– मुंबई से अनिल अत्रि –
जब मैं पहली बार सागर सरहदी से मिलने उनके सायन स्थित घर गया तो एकबारगी मन में सिहरन-सी पैदा हुई। इतना बड़ा लेखक जिसने एक से एक बड़ी फिल्मों के लिए लेखन किया हो। और जिसने बाजार जैसी कालजयी कृति हमें दी हो, उससे मिलना अपने आप में एक सुखद अनुभव तो है ही। साथ ही एक काल्पनिक तस्वीर भी मेरी आंखों में तैर रही थी।
इस तस्वीर में कहीं न कहीं सिनेमाई दुनिया की वैभवपूर्ण चकाचौंध का खौफ भी था। लेकिन संवाद और पटकथा के लिए फिल्मफेयर पुरस्कार से नवाजे जा चुके सागर सरहदी के घर के भीतर कदम रखते ही वह तस्वीर कब मेरे अवचेतन मन से गायब हो गई पता ही नहीं चला। बहुत ही साधारण-सा घर। जहां देखो वहां हिंदी, उर्दू और अंग्रेजी की भिन्न–भिन्न विषयों की किताबों का अंबार लगा था। दो पुरानी मूढ़े किस्म की कुर्सियां थी, लेकिन वह भी किताबों से लदी-फदी। बड़ी मुश्किल से बैठने की जगह बन सकी। दोपहर के बारह बजे के करीब मैं लंबे समय तक यूनीवार्ता से जुड़े रहे पत्रकार मित्र महेश राजपूत के साथ वहां पहुंचा और करीब तीन घंटे उनके साथ बिताए। इस बीच उन्होंने एक बेहतरीन चाय भी बनाकर पिलाई और अपने छोटे से घर का मुआयना भी कराया। घर क्या था एक तरह से पुरानी किताबों का स्टोर था। सिर्फ रसोई ही बची थी जहां किताबें नहीं थीं। मैं सोच रहा था कि यह इंसान सोता आखिर कहां होगा क्योंकि जिस बिस्तर पर उन्होंने बताया कि सोते हैं, उसपर इस बेतरतीब तरीके से कागज और किताबें फैली थीं कि सोना तो दूर बैठने की जगह भी नहीं थी। खैर! यहां पेश है उनसे बातचीत के कुछ अंश-

-‘बाजार’ अब तीन दशक से भी अधिक पुरानी बात हो चुकी है। इस दौरान फिल्म इंडस्ट्री में कितना कुछ बदलाव आपकी नजर में हुआ है?
-सच कहूं तो फिल्म बनाना अब बहुत मुश्किल हो गया है। एक लेखक के तौर पर यदि कहूं तो, एक दौर था जब महबूब साहब, विमल राय, गुरूदत्त, राजकपूर, अमीय चक्रवर्ती, बीआर चोपड़ा, यश चोपडा़ आदि जैसे निर्माता-निर्देशक कहानी को महत्व देते थे। बीआर चोपड़ा के यहां तो तीन कहानी लेखक स्थाई तौर पर काम करते थे और उन्हें नियमित तौर पर एक से दो घंटे उनके साथ बैठना होता था। उसके बाद कई-कई दिन के बाद कोई एक कहानी तय होती थी, जिस पर आगे काम चलता था और फिल्म बनती थी। आजकल की फिल्में कैसी हैं, यह मुझे कहने की जरूरत नहीं है। न मैं ऐसी फिल्में बना सकता हूं और न ही लिख सकता हूं। ‘बाजार’ को अलग भी कर दें तो भी मेरी सभी फिल्में, चाहे वह ‘कभी-कभी’ हो, ‘सिलसिला’ हो या फिर ‘चांदनी’ सभी की कहानी गरिमापूर्ण रही है। लोग आज भी इन्हें सम्मान के साथ याद करते हैं
दरअसल सिनेमा अब निर्देशक नहीं बाजार बनाता है। बाजार की अपनी जरूरतें हैं और अपना फ्रेम। इस फ्रेम से बाहर जाकर फिल्म बनाना आसान हो सकता है लेकिन दर्शकों तक पहुंचाना नहीं। जो बिकता है, वह दिखता है। यह उनका मानना हो सकता है लेकिन सागर सरहदी का नहीं।
-आप बीते काफी समय से ‘बाजार-2’ पर काम कर रहे हैं। लेकिन क्या वजह है कि कई साल इस कोशिश में गुजार देने के बावजूद इस फिल्म का निर्माण शुरू नहीं हो सका?
