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सुख-दुख...

मालिक के लिए लॉबिंग करने वाला अब बड़ा पत्रकार है

एक जमाना था जब मीडिया को समाज का दपर्ण कहा जाता था। जनता को समाज में हो रहे प्रत्येक छोटे-बड़े, अच्छे-बुरे बदलाव की जानकारी देना, पत्रकार का मिशन होता था। यह वह दौर था जब पत्रकारिता पैसा कमाने का माध्यम न होकर समाज सेवा का मिशन हुआ करता था। वे लोग ही पत्रकारिता में आते थे जिनमें सत्ता की खामियों को उजागर करने, नौकरशाहों के कारनामों की पोल खोलने और गुंडे-बदमाशों के खिलाफ लिखने और बोलने की ताकत एक जुनून की तरह होती थी। कंधें पर थैला, पैरों में मामूली सी चप्पल, मोटा पहनावा (अक्सर खादी का कुर्ता-पैजामा या फिर छोती-कुर्ता) और पैदल भ्रमण या फिर बहुत हुआ तो साइकिल की सवारी, पत्रकारों की मुफलिसी का दौर कभी खत्म नहीं होने वाला सिलसिला हुआ करता था।

एक जमाना था जब मीडिया को समाज का दपर्ण कहा जाता था। जनता को समाज में हो रहे प्रत्येक छोटे-बड़े, अच्छे-बुरे बदलाव की जानकारी देना, पत्रकार का मिशन होता था। यह वह दौर था जब पत्रकारिता पैसा कमाने का माध्यम न होकर समाज सेवा का मिशन हुआ करता था। वे लोग ही पत्रकारिता में आते थे जिनमें सत्ता की खामियों को उजागर करने, नौकरशाहों के कारनामों की पोल खोलने और गुंडे-बदमाशों के खिलाफ लिखने और बोलने की ताकत एक जुनून की तरह होती थी। कंधें पर थैला, पैरों में मामूली सी चप्पल, मोटा पहनावा (अक्सर खादी का कुर्ता-पैजामा या फिर छोती-कुर्ता) और पैदल भ्रमण या फिर बहुत हुआ तो साइकिल की सवारी, पत्रकारों की मुफलिसी का दौर कभी खत्म नहीं होने वाला सिलसिला हुआ करता था।

वर्षों तक पत्रकारों की यही पहचान रही। जब कोई नौजवान पत्रकार बनने की चाहत में सम्पादक के पास दस्तक देता तो सम्पादक जी एक ही रटी-रटाई बात ऐसे नौजवानों से कहते थे, पैसा कमाना है तो कई क्षेत्र हैं। पत्रकारिता से तो अक्सर दो जून की रोटी भी नहीं नसीब होती है। वह पत्रकारिता के क्षेत्र में पर्दापण करने की चाहत रखने वाले युवाओं को तमाम ऐसे नामी-गिरामी पत्रकारों के नाम भी गिना देते थे, जिनकी लेखनी में तो गजब की ताकत थी, लेकिन जब वह मरे तो उनके पास से कफन खरीदने लायक पैसे भी नहीं निकले। देश की आजादी में जितना योगदान क्रांतिकारियों और आजादी के मतवालों का था, उतना ही योगदान पत्रकारों का हुआ करता था।

यह वह दौर था जब सम्पादक के कंधों पर मिशन पत्रकारिता को आगे बढ़ाने का जिम्मा होता था। अखबार की दुनिया में संपादक के ऊपर किसी की हैसियत नहीं होती थी, वह अखबारी दुनिया का भगवान होता था। विज्ञापन कर्मी भले ही अखबारों के लिए पैसा कमा कर लाते थे लेकिन आज की तरह उनकी खबरें छपवाने या रूकवाने की हैसियत नहीं होती थी। विज्ञापन कर्मी ही नहीं खबरों के मामले में मालिकों तक का हस्तक्षेप नहीं चलता था। सम्पादकीय विभाग को काम करने की पूरी छूट मिली हुई थी। मीडिया का एक चरित्र होता था। यह दौर आजादी के बाद काफी लम्बा तो नहीं चला फिर भी इस दौर को पत्रकारिता का सुनहरा युग कहा जा सकता है।

