१९८० की जनवरी में जब मैंने पत्रकारिता शुरू की थी तब प्रिंटर पर खबरें आया करती थीं कि अमुक जिले के अमुक गांव में ऊँची जाति के लोगों ने नीची जाति के लोगों के साथ मारपीट की या उनके लिए गांव के रास्ते बाधित कर दिए। ऐसी खबरें देने वाले, लिखने वाले और डेस्क से सही करने वाले पत्रकार यह सोचकर खुश हो जाते कि हमने नीची जातियों की पीड़ा को हाई लाइट कर एक नेक काम किया।
एक दिन मैंने अपने चीफ सब से एक सवाल किया कि जो जाति एक नीच काम कर रही है उसे तो आप ऊंची जाति लिख रहे हो और जो पीडि़त हैं उन्हें नीच जाति, मुझे यह सिरे से ही गलत लगता है। यह सुनते ही हमारे चीफ सब बीके शर्मा हथेली पर तंबाखू मलते हुए चीखे कि आप बड़े महान हो तो सीधे मोहन बाबू से जाकर हमारी शिकायत करो। मैंने कहा कि इसमें शिकायत जैसी कोई बात नहीं है लेकिन हम इसे बदल तो सकते हैं। शर्मा जी बोले- तुम अपनी नौकरी करो ये सब बातें छोड़ो। और तुम्हें बड़ी क्रांति करनी है तो जाओ भैया मोहन बाबू के पास।
कानपुर में दैनिक जागरण के प्रधान संपादक और उसके मालिक नरेंद्र मोहन जी को उस समय लोग मोहन बाबू ही कहा करते थे। वे तब हर सोमवार को पूरे संपादकीय विभाग की बैठक करते और समस्याएं शेयर करते। बीके शर्मा द्वारा व्यंग्य में कही गई बात को मैंने सोमवार की बैठक में मोहन बाबू के सामने रखा और कहा कि यह तो गलत है। हमें ऊँची या नीची जाति लिखने के लोगों की जाति लिखना चाहिए। मोहन बाबू को यह बात जंच गई और वहां यह परंपरा बंद हो गई।
वरिष्ठ पत्रकार शंभूनाथ शुक्ल के फेसबुक वॉल से साभार.