-देखिए, सच तो यह है कि ‘बाजार’ हो या ‘बाजार-2’ ऐसी फिल्मों पर कोई भी प्रोड्यूसर पैसा लगाने को तैयार नहीं होता। उसके अपने कारण भी हैं। और मेरे पास पैसे नहीं हैं। कुछ समय पहले ‘चौसर’ नाम की एक फिल्म बनाई थी। उस पर मेरा करीब 60 लाख रुपए खर्च हुआ था। लेकिन वह फिल्म अब तक नहीं बिकी है। अब चूंकि कुछ उम्मीद इसलिए बंधी है कि इस फिल्म का जो नायक है- नवाजुद्दीन सिद्दीकी- वह आजकल काफी चर्चा में है। हो सकता है अब कोई इस फिल्म को खरीदने को तैयार हो जाए। बहुत कुछ इस बात पर ही निर्भर करता है।
-‘बाजार’ को लोगों ने शुरू में नकार दिया था। क्या यह सही बात है?
-जी हां, आप सही कह रहे हैं। जब मैंने ‘बाजार’ की कहानी अपनी करीबी लोगों को सुनाई तो, सभी ने- यहां तक कि इप्टा के लोगों ने भी- यही कहा कि यह फिल्म एक दिन भी नहीं चलेगी और आपका यह फ्लैट बिक जाएगा। शुरू-शुरू में यही हुआ भी। क्योंकि फिल्म बिक नहीं रही थी। लोग आते और हाथ मिलाकर हौसला अफजाई करके निकल जाते। लेकिन आगे चलकर इसी फिल्म ने सफलता के नए पैमाने गढ़े।
सच तो यह है कि बाजार बीते 30 साल से मुझे पाल रही है और आगे भी पालती रहेगी।
-आप रोमांस की फिल्में लिखने में माहिर माने जाते हैं। इसकी कोई खास वजह है? क्या आपने खुद इस शब्द को जीया है?
-देखिए साहब, 20 इश्क कर चुका हूं। इसी वजह से कभी शादी नहीं कर सका। बहुत से लोग इस बात से खुश होते हैं कि मैंने 20 इश्क किए अपने जीवन में। लेकिन वह यह कभी नहीं समझ सकते कि जब कोई प्यार करने वाला दूसरे को छोड़कर जाता है तो उसके भीतर किस तरह की हलचल होती है। उस वक्त उसका दर्द सिर्फ और सिर्फ वह लड़का ही समझ सकता है। प्रेम कहानियों पर जिन फिल्मों को मैंने लिखा है और प्रेम के साथ जो गम आप उन फिल्मों में पर्दे पर देखते हैं, वह मेरे भीतर से उपजा है। प्यार के साथ-साथ विछोह के उस गम को भी मैंने खुद जिया है…महसूस किया है।
-कभी ऐसा भी हुआ कि आपकी कहानी या स्क्रिप्ट को लोगों ने नकार दिया हो?
-‘कभी-कभी’ के फायनेंसर गुलशन ने जब यह फिल्म देखी तो, उन्होंने कहा था कि यह फिल्म दो दिन भी थियेटरों में नहीं चलेगी, क्योंकि इस फिल्म के सारे डायलाग किताबी लगते हैं। उन्होंने यश चोपड़ा को सलाह दी कि इन सभी डायलाग को हटाइए और नए सिरे से सलीम जावेद से लिखवाइए। मैं इस फिल्म को फाइनेंस करूंगा। यश जी ने मुझे बुलाया और यह बात मुझे बताई। मैंने फिल्म देखी और कहा कि हां, फिल्म में थोड़ी-सी गड़बड़ है। मैंने यश जी को कहा कि फिल्म के क्लाइमेक्स में थोड़ा बदलाव करना चाहिए। यदि ऐसा हुआ तो यह फिल्म हिंदी सिनेमा के इतिहास में मील का पत्थर साबित होगी। और यही हुआ भी। एक घटना आपको बताता हूं। एक बार में लंदन में था। वहां एक फिल्म डिस्ट्रीब्यूटर ने मुझे बताया कि जब हमारे पास कोई फिल्म नहीं होती और पैसे की जरूरत होती है तो हम ‘कभी-कभी’ फिल्म चला देते हैं।
-आप गंगा सागर तलवार से सागर सरहदी कैसे बन गए?
