मौजा मुकबा, डाकखाना हर्षिल, तहसील भटवारी जिला उत्तरकाशी। यह एक पहचान है उस गांव की जो भारत का आखिरी गांव है। यहां से थोड़ा ऊपर चढऩे पर नेलांग चौकी है जहां से चीन की सीमा शुरू हो जाती है। इस मुकबा में सेब के बगीचे हैं और नीचे हर हर बहती भागीरथी नदी। लेकिन इस गाँव की एक और पहचान है कि यह गंगोत्री मंदिर के पुरोहितों यानी सैमवाल ब्राह्मणों का गांव है और ये इतने जिद्दी और अहंकारी होते हैं कि न तो सरकार की परवाह करते हैं न किसी सेठ साहूकार की।
उनका कहना है कि उनकी रक्षक और पालनकर्ता वह गंगा मां है जो समूचे विश्व में अकेली जीवित देवता है। ये गंगोत्री मंदिर के पुजारी हैं और दीवाली के अगले रोज ये गंगा जी का कलेवर गंगोत्री से 25 किमी नीचे मुकबा में ले आते हैं। फिर आखा तीज तक गंगा जी यहीं बिराजती हैं। चूंकि यहां कोई श्रद्धालु नहीं आता इसलिए यहां पूजा अथवा अर्चना का कोई समय नहीं है जब पुजारी जी जागे तभी सबेरा। जब 31 दिसंबर की शाम को मैं मुकबा पहुंचा तो पुजारी जी नाइट गाऊन पहने आरती कर रहे थे। जजमान के आते ही उनका सुर तेज हो गया पर बेचारों को गंगा लहरी नहीं याद थी इसलिए उसका स्तवन मुझे करना पड़ा। यहां तक कि आचार्य शंकर के गंगा स्त्रोत का पाठ भी मैने ही किया। लेकिन मेरे ठहरने के लिए जिन पुजारी जी के काठ का आवास मिला उस पर संवत 1846 खुदा था यानी ईस्वी सन् 1789। सवा दो सौ साल पुराने आवास पर रुकने का रोमांच और साहस भी गजब था।
शाम को स्नो फाल शुरू हो गया। बर्फानी हवाओं के शोर में ऐसी कड़ाके की ठंड थी कि बस पूछिए मत। इस काठ के घर से दूर एक कोने में कुछ कबाड़ घेर कर बनाए गए टायलेट में जब मैं अलस्सुबह निवृत्त होने को गया तो देखा कि उस टायलेट में छत तो है ही नहीं। जीवन में शायद पहले दफे खुले आसमान से झरती बर्फ के बीच और उसी के सहारे निपटा। पर एक जनवरी को जब मैं नीचे जाकर भागीरथी के निर्मल और निरंतर प्रवाहमान जल में नहाया तो मुँह से फूट पड़ा-
देवि सुरेश्वरि भगवति गंगे, त्रिभुवनतारणि तरल तरंगे।
शंकर मौलि विहारणि विमले, मम मति रास्तां तव पद कमले।।
कई अखबारों के संपादक रहे वरिष्ठ पत्रकार शंभूनाथ शुक्ला के फेसबुक वॉल से.