केन्द्रीय सूचना आयोग (सीआईसी) द्वारा सभी राजनैतिक दलों को सूचना का अधिकार अधिनियम के दायरे में आने के सम्बन्ध तीन जून को दिए गए एतिहासिक फैसले से देश की सभी सियासी पार्टियाँ तिलमिला उठी हैं। भारत के किसी भी राजनैतिक पार्टी को केन्द्रीय सूचना आयोग का यह फैसला रास नहीं आ रहा है। राजनीति में पारदर्शिता और सुचिता का ढोंग करने वाले सभी सियासी दलों को सूचना का अधिकार अधिनियम के दायरे में आने के बाद सियासी पार्टियों के भीतर पर्दे के पीछे चलने वाले चंदे के गोरखधंधे का पर्दाफाश हो जाने का डर सताने लगा है।
अपने चाल, चरित्र और चेहरे पर गुमान करते नहीं थकने वाली भाजपा, वैचारिक और प्रतिबद्ध जनपक्षीय सियासत का ढोंग करने वाली माकपा और भाकपा, देश को सूचना का अधिकार अधिनियम देने के सियासी फायदा उठाने की जुगत में लगी सत्तारूढ़ कांग्रेस समेत देश की किसी भी छोटी-बड़ी सियासी पार्टी को केन्द्रीय सूचना आयोगका यह क़ानूनी फंदा मंजूर नहीं है। इस मुद्दे पर अलग-अलग विचारधाराओं वाली सभी सियासी पार्टियाँ आश्चर्यजनक रूप से एक हो गई हैं। सभी राजनैतिक दल केन्द्रीय सूचना आयोग के इस फैसले को सियासी दलों के अन्दरुनी मामलों में दखलअंदाजी बता रहे हैं। केन्द्रीय सूचना आयोग के इस फैसले ने सभी सियासी दलों के कथित वैचारिक फासले ख़तम कर दिए हैं। केन्द्रीय सूचना आयोग के इस फैसले से बौखलाई कांग्रेस ने तो संवैधानिक संस्थाओं को अपने हद में रहने की भी नसीहत दे डाली है। अब देश की सभी सियासी पार्टियाँ केन्द्रीय सूचना आयोग पर नकेल कसने पर उतारू हो गई हैं। देश की दूसरी ज्वलंत समस्याओं पर एक मंच पर आने से कतराने वाले राजनैतिक दल इस मुद्दे पर सर्वदलीय बैठक बुलाने की हिमायत करने लगे हैं। संभव है कि इस मामले में आने वाले कुछ दिनों में सर्वदलीय बैठक हो।
जब देश के लिए नियम-कानून बनाने वाले सियासी दल खुद उन नियम-कानूनों के पालन को राजी न हों तो इससे बड़ा दुर्भाग्य और क्या हो सकता है? लिहाजा देश की सभी सियासी पार्टियों को चाहिए कि वे इस बहाने एक ऐसा कानून बनाएं कि चुनाव आयोग में पंजीकृत देश की सभी राजनैतिक पार्टियों को भारतीय संविधान और उसके तहत बने और भविष्य में बनने वाले सभी नियम, कायदे-कानूनों के दायरे से बाहर कर दिया जाय। देश की सभी सियासी पार्टियों को नियम, कायदे-कानूनों से ऊपर का दर्जा हासिल कर लेना चाहिए। देश की पंजीकृत सभी सियासी पार्टियों पर सिर्फ वही नियम, कायदे-कानून लागू होने चाहिए, जो खुद उन्हें मुफीद हों। अन्यथा नहीं। तो आपकी क्या राय है जनाब?
लेखक प्रयाग पांडे उत्तराखंड के वरिष्ठ पत्रकार हैं.