-मैं एटबाबाद से 25 किमी दूर एक गांव में पैदा हुआ था। हमारे घर से दो घर छोड़कर मुझसे करीब 12-13 दिन पूर्व एक और लड़का पैदा हुआ था जिसका नाम उसके घरवालों ने गंगा सागर सेठी रखा था। सेठी उनका सरनेम था। उसके बाद जब मैं पैदा हुआ तो मेरे घरवालों ने भी मेरा नाम गंगा सागर रख दिया। हमारा सरनेम तलवार है सो मेरा नाम गंगा सागर तलवार हो गया। तब हमारे पड़ोसी नाराज हो गए कि हमारा नाम चोरी करते हैं। तब यह तय हुआ कि गंगा वह ले लें और सागर हम। बाद में मुंबई आने पर जब मैंने लेखकों के नाम पर गौर किया तो पाया कि कोई फिराक गोरखपुरी है तो कोई नक्श लायलपुरी। बस मैंने सागर के साथ तलवार हटा दिया और सरहदी लगा लिया और मैं सागर सरहदी हो गया।
-विभाजन के दर्द को आपने भी सहा है। कुछ यादें साझा करना चाहेंगे?
-जैसा कि मैंने आपको बताया। मेरा जन्म एटबाबाद में हुआ। बहुत ही सुंदर इलाका है वह। मेरे पिता का ठेकेदारी का काम था। हमारे परिवार की गिनती रईस घरानों में होती थी। लेकिन विभाजन के समय हमें अपना सब कुछ छोड़कर भागना पड़ा। बंटवारे के समय हम भारत आ गए। पहले हमारा परिवार श्रीनगर रहा फिर हम लोग दिल्ली आ गए। वहां हम शरणार्थी शिविर में रहने को मजबूर हुए। हमारी शानोशौकत अब बीते वक्त की बात हो चुकी थी। एक तरह से वह भीषण तंगहाली का दौर था। जिसे याद कर आज भी मन में सिहरन पैदा होती है। मैं दिल्ली के डीएवी का एक औसत विद्यार्थी रहा हूं और नौवीं से ग्यारहवीं तक मैंने वहीं पढ़ाई की है।
-मुंबई कब आना हुआ आपका? सिनेमा की ओर झुकाव कैसे हुआ और यहां शुरुआती दौर में किन-किन लोगों का साथ मिला आपको?
-पिता विभाजन के बाद दिल्ली आने पर ज्यादा दिन तक जीवित नहीं रह सके। लिहाजा परिवार पालने की जिम्मेदारी मुझे मुंबई खींच लाई। यहां मेरे बड़े भाई अपने छह बच्चों के भरे-पूरे परिवार के साथ रहते थे। अभाव यहां भी अपने पैर पसारे हुए था। 1951 के आसपास जब मैं खालसा कालेज में था, मेरी मुलाकात गुलजार से हुई। गुलजार के साथ मुलाकात के बाद ही मेरे भीतर पढ़ने लिखने और एक तरह से कहूं तो लेखन के प्रति जिज्ञासा बढ़ी। गुलजार अच्छा बोलते थे। मुझसे अधिक पढ़े-लिखे और उर्दू के जानकार। जबकि मैं एक तरह से अनपढ़ गांव का लड़का। इसके बाद मैंने खुद को बहुत हद तक बदला। गरीबी मुझे मार्क्सवाद के करीब लाई। जीवन को एक नई दिशा मिली। साइकोलॉजी और मार्क्सवाद का मैंने बहुत गहन अध्ययन किया है। यह दोनों ही विषय मुझे बेहद पसंद भी हैं। लेकिन अब गुलजार से मुलाकात नहीं होती। उसकी दुनिया अब अलग किस्म की है और मेरी अलग। मुंबई में रंगकर्मी और नाटककार कामरेड गुरशरण सिंह के जीवन ने मुझे बहुत हद तक प्रभावित किया। जितने विलक्षण इंसान थे उतने ही गजब के नाटककार। उनका जीवन सही मायने में एक कामरेड का जीवन था। कुछ समय बाद मैंने ‘प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन’ ज्वाइन कर लिया। उस समय यहां बहुत बड़े-बड़े नाम होते थे। लेकिन मुझे जिस शख्स ने सबसे अधिक प्रभावित किया वह थे सज्जाद जहीर। उन्होंने ही मुझे कहानियां लिखने के लिए प्रेरित किया। और उनकी बदौलत ही मेरी पहली कहानी उर्दू के एक अखबार में प्रकाशित भी हुई। सिनेमा की बात करें तो इसकी चकाचौंध ने न मुझे तब आकर्षित किया था न आज ही करती है। मेरी मजबूरियों ने मेरे कदम सिनेमा की ओर बढ़ाए। परिवार चलाने की जिम्मेदारी थी और फिल्मों में लेखन पैसा कमाने का मेरा जरिया बना। हालांकि सिनेमा की दुनिया ने मुझे लोगों का बेइंतहा प्यार और शोहरत भी दी।
-फिल्म और साहित्य के रिश्ते पर कई लोगों की अलग-अलग राय है। आप क्या मानते हैं?
