काफी दिनों बाद मैं अपने गांव गया था। गांव बदलने के साथ रहन-सहन भी बदलने लगा है। पेशे का स्वरूप भी बदला है। पहली बार नहर किनारे भैंस चरा रहे चरवाहे के हाथ में उसी दिन का अखबार देखा। बातचीत हुई तो उसने कहा कि भैंस को लेकर नहर तरफ आ रहे थे तो हॉकर अखबार दे दिया सो लेकर इधर ही चला आया। वह चरवाहा भी गांव-जवार की खबरों से अपडेट रहना चाहता है।
तेज धूप थी सो एक पेड़ के नीचे बैठ कर सुस्ताने लगा। इस दौरान एक बात दिमाग में घूम रही थी कि भैंस की चरवाही और अखबार की नौकरी में क्या अंतर है? काफी उधेड़बुन के बाद बात समझ में आयी कि दोनों में तो कोई अंतर ही नहीं है।
सबसे बड़ी समानता है कि दोनों के काम में ज्ञान के स्तर पर भले असमानता हो, लेकिन विवेक की कोई जरूरत नहीं है। यहां सिर्फ सिस्टम काम करता है। सिस्टम से हटे तो अप्रांसगिक हो जाएंगे। जैसे नांद में गवत देना है तो पहले कुटी डालें, उसके ऊपर पानी डालें और उसके बाद खरी या अन्य पौष्टिक आहार डाल सकते हैं। भैंस से ज्यादा प्यार है तो खरी के साथ गुड़ भी दे सकते हैं। उसी प्रकार अखबार में खबरों की प्राथमिकता तय होती है। बड़ी खबर होगी तो ऊपर होगी, हेडिंग मोटी होगी। खबरों की महत्ता के हिसाब से उसका स्थान भी नीचे चला जाता है। अगर आप संवाददाता हैं तो आप पर इस बात का दबाव होगा कि जो खबर महत्वपूर्ण है, उसे पहले लिखिए।
भैंस की तरह खबरों की भी कीमत होती है। दोनों की कीमत खरीदने वाला ही तय करता है। बारगेनिंग दोनों में तय है। दोनों बाजार की चीज हैं। बाजार का नियम यहां भी चलता है। दोनों में एक अंतर यह है कि भैंस के साथ पगहा भी मिलता है, लेकिन अखबार के बाजार में अखबार के साथ गिफ्ट नहीं मिलता है, बल्कि अब गिफ्ट के साथ अखबार मिलता है।
समानता और अंतर बहुत सारे हो सकते हैं। पार्टियों के तरह आप भी मंथन कर सकते हैं तो कुछ अमृत या विष और भी निकल सकते हैं। आपके मंथन का इंतजार रहेगा।
लेखक बीरेन्द्र कुमार यादव पत्रकार हैं. उनसे सम्पर्क [email protected] के जरिए किया जा सकता है.