आम तौर पर यूनियनों का मतलब चंदाखोरी ही नहीं होता है। पर यह बात सौ आना सच नहीं है। यूनियनों के गठन का उद्देश्य वैचारिक एवं सैद्धांतिक प्रतिबद्धता से भी जुड़ा होता है और होना चाहिए। मेरी समझ से यूनियनों के गठन के मुद्दे को व्यापक परिपेक्ष्य में देखे जाने की दरकार है। यह निर्विवाद सत्य है कि खुली अर्थ व्यवस्था के मौजूदा दौर ने पत्रकार यूनियन ही नहीं सभी ट्रेड यूनियनों को हाशिये में धकेल दिया है। इनमें पत्रकारों की ट्रेड यूनियनों की हालत सबसे ज्यादा ख़राब है।
मेरी समझ से इसकी दो वजहें हैं। पहला – पत्रकार यूनियनों का दलाल नेतृत्व। दूसरी वजह खुद पत्रकार साथी स्वयं हैं। हमारा मानना है कि सभी समाचार समूहों में काम कर रहे पत्रकार और गैर पत्रकार विशुद्ध रूप से "श्रमजीवी" हैं। पर इनमें से ज्यादातर पत्रकारों को अपने को "श्रमजीवी" कहने और कहलाने में शर्म महसूस होती है। माना कि अधिकांश समाचार समूह श्रमजीवी पत्रकार और गैर पत्रकारों की एकजुटता के पक्षधर नहीं हैं। समाचार समूहों को श्रमजीवी पत्रकार और गैर पत्रकारों का एका और उनकी यूनियनें कतई रास नहीं आती हैं। "किसी यूनियन के सदस्य नहीं बनना" अब ज्यादातर समाचार – पत्रों में नियुक्ति पाने की पहली शर्त होती है।
पत्रकार यूनियनों को आए रोज जी भरकर गरियाने वाले कुछ नामचीन बड़े पत्रकार भी गाहे – बगाहे मौका आने पर पत्रकार यूनियनों की उर्जा का इस्तेमाल करने से चूकते नहीं हैं। भले ही ज्यादातर समाचार – पत्रों की नीति यूनियन विरोधी हो। इसका मतलब यह कतई नहीं है कि अभिव्यक्ति और समाजोन्मुख जनपक्षीय पत्रकारिता की प्रबल पक्षधर पत्रकार अपने खुद के और व्यापक समाज के हित में यूनियनों से न जुड़ें। आज हालत यह है कि असल श्रमजीवी पत्रकार व्यक्तिगत और पेशेगत वजहों के चलते यूनियनों से जुड़ने को तैयार नहीं हैं। असल और पेशेवर पत्रकार यूनियन से नहीं जुड़ते तो उनकी जगह दूसरी प्रजाति के पत्रकारों से भर जाती है। जिनका लक्ष्य, समूची पत्रकार बिरादरी या पत्रकारीय पेशे के व्यापक हितों के बजाय निजी स्वार्थ सिद्धि ज्यादा होता है। नतीजन एक मेहनतकश और ईमानदार पत्रकार के मानस में यूनियनों के प्रति घृणा घर कर जाती है। इसका एक ही ईलाज है कि पत्रकारीय पेशे के प्रति ईमानदार और दृष्टिवान पत्रकार आगे आयें। पत्रकार यूनियनों में कुंडली मारे दलालों को बहार का रास्ता दिखाएँ। आज असल पत्रकार के बौद्धिक श्रम, उर्जा और पत्रकारीय आभा को दूसरे लोग सरे बाजार बेचने में संलग्न हैं। असल पत्रकार दूर खड़ा अपनी बौद्धिक सम्पत्ति की खुली लूट का मूक दर्शक बना हुआ है। गलती किसकी है?
हम पिछले कई सालों से पेशेवर असल पत्रकार साथियों को एकजुट करने की कोशिशों में लगे हैं। पर सब बेकार। लोकतंत्र में यूनियनें तो रहेंगी ही। भले ही उनका संचालन कोई करे। आवश्यकता है – असल पत्रकारों के आगे आकर पत्रकार यूनियनों का नेतृत्व संभालने की। जिम्मेदारी से बचकर काम चलने वाला नहीं। पत्रकार यूनियनों में कुंडली जमाये दलाल नेतृत्व के चक्रव्यहू को नेस्तनाबूद करने की आवश्कता है। उन्हें गरियाने से ही काम चलने वाला नहीं है। अभिव्यक्ति के खतरे तो उठाने ही होंगे।
लेखक प्रयाग पांडेय उत्तराखंड के वरिष्ठ पत्रकार हैं.