-मेरा मानना यह है कि साहित्य और सिनेमा का कोई बहुत गहरा रिश्ता नहीं है। सिनेमा अपने आप में एक स्वतंत्र माध्यम है। साहित्य किसी भी तरह का हो वह सिनेमा में अवरोध पैदा करता है। यदि आप यूरोप और अन्य देशों का सिनेमा देखें तो आपको इस बात का एहसास होगा। वहां कहानी इतनी महत्वपूर्ण नहीं होती। लेकिन कई बार ऐसा भी होता है कि कोई कहानी अच्छी होती है और उस पर फिल्म भी अच्छी बन सकती है। लेकिन इसके बावजूद मेरा यही मानना है कि बुनियादी तौर पर साहित्य से सिनेमा का कोई ताल्लुक नहीं है। सिनेमा स्वतंत्र विजुअल मीडिया है। यह दुख की बात है कि इस बात को हम लोगों ने आज तक महत्व नहीं दिया है।
-‘बाजार’ का एक डायलॉग है- ‘सज्जो, हम गरीब न होते तो कोई हमें अलग नहीं कर सकता था।’ क्या आप मानते हैं कि इतने सालों के बाद गरीबी आज भी प्रेम में विलगाव का कारण बनती है?
-हां, मेरा आज भी यही मानना है। चूंकि यदि दो गरीब प्रेमी आज भी आराम से साथ रह सकते हैं। वहां अलग होने का सवाल ही कहां पैदा होता है। लेकिन जहां पैसा बीच में आता है, वहां स्थिति बदल जाती है। पैसा आज भी प्यार को खदीदने की ताकत रखता है- वजह चाहे जो भी बने। ‘बाजार-2’ का तानाबाना भी कुछ ऐसे ही कथानक के इर्द-गिर्द बुना गया है।
-आपकी कहानियों का एक संकलन राजकमल प्रकाशन से ‘जीव जनावर’ के रूप में पाठकों के बीच आ चुका है। दूसरा संकलन कब आ रहा है?
-‘जीव जनावर’ संग्रह की कहानियों से कई लोग संतुष्ट नहीं हैं। इसके बाद मैंने काफी कहानियां लिखी हैं। फिल्मों में लेखन की वजह से उस ओर अधिक ध्यान नहीं दे सका। जल्द ही कहानियों की एक और पुस्तक जिसका नाम ‘शुरुआत’ है पाठकों के बीच आएगी। इसके अलावा कुछ नाटक भी हैं जो अभी प्रकाशित नहीं हुए हैं। उन्हें भी पुस्तक के रूप में सामने लाना बाकी है।
-आपने फिल्मों में संवाद और पटकथा लेखन के साथ निर्देशन भी किया है। नाटकों के मंचन में भी आप लंबे समय से सक्रिय रहे हैं। आप मूल रूप से अपने को किस रूप में देखते हैं या कि किस विधा में सहज महसूस करते हैं?
-मूल रूप से मैं अपने को एक लेखक ही मानता हूं। मेरी दिली तमन्ना भी यही है कि आने वाली पीढि़यां मुझे इसी रूप में जानें। फिल्मों में लेखन से मुझे पैसा और शोहरत तो मिलती है, लेकिन आत्मसंतुष्टि नहीं। मेरे भीतर का लेखक मुझे बार-बार कचोटता है। मेरे भीतर बहुत कुछ है, जो हिलोरें मार रहा है। उसे लोगों के सामने लाना चाहता हूं। ‘बाजार-2’ के बाद मैं फिल्मों की बजाय अपना ध्यान लेखन पर ही लगाऊंगा।
साक्षात्कारकर्ता पत्रकार अनिल अत्रि से संपर्क anil.attri1@gmail.com के जरिए किया जा सकता है.