जो खबर जैसे आए छप जाए और आपको कुछ कहना है तो कमेंट बॉक्स में लिखिए या लिखकर भेज दीजिए वह भी छप जाएगा – का आपका सिद्धांत निराश कर रहा है। आपने संपादकीय दायित्व लगभग छोड़ दिया है और हर लेखक या पाठक संपादक हो गया है। किसी भी अखबार पत्रिका या अब नए माध्यम में संपादक की भूमिका होती है और वही पाठक बनाता है। आपने जब भड़ास शुरू किया था तो संपादक के रूप में जो काम किए, जो विचार जताए उससे इसकी लोकप्रियता बनी और इसे पाठकों का इतना बड़ा आधार मिला।
पर अब मैं देख रहा हूं कि कुछ भी छप जा रहा है और हाल के समय में आलेखों के साथ आपने यह नोट भी लगाया है कि आपको एतराज हो तो कमेंट बॉक्स में लिख सकते हैं या अलग लिखकर मेल कर दीजिए उसे भी छापा जाएगा। संपादकीय स्वतंत्रता के लिहाज से यह भले ही अच्छा लगता हो पर पाठकों के लिए इससे कई तरह की सूचनाएं आ जाती हैं और उसके पास इनकी जांच का कोई साधन नहीं होता इसलिए वह मुश्किल में पड़ जाता है। खबरों के साथ यह जरूरी है कि सही खबरें ही प्रकाशित हों। किसी घटना के दो चश्मदीद होने का दावा करने वाले परस्पर विरोधी चीजें लिखें तो पाठक उनका क्या करेगा। जाहिर है पढ़ना छोड़ देगा। मुझे डर है कि कि भड़ास के साथ भी ऐसा ही न हो। हालांकि ये मेरे निजी विचार हैं और हो सकता है मैं गलत होऊं।
पर अपनी बात को सही साबित करने के लिए मैं एक खबर और उसपर प्रतिक्रिया की चर्चा करूंगा। यहां यह स्पष्ट कर दूं कि मूल खबर लिखने वाले के साथ-साथ प्रतिक्रिया जताने वाले और शहर के जिन पत्रकारों की तस्वीरें छपीं हैं उनमें से मैं किसी को नहीं जानता, कोई संबंध नहीं है और जनसत्ता में नौकरी के दौरान अगर कोई पुराना संबंध-संपर्क रहा भी हो तो अभी याद नहीं है। इसलिए किसी का पक्ष लेना या विरोध करना उद्देश्य नहीं है। यह साबित करना चाहता हूं कि दोनों ही लेख भले ही प्रकाशित करने लायक रहे हों पर उनका संपादन बहुत जरूरी था।
और संपादन का मतलब लेख को प्रकाशित करने या न करने का निर्णय करना, अशुद्धियां सुधारना, वर्तनी ठीक करना, शीर्षक लगाना, हिज्जे ठीक करना ही नहीं है। संपादन का मतलब जो लिखा जाए उसे दिलचस्प और पठनीय बनाने के साथ-साथ संदेश को साफ-साफ और दो टूक कहना तथा उसके लिए पहले पूरे तथ्य जुटाना और फिर उन्हें उसी ढंग से प्रस्तुत करना जरूरी है। पहली रिपोर्ट, गिफ्ट-पैसा पाने के लिए पैंट तक उतार दी पत्रकारों ने, में जो कुछ कहा गया था उस तथ्य को दूसरी रिपोर्ट में गलत नहीं बताया गया है बल्कि यह तर्क देकर कि मंदिर में जाने के लिए आप जूते तो उतारेंगे ही, पिछली रिपोर्ट को आधारहीन बताने की कोशिश की गई है।
अनिल कुमार की इस रिपोर्ट का शीर्षक, खीझ निकालने के लिए पत्रकारों की तस्वीर को गलत तरीके से पेश किया गया – भी मुझे तथ्यों से परे लगा। तस्वीर पैंट उतारते या पहने हुए ही थी और रिपोर्ट में यहीं कहा गया था कि गिफ्ट लेने के लिए पत्रकारों ने पैंट तक उतार दिए। अब अनिल जी कह रहे हैं कि वह मंदिर में जाने के लिए जूते उतारने जैसा साधारण काम था। अनिल जी को शायद नहीं मालूम कि जूते उतारने के आलस में बहुत सारे लोग मंदिर नहीं जाते। ऐसे में अगर लोग (वह भी पत्रकार) पैंट उतार कर मंदिर में जा रहे है थे तो खबर गलत नहीं थी, सच कहिए तो टीआरपी बटोरू थी। मूल मुद्दे को अनिल जी गलत नहीं बता रहे हैं। वे नहीं कह रहे कि पैंट उतारकर इन पत्रकारों ने सिर्फ दर्शन किए या अपनी किसी आस्था का परिचय दिया, उपहार नहीं लिए। अगर ऐसा ही है तो मूल खबर में गलत क्या है, कैसे है।
