: हिंदी का केवल एक समाचार पत्र : पश्चिम बंगाल में अखबार वही जो ममता बनर्जी की सरकार पढ़ाए. जी हां, राज्य में अब सरकार तय कर रही है कि सरकारी पुस्तकालयों में लोग कौन सा अखबार पढ़ेंगे और कौन सा नहीं. पश्चिम बंगाल सरकार ने एक सर्कुलर जारी कर कहा है कि सरकारी या सरकार से सहायताप्राप्त पुस्तकालयों में कोलकाता से छपने वाले महज आठ अखबार ही खरीदे जाएंगे. इनके इतर दूसरा अखबार खरीदने पर उसके पैसे नहीं दिए जाएँगे. इन अखबारों की सूची में बांग्ला के पांच, हिंदी का एक और उर्दू के दो अखबार हैं. यह तमाम अखबार वही हैं जो ममता सरकार के साथ खड़े रहे हैं.
इनमें से कइयों के मालिकों को ममता राज्यसभा भेज चुकी हैं. दिलचस्प बात यह है कि इन अखबारों में अंग्रेजी का कोई अखबार शामिल नहीं है. सरकार के इस फैसले की काफी आलोचना हो रही है. राज्य में लगभग ढाई हजार सरकारी या सरकारी सहायताप्राप्त पुस्तकालय हैं. इनमें अब पाठकों को महज वही आठ अखबार पढ़ने को मिलेंगे जिनकी सूची सरकार ने जारी की है. इनमें बांग्ला का सबसे ज्यादा बिकने वाले दैनिक का नाम नहीं हैं.
सरकारी अधिसूचना में कहा गया है, पाठकों के हित में सरकारी पैसे से ऐसा कोई अखबार नहीं खरीदा जाएगा जो प्रत्यक्ष या परोक्ष तौर पर किसी राजनीतिक दल की सहायता से छपता हो. यानी इस सूची में शामिल अखबारों के अलावा बाकी तमाम अखबार सरकार की नजर में किसी न किसी राजनीतिक दल से सहायता हासिल करते हैं. कोलकाता से हिंदी के आठ अखबार निकलते हैं. लेकिन सरकारी सूची में वही इकलौता अखबार शामिल है जिसके मालिक को ममता ने इसी सप्ताह तृणमूल कांग्रेस के टिकट पर राज्यसभा में भेजा है.
वैसे, वाममोर्चा के शासनकाल में तमाम सरकारी पुस्तकालयों में बाकी अखबारों के अलावा माकपा का मुखपत्र गणशक्ति खरीदना अनिवार्य था. लेकिन उसके लिए कोई लिखित निर्देश जारी नहीं किया गया था. अब सरकार जिन अखबारों को साफ-सुथरा और निष्पक्ष मानती है उनमें से ज्यादातर को तृणमूल कांग्रेस का समर्थक माना जाता है. सरकार की इस सूची में सबसे पहला नाम बांग्ला दैनिक संवाद प्रतिदिन का है. उसके संपादक और सहायक संपादक दोनों तृणमूल के टिकट पर राज्यसभा सांसद हैं. दूसरे अखबारों का भी ममता और तृणमूल कांग्रेस के प्रति लगाव जगजाहिर है.
सरकार के ताजा निर्देश से पुस्तकालय के कर्मचारी भी सांसत में हैं. उनको आम पाठकों की नाराजगी का डर सताने लगा है. पश्चिम बंगाल पुस्तकालय कर्मचारी समिति के महासचिव रंजीत सरकार कहते हैं कि वाममोर्चा के शासनकाल में माकपा का मुखपत्र खरीदने का कभी कोई लिखित आदेश जारी नहीं किया गया था. लेकिन अब हमारे सामने आंदोलन के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं बचा है. पाठकों के सवालों से आखिर हम लोगों को ही जूझना पड़ेगा. इस मुद्दे पर उभरे विवाद के बावजूद पुस्तकालय मंत्री अब्दुल करीम चौधरी ने अब तक मीडिया के सामने कोई टिप्पणी नहीं की है. सरकार अब इससे हुए नुकसान की भरपाई में जुट गई है.
गौरतलब है कि पुस्तकालय विभाग की ओर से हाल में एक अधिसूचना जारी की गयी जिसमें कहा गया है कि सरकारी पुस्तकालयों में बांग्ला में संवाद प्रतिदिन, सकाल बेला, एक दिन, खबर 365, दैनिक स्टेटसमैन, हिंदी में सन्मार्ग, उर्दू में आजाद हिंद व अखबार-ए-मशरीक ही रखे जायेंगे. दिलचस्प बात यह है कि ये अखबार किसी न किसी रूप से तृणमूल कांग्रेस से जुड़े हुए हैं या उनके समर्थक हैं. संवाद प्रतिदिन के संपादक सृजय बोस व सह संपादक कुणाल घोष दोनों ही तृणमूल कांग्रेस से राज्यसभा के सांसद हैं. सन्मार्ग के मुख्य कर्ता विवेक गुप्ता व अखबार-ए-मशरीक के नदीमुल हक कुछ दिन पहले ही तृणमूल कांग्रेस के टिकट से राज्यसभा के सांसद बने हैं. इस सूची से कोलकाता के बांग्ला, अंगरेजी व हिंदी के लगभग सभी प्रतिष्ठित अखबारों को अलग रखा गया है.
सरकार के इस फरमान का चौतरफा आलोचना शुरू हो गई है. विपक्ष के नेता तथा साहित्यकार भी ममता बनर्जी के इस फैसले के खिलाफ मुखर हो उठे हैं. विस में विपक्ष के नेता सूर्यकांत मिश्र और कांग्रेस विधायक असित मित्र ने यह मुद्दा उठाया है. इन लोगों ने कहा है कि पश्चिम बंगाल सरकार लोकतांत्रिक व्यवस्था की नींव कमजोर करने का प्रयास कर रही है. यह उचित एवं व्यवहारिक कदम नहीं है. यह लोकतंत्र पर कुठाराघात है. वहीं वुद्धिजीवी वर्ग भी ममता के इस फैसले से खासा नाराज है. इस वर्ग का कहना है कि आम पाठक वही नहीं पढ़ना चाहेगा, जिसे सरकार पढ़ाएगी. (इनपुट : बीबीसी)