भोपाल। अखिरकार मध्यप्रदेश सरकार ने चुनावी वर्ष में प्रदेश के बुजुर्ग पत्रकारों को श्रद्धानिधि दे ही दी। लेकिन शासन की इस योजना का लाभ पाने में वस्तिवक पत्रकारों का हक मारने में फर्जी पत्रकारों ने बाजी मार ली। ऐसा शासन की गलत नीति के कारण संभव हो सका। सवाल यह है कि श्रद्धानिधि किसको? शासन की मंशा आर्थिक रूप से कमजोर पत्रकारों को आंशिक राहत पहचाने की थी, वो भी ऐसे पत्रकारों को जो सेवानिवृत्त होने के बाद काम करने की स्थिति में नहीं है या घर बैठ गए हैं।
लेकिन श्रद्धानिधि प्राप्त करने वाले पत्रकारों की सूची देख कर ऐसा लगता है कि सरकार ने अडि़बाजी करने वाले लोगों को ही योजना का लाभ पहुंचाने में मदद की है।
पांच हजार रूपए प्रतिमाह पाने वाले नब्बे पत्रकारों की सूची में अधिकतर ऐसे लोगों के नाम है जो पत्रकारिता को रंडी बना कर अपनी उंगलियों पर नचा रहे है और वर्षों से चांदी कूट रहे हैं। कोई वेबसाईट बनाने के नाम पर, तो कोई फिचर के नाम पर, तो कोई पत्रिका निकाल कर, तो कोई अखबर निकाल कर, तो कोई स्मारिका निकाल कर, तो कोई पत्रकारों के संगठन के नाम पर सरकारी माल पर डांका डाल रहा है। सरकारी धन की इस लूट-खसोट के लिए जितने जिम्मेदार यह ठग पत्रकार हैं उतने ही जिम्मेदार इस निति को बनाने वाले लोग भी है।
नीति ही कुछ ऐसी बनी है कि बिना फर्जीवाड़ा किए योजना का लाभ नहीं उठाया जा सकता, यही कारण है कि फर्जीवाड़ा करने में माहिर तथाकथित पत्रकार योजना के लाभ उठाने में सफल हो गए और पात्र पत्रकार योजना का लाभ उठाने से वंचित रह गए हैं। जबकि नियम अनुसार एक व्यक्ति एक साथ दो-दो सरकार लाभ नही ले सकता और यह ठग पत्रकार एक साथ कई लाभ लेकर शासन के साथ ठगी कर रहे हैं। यही नहीं नियम अनुसार श्रद्धानिधि पाने वाले पत्रकार आयकर दाता नहीं हो सकते लेकिन सूची में आयकर दाताओं की भरमार है। योजना के क्रयान्वयन के बाद योजनाओं का ढ़ीडोरा पीटने वाली सरकार ने जिस प्रकार से इस योजना को लेकर खामोशी की चादर ओढि़ है उससे सरकार की नियत में खोट नजर आ रहा है।
पत्रकारिता जैसे पवित्र पेशे को रंडी बनाने वालों से कोई यह क्यू नहीं पूछता की जब तम्हें धंधा ही करना है तो चकला घर क्यों नही खोल लेते इस पवित्र पेशे को बदनाम मत करों। अंधा पीसे कुत्ते खाएं वाली कहावत मध्यप्रदेश में सटीक बैठती है।
भोपाल से अरशद अली खान की रिपोर्ट.