हो सकता है अनिल कुमार जी की राय में पैंट उतारकर गंगादास बाबा के सिद्ध पीठ के प्रति आस्था दिखाना खबर न हो पर गिफ्ट लेने के लिए पैंट उतारना तो खबर है ही। मूल खबर में यह भी कहा गया था कि कुछ लोगों ने इसी मारे उपहार नहीं लेने का निर्णय किया और बिना पैंट उतारे चले गए। अनिल कुमार इस तथ्य को भी नहीं काटते। पर खबर लिखने वाले राकेश पाण्डेय के बारे में बताते हैं कि उसे आश्रम के लोगों ने बुलाया नहीं था, जिसकी खीझ वो दूसरे पत्रकारों पर निकाल रहे हैं। अनिल जी ये नहीं बताते कि आश्रम के लोगों ने राकेश पाण्डेय को क्यों नहीं बुलाया था।
वे बताते हैं, ये जनाब पूरे जिले में अपने आप को स्टार न्यूज का पत्रकार बताते हैं। जो पिछले दिनों 650 रुपया प्रति घंटा के दर से विज्ञापन बुक करते थे, जिसके लिए बाकायदा रसीद भी दिया करते थे। आज भी धड़ल्ले से ये काम किया करते हैं, जिसका खुलासा इसी भडास4मीडिया ने किया था। उक्त विज्ञापन को लेकर स्टार न्यूज के लखनऊ बैठे लोगों या दिल्ली बैठे लोगों ने कोई विरोध या कारवाई नहीं की बल्कि भड़ास4मीडिया पर ही अपना बयान दे दिया कि उक्त नाम का कोई भी संवाददाता गाजीपुर में नहीं है, जबकि आज भी वो अपने ऑफिस स्टार न्यूज और न्यूज एक्सप्रेस का बड़ा सा बोर्ड लगवा रखा है।
इससे तो यही पता चलता है कि राकेश पाण्डेय और स्टार न्यूज की मिलीभगत है और अपने यहां स्ट्रिंगर जैसे और जिन हालातों में काम करते हैं उसमें मैं नहीं मानता कि राकेश पाण्डेय स्टार वालों के नहीं चाहने पर भी यह सब कर पा रहे होंगे। अनिल कुमार जी आगे लिखते हैं, उक्त खबर को गलत तरीके से पेश करने में ये कोई अकेले नहीं हैं बल्कि पर्दे के पीछे इलेक्ट्रानिक मीडिया से जुडे कुछ ऐसे पत्रकार भी हैं, जो कभी किसी खबर में नहीं जाते हैं बल्कि अपने चेलों से काम कराते हैं, जिनके चेले भी उस आश्रम पर पहुंचे थे। इसके बाद भी अनिल जी नहीं बताते कि इन चेलों ने राकेश पाण्डेय की तरह रिपोर्ट की या पैंट उतारकर गिफ्ट लेने चले गए। अगर वे बता देते तो पाठकों को समझ में आ जाता कि कौन गलत है और कौन सही।
बहरहाल, अनिल कुमार जी को तो सब पता है पर वह नहीं बता रहे हैं और इसका मकसद है। उन्हें भड़ास जैसा मंच मिल गया है। मुझे इसी का अफसोस है। इस आलेख को लिख लेने के बाद मैंने देखा कि अनिल कुमार की खबर के साथ राकेश पांडे के संवाददाता होने का प्रमाण – आईकार्ड भी लगा हुआ है। इससे तो अनिल कुमार का दावा ही कमजोर नजर आता है। पर मेरा मुद्दा यह है कि इस तरह की हल्की और सच्चाई की पुष्टि किए बगैर खबरें प्रकाशित होने से भड़ास पर खबरें तो बहुत आती है, पाठक भी काफी हैं पर क्या पाठकों को वह सब मिल रहा है जो मिलना चाहिए। मुझे डर है कि भड़ास पत्रकारों की कुश्ती का रिंग न बन जाए।
लगे हाथ बता दूं कि छपरा का मूल निवासी होने के बावजूद गाजीपुर के बयपुर देवकली स्थित गंगादास बाबा के इस सिद्ध पीठ और इसके इस नियम की जानकारी मुझे नहीं थी। दोनों ही खबरों में इस बारे में ऐसा कुछ नहीं बताया गया है जो एक पाठक के रूप में मेरी जरूरत थी।
लेखक संजय कुमार सिंह हिंदी दैनिक जनसत्ता में लंबे समय तक कार्यरत रहे हैं. इन दिनों स्वतंत्र पत्रकार के बतौर सक्रिय हैं और अनुवाद का काम उद्यम के तौर पर संचालित कर रहे हैं. उनसे संपर्क [email protected] या 09810143426 के जरिए किया जा सकता है.