पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाट, त्यागी और गुर्जर समुदाय दो तिहाई संख्या में है. साथ ही पश्चिमी उत्तर प्रदेश में धर्म से ज्यादा बिरादरी की पहचान होती हैं. मुग़लों के समय में हिन्दू से मुस्लिम बनी बिरादरी अब अभी पुराने नाम से पहचानी जाती हैं. मसलन मुस्लिम बने जाटों को मूला जाट, मुस्लिम बने त्यागी को महेसरा या चौधरी, मुस्लिम बने राजपूतों को रांघड़, मुस्लिम बने गुर्जर को पोला कहा जाता हैं. गौर करने वाली बात यह भी हैं की आज़ादी के बाद जितने भी दंगे हुए हैं इन सारी बिरादरियों (जाट, त्यागी और गुर्जर) ने कभी भी हिन्दू मुल्सिम झगड़े में हिस्सा नहीं लिया और कभी दंगे के दौर में इनकी बिरादरियों के गांव में अतिरिक्त पुलिस बल और अर्ध सैनिक बल की जरुरत नहीं पड़ी.
चूँकि पश्चिमी उत्तर प्रदेश दिल्ली से सटा हुआ इलाका हैं और किसान राजनीति के लिए महशूर हैं इसलिए सारी खेती बाड़ी करने वाली जातियाँ जरूरत पड़ने पर कभी ना कभी किसान आन्दोलन में हिस्सा लेती रही हैं और जहाँ अगड़ों में त्यागी- ब्राह्मण, क्षत्रिय खेती बाड़ी से जुड़ी हुई बिरादरी हैं वहीँ पिछड़ों में जाट, गुर्जर खेती बाड़ी से जुड़ी हुई बिरादरी हैं और साथ में अति पिछड़ी जाति और दलित जो खेती और बाकी काम करने में मदद करते हैं प्रजापति, सैनी, विश्वकर्मा, नट, धोबी, कहार, कश्यप, केवट, कुम्हार, राजभर, प्रजापति, धीवर, धीमर, बिंद, माझी, गौड़, मछुवा आदि बिरादरी हैं. वहीँ मुस्लिमों की बिरादरी जो खेती और बाकी काम में हाथ बटाती हैं उनमें अंसारी, मंसूरी, सलमानी , नट, आतिशबाज़, भिश्ती, फकीर, गद्दी, हज्जाम, इराकी/कलाल, खरदी, मिरासी, मोमिन जुलाहा, मंसूरी/धुनिया, मेव, नानबाई, निकारी, पटुआ, कलंदर, कस्साब, राइन/कुंजड़ा, शेख मेहतर, आदि हैं. वहीँ मुस्लिमों में मूला जाट, महेसरा, चौधरी, रांघड़, पोला आदि बिरादरी खेती बाड़ी से जुडी हैं. हिन्दू-मुस्लिमों का एक दूसरों की मदद के बिना काम नहीं चलता है. आपस में एक साथ जहाँ दीपावली और कावंड में मुस्लिम खुद हिन्दू के साथ त्यौहार में साथ होता हैं और साथ सारे त्यौहार मनाता हैं वहीँ ईद में हिन्दू भी मुस्लिमों के घर जाकर ईद में सेवियों का लुत्फ़ लेते हैं.
ध्यान देने वाली बात यह हैं की सभी जातियों को कहीं ना कहीं एक दूसरे की जरूरत पड़ती हैं और गांवों का तानाबाना इस तरह से बना हुआ है कि हर जाति बिरादरी एक साथ सुख चैन से रहती आई हैं. गांवों में अब भी इस तरह का माहौल है कि अगर सलमा ताई दो चार रोज़ नहीं दिखाई दें तो गाँव की औरतें राज़ी ख़ुशी लेने के लिए घर पर चली जाती हैं और वहीँ अगर लाजवंती अम्मा बीमार पड़ जाएँ तो गाँव की मुस्लिम औरतें भी उनके हाल चाल लेने घर पहुँच जाती हैं. अगर कहीं कुछ लोग साथ बैठकर हुक्का पीते हुए दीखते हैं तो अब्दुल चाचा हाथ उठाकर राम-राम कहते हुए जाते हैं और जब मुस्लिमों के मोहल्ले में राजेंद्र मजदूर को कहने के लिए जाता है और वहां मुस्लिमों को बैठे हुए देखता हैं तो हाथ उठाकर आदाब करता है.
कभी आपस में भाइयों, घर, मोहल्ले, दूसरी जाति, धर्म में कोई कहासुनी या झगड़ा हो जाता है तो पंचायत करके फैसला सुना दिया जाता है और दोनों ही पक्षों को आपस में मिलवा दिया जाता हैं. फैसला मानना इसलिए पड़ता है क्योंकि पंचों में खुद की बिरादरी और समाज के लोग भी शामिल होते हैं और अगर फिर भी मामला नहीं सुलझता तो फिर पुलिस-कोर्ट के अधीन केस जाता है पर ज्यादातर मामले कोर्ट में होने के बाद भी बाहर से ही पंचायत द्वारा फैसलों से ही ख़तम हो जाते हैं जिसमें जल्द और सस्ता न्याय गरीब लोगो को मिल जाता है और भाईचारा बनाने में दिक्कत नहीं आती.
कुछ समय से गाँवों और देहात में कुछ बीमार दिमाग लोग अपने राजनीतिक स्वार्थ के लिए जो अलगाव पैदा करना चाहते हैं उसमें यह आपसी पुराना नाता और भाई चारा ही हम सबको एकजुट करने में और झगड़े के बाद दिल की दूरियों को मिटाने में काम आएगा. अपनी महत्वाकांक्षा को पूरा करने के लिए कुछ लोग हिन्दू-मुस्लिम में नफरत की जो भावना भड़काना चाहते हैं उसमें वो कुछ पल के लिए तो सफल हो सकते हैं परन्तु वो लोग यह सुनिश्चित भी कर लें कि गांव का किसान और सेना का जवान ऐसी किसी भी योजना का जवाब देने में समर्थ है और यह जवाब गांव का हर नागरिक चुनाव में ऐसी देश द्रोही ताकतों को रोककर दिखाता आया हैं… इसीलिए कहते हैं कि आज भी गांव में असली भारत बसता है.
लेखक अभिमन्यु त्यागी मेरठ के आजाद पत्रकार हैं. उनसे संपर्क [email protected] या 09528930507 के जरिए किया जा सकता है.