumar Singh : सुल्ताना डाकू…बीती सदी के शुरूआती सालों का देश का सबसे खतरनाक डाकू, जिससे अंग्रेजी सरकार हिल गयी थी…

विविध

: काशी की नामचीन डाक्टर की दिल दहला देने वाली शैतानी करतूत : पिछले दिनों 17 जून की शाम टीवी चैनल IBN7 पर सिटिजन...

प्रिंट-टीवी...

सुप्रीम कोर्ट ने वेबसाइटों और सोशल मीडिया पर आपत्तिजनक पोस्ट को 36 घंटे के भीतर हटाने के मामले में केंद्र की ओर से बनाए...

सुख-दुख...

Shambhunath Shukla : सोनी टीवी पर कल से शुरू हुए भारत के वीर पुत्र महाराणा प्रताप के संदर्भ में फेसबुक पर खूब हंगामा मचा।...

Advertisement