अस्सी के दशक के बाद से समाचार पत्र व्यवसाइयों के कब्जे में आ गए, तब से मालिक या तो स्वयं या उनका कोई चहेता संपादक बनने लगा। इससे पहले तक मीडिया के क्षेत्र में उन्हीं लोगों की दखलंदाजी रही जो खालिस पत्रकार थे और पत्रकारिता के लिए ही पैदा हुए थे। इसमें एम चेलापति राव, के रामाराव, सी एन चितरंजन, योगेन्द्रपति त्रिपाठी, अशोक जी, कृष्ण कुमार मिश्रा, भानू प्रताप शुक्ल, बचनेश त्रिपाठी, अखिलेश मिश्र, विद्या भाष्कर, चन्द्र कुमार, इशरत अली सिद्दीकी, लक्ष्मी कांत तिवारी, सुरेन्द्र चतुर्वेदी, विशन कपूर, तरूण कुमार भादुड़ी, एस सी काला, सत्यनारायण जायसवाल, ललित रायजादा, सियाराम त्रिपाठी, एसपी निगम, एस के त्रिपाठी, सत्येन्द्र शुक्ला, कुंवर राज शंकर, वीके सुभाष, विद्या सागर, जैसे तमाम नाम अपने संपादकीय और बेबाक लेखन के लिए आज भी याद किए जाते हैं। इनमें से कई की मौत हो चुकी है तो बचे लोगों ने उम्र के बढ़ते प्रभाव या अन्य कारणों से अपने को पत्रकारिता से लगभग अलग-थलग कर लिया।

इसके बाद से पत्रकारिता में गिरावट का जो सिलसिला शुरू हुआ वह थमने का नाम नहीं ले पाया। पत्रकारिता पीछे छूटती गई और पत्रकार आगे बढ़ते गए। पत्रकारिता मिशन की जगह व्यवसाय बन गया। बड़े-बड़े औद्योगिक घरानों ने मीडिया को पैसा कमाने का हथियार बना लिया। खबरें सेंसर होने लगी और सम्पादक की कुर्सी पर कारपोरेट जगत के लोगों का आधिपत्य हो गया। मालिकों की मीडिया के माध्यम से पैसा कमाने की चाहत ने अखबारी दुनिया ही बदल दी। पत्रकारों का ध्यान लिखने-पढ़ने से अधिक इस बात पर रहता है कि कैसे नेताओं और सत्ता से नजदीकियां बढ़ाई जाएं। हाल की ही घटना है। समाजवादी सरकार बनी तो तथाकथित एक पत्रकार ने डेढ़ लाख रुपए से अधिक के लड्डू बांटे। डिब्बे के ऊपर एक स्टीकर चिपका था, जिस पर लिखा था, ‘प्रदेश में साठ वर्षों बाद सपा की ऐतिहासिक विजय, प्रदेश की बहू माननीय डिंपल यादव पत्नी माननीय अखिलेश यादव, मुख्यमंत्री उत्तर प्रदेश की अभूतपूर्व जीत की खुशी में मुबारकबाद।’ सौजन्य से में पत्रकार का नाम और मोबाइल नंबर छपा हुआ था, ऐसी हरकत करने वाले को पत्रकार नहीं दलाल ही कहा जा सकता है। हास्यास्पद बात यह है कि यही पत्रकार विधान सभा चुनाव 2012 में उत्तर प्रदेश कांग्रेस की अध्यक्षा और कैंट विधान सभा क्षेत्र लखनऊ से चुनाव जीतने वाली रीता बहुगुणा जोशी की जीत के बाद उनकी गाड़ी पर नजर आए थे और तब भी मिठाई बांट का पत्रकारिता को कलंकित किया था।

