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बेटा बनना तो बस किक्रेटर बनना!

बड़ा होकर तुम क्या बनोगे, जैसे सवाल जैसे हमारे लिए बने ही नहीं थे। क्योंकि हम अपने पैरेंटस के लिए लायबलिटीज या थोड़ा शालीन शब्दों में कहें तो हेल्पिंग हैंडस जैसे थे। स्कूल में पढ़ने के दिनों से हमें माता-पिता का सहारा बनने की सलाह लोगों से बिना मांगे मुफ्त में मिलती थी। कारोबार में मजा, नौकरी में सजा का मूलमंत्र देते हुए स्व. पिताजी बचपन से ही हमें उदाहरण देकर बताते थे कि किस तरह मोहल्ले के ननकू चाचा ने नमक और पुत्तन मामा ने परचून की छोटी सी दुकान के सहारे तीन बहनों और चार बेटियों को पार (शादी) किया। तब हम जैसे अभागे कैरियर नाम की चिड़िया को जानते तक नहीं थे। 
बड़ा होकर तुम क्या बनोगे, जैसे सवाल जैसे हमारे लिए बने ही नहीं थे। क्योंकि हम अपने पैरेंटस के लिए लायबलिटीज या थोड़ा शालीन शब्दों में कहें तो हेल्पिंग हैंडस जैसे थे। स्कूल में पढ़ने के दिनों से हमें माता-पिता का सहारा बनने की सलाह लोगों से बिना मांगे मुफ्त में मिलती थी। कारोबार में मजा, नौकरी में सजा का मूलमंत्र देते हुए स्व. पिताजी बचपन से ही हमें उदाहरण देकर बताते थे कि किस तरह मोहल्ले के ननकू चाचा ने नमक और पुत्तन मामा ने परचून की छोटी सी दुकान के सहारे तीन बहनों और चार बेटियों को पार (शादी) किया। तब हम जैसे अभागे कैरियर नाम की चिड़िया को जानते तक नहीं थे। 
 
किशोरावस्था से ही हम जाड़े के दिनों में कुछ संभ्रांत घर के लड़कों को सादे लिबास में मैदान में क्रिकेट खेलते देखा करता था, लेकिन तब हमें यह बड़े घर के लोगों का चोंचला नजर आता था। तिस पर कोढ़ में खाज की तरह जिस उम्र में लड़कों को बीड़ी -सिगरेट की लत लगती है, हमें लेखन की बुरी लत गई। थोड़ी सफलता मिलने पर यह हमारे लिए शौक से बढ़ कर नशा बन गया। अपन जिस सोसाइटी को बिलांग करते हैं, वहां खाकी देखते ही लोगों की कंपकपी छूटने लगती थी। हमें लगा कि यदि हम किसी ऐसे पेशे को अपना लें जिसके जरिए अपनी पुलिस वालों से गलबहियां यारी हो जाए, तो इससे अच्छी बात और क्या हो सकती है। बस फिर क्या था, नशा से पेशा बना लेखन मजबूरी में तब्दील हो गया। कुढ़ते हुए जीवन व्यतीत होने लगा। इस बीच एक संतान को हमने इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने की अनुमित यह सोचकर दे दी कि अपनी जिंदगी तो बर्बाद हो गई, भावी पीढ़ी यदि गलती सुधार ले, तो अच्छा रहेगा। लेकिन भारी कर्ज के दलदल में फंस कर अब हालत न निगलते बने, न उगलते वाली हो गई है। 
 
जेब से कड़का और अनुभव की पूंजी की गठरी सिर पर ढोते हुए अब मैं भावी पीढ़ी को यही मूलमंत्र देना चाहता हूं कि वह बड़ा होकर वह डाक्टर, इंजीनियर, साहित्यकार, कवि, लेखक, सैनिक, वैज्ञानिक व कलाकार आदि कुछ भी बनने की न सोचें। बनें तो बस किक्रेटर बनें। हमसे तो बचपन में किसी ने बड़ा होकर क्या बनोगे जैसा सवाल पूछा नहीं। लेकिन हम हर किसी से यह सवाल करेंगे। जिस तरह हमें बचपन में मुफ्त की सलाह दी जाती थी। अब हम भावी पीढ़ी को उसी तर्ज पर सलाह देते रहेंगे, कि बनें तो बस किक्रेटर बनें. दूसरी प्राथमिकता नेतागिरी या अभिनेतागिरी को दें। कैसी नासमझी है कि जिस देश की धरती पर सचिन तेंदुलकर, अमिताभ बच्चन, सलमान खान, शाहरुख खान व आमिर खान जैसी विभूति जन्म लेते हैं, वहां लोग महंगाई, गरीबी, बेरोजगारी, आतंकवाद, नक्सलवाद व वगैरह-वगैरह का रोना रोते हैं। सचमुच इस देश का भगवान ही मालिक है।
 
         लेखक तारकेश कुमार ओझा दैनिक जागरण, कोलकाता से जुड़े हैं. इनसे संपर्क 09434453934 पर किया जा सकता है.
 

 

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