आज समाज में मीडिया का दोहरा चरित्र साफ दिखाई देता है। मीडिया पर बाजारवाद हावी है। जो खबर बिकती है, मीडिया उसी को परोसना चाहता है। हाई प्रोफाइल खबरों को बेचा जाता है। दलितों, किसानों, गरीबों, असहायों और अकाल मौतों जैसी ही तमाम खबरें दबा दी जाती हैं। कई बड़े अखबार उद्योगपतियों की छत्रछाया में चल रहे हैं। कहने को तो लखनऊ अखबारों का शहर बनता जा रहा है। जहां कभी मुट्ठीभर पत्र-पत्रिकाएं थीं, अब अखबारों की झड़ी लगी हुई है। अच्छे कलेवर के कई अखबार बाजार में आ गये हैं। विज्ञापन के लिए होड़ मची है। पत्रकारिता और विज्ञापन एक-दूसरे के पूरक हो गए हैं। पत्रकारों के पास एक दूसरे का दुखदर्द बंटाने के लिए न तो मौका है, न ही मौका पड़ने पर हजारों की संख्या में धरना प्रदर्शन पर बैठकर सरकार या संस्थान से अपनी मांगें मनवाने की ताकत है। पत्रकार जातियों के साथ-साथ वर्ग और सम्प्रदायों में विभाजित होकर रह गए हैं। सब अपने हित साधने में लगे हैं। कुछ समय पूर्व प्रेस कांउसिल के अध्यक्ष मार्कंडेय काटजू लखनऊ पधारे। उनके सामने ही दो पत्रकारों के बीच आरोप-प्रत्यारोप का दौर शुरू हो गया। बात इतनी आगे निकल गई की मारपीट की नौबत हा गई। तब एक सम्प्रदाय विशेष के पत्रकारों ने एकजुट होकर अखिलेश सरकार के अपने ही सम्प्रदाय के एक ताकतवर मंत्री का सहारा लेकर तत्कालीन सूचना निदेशक को पद से हटवा दिया।

अब अच्छा लिखने वाला पत्रकार बड़ा पत्रकार नहीं समझा जाता है। बड़ा पत्रकार वह है जो अपने मालिक के लिए लाबिंग कर सके। ऐसे पत्रकारों के पास बढ़िया वेतन और बढ़िया कार ही नहीं रहने के लिए आलीशॉन मकान भी होते हैं। असली पत्रकार आज भी तंगहाली में हैं। इलेक्ट्रानिक मीडिया के आने के बाद तो स्थिति और भी खराब हो गई है। खबर दिखाने और रोकने के लिए पैसे लिए जाते हैं। इलेक्ट्रानिक मीडिया के कुछ पथभ्रष्ट पत्रकारों-कैमरामैनों तथा सरकारी कर्मचारियों के गठजोड़ द्वारा लोगों को भयभीत करके उनसे उगाही का धंधा भी कई शहरों में धड़ल्ले से चल रहा है। ऐसे पत्रकारों को कहीं उल्टा-सीधा काम होने की भनक भर लग जाए, वह वहां धमक पड़ते हैं, लेकिन मकसद खबर एकत्र करने से अधिक पैसा कमाना होता है।
पत्रकारों और सरकारी कर्मचारियों का गठजोड़ कैसे काम करता है इसको हाल ही की एक घटना से समझा जा सकता है। राजधानी लखनऊ के एक पॉश कालोनी में एक जगह निर्माण कार्य चल रहा था, एक कैमरामैन और पत्रकार वहां आ धमके, आनन-फानन में वीडियो फिल्म बनाई और चलते बने। थोड़ी ही देर बाद निर्माण कार्य करा रहे व्यक्ति के पास संबंधित विभाग के सरकारी मुलाजिम का फोन आता है कि आप के अवैध निर्माण कार्य की खबर चैनल पर दिखाई जाने वाली है। निर्माण कार्य कराने वाला व्यक्ति डरकर सेटिंग-गेटिंग में लग जाता है। फिर पत्रकारों और सरकारी मुलाजिमों का गठजोड़ सामने वाले की हैसियत देखकर उसकी जेब ढीली करा लेता है। कई पत्रकार तो गुनाहागारों को शरण देने में भी आगे रहते हैं। आज की तारीख में पत्रकारों का मिशन जलवा जमाना और पैसा कमाना हो गया है। पत्रकारों के लिए बड़ी मुश्किल से योजनाएं बन पाती हैं। उन पर भी कुछ स्वार्थी किस्म के पत्रकार कुंडली मारकर बैठ जाते हैं।

कुछ पुराने पत्रकारों की कर्मठता के चलते ही जर्नलिस्ट वेलफेयर सोसाइटी का गठन कर वृद्धावस्था पेंशन का लाभ दिला दिया है। वे सचमुच साधुवाद के पात्र हैं। उन्हीं के बदौलत पत्रकारपुरम जैसी कालोनियां बसी हैं। वरिष्ठ पत्रकारों की इस सोच को अब आगे बढ़ाने के लिए शायद किसी के पास समय नहीं रह गया है। पत्रकारिता के लिए यह विडंबना ही कही जाएगी, इस क्षेत्र में एक से बढ़कर एक कलमकारों ने अपनी जगह बना रखी है। जो जहां है, वही अपने को बहुत कुछ समझ रहा है। यह परम्परा पत्रकारों की तरक्की के लिए विष बेल साबित हो रही है। मजदूर संगठनों का फैक्ट्रियों आदि में एकजुटता के कारण ही हर वह सुविधा प्राप्त होती है, जो उनके बुरे समय में उनके काम आती है। लेकिन अखबार नवीसों की दुनिया में अधिकतर लोग ‘हैंड टु माउथ‘ ही बने रह जाते हैं। बीमा राशि पाने के लाले पड़ रहे हैं। पत्रकारों की आपसी अहं के कारण ही बीमा के लिए सरकार से दी जाने वाली राशि को इसलिए नहीं बढ़वा पाते हैं कि उनके अलावा इस कतार में कोई दूसरे न आ जाएं। इसमें उनका क्या नुकसान है। जो दूसरे पत्रकारों को अपनी लाइन में खड़े ही नहीं होने देना चाहते है।

पत्रकारों की खामियों की बात की जाए तो कुछ अपवादों को छोड़कर अस्सी या फिर नब्बे प्रतिशत पत्रकार समाज के प्रति अपने दायित्वों को भूलकर स्वयं के स्वार्थ पूरे करने में लगे हैं। कोई सपा के करीब है तो कोई बसपा के या फिर कांग्रेस या भाजपा के। हाथ में कलम या फिर कैमरा आते ही ऐसे पत्रकार लॉबिग और ट्रांसफर-पोस्टिंग जैसे कामों में लग जाते हैं। हकीकत से अलग स्टोरी प्लांट की जाती है। पत्रकारिता एक ऐसा व्यवसाय था जिसमें वर्षो तक गुरु-शिष्य परंपरा का पालन हुआ। वरिष्ठता का ध्यान रखा जाता था, लेकिन आज छोटे-बडे़ का कोई सम्मान नहीं रह गया है। पत्रकारिता में प्रवेश करने वाली नई पौध अपने से अनुभवी पत्रकारों से कुछ सीखना ही नहीं चाहती है, यही वजह है अक्सर नए रिपोर्टर हंसी का कारण बन जाते हैं।

लखनऊ से वरिष्ठ पत्रकार अजय कुमार की रिपोर्ट. अजय ‘माया’ मैग्जीन के ब्यूरो प्रमुख रह चुके हैं. वर्तमान में ‘चौथी दुनिया’ और ‘प्रभा साक्षी’ से संबद्ध हैं.

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