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मीडिया में तरुण तेजपाल वाली बीमारी पहले भी थी और आज भी है

: पत्रकारिता के कुछ रोचक प्रसंग : झंड हो गया मैनेजर : शाह टाइम्स में एक जी. एम. साहब थे सब उन्हें ऐसा ही कहते थे। वह हमेशा अखबार में खामियां खोजते रहते थे जो उन्हें कम ही मिलती थीं। पोटो अध्यादेश संसद में कानून बन कर पोटा हो गया था. किसी के पोटा में बंद होने की खबर पहले पेज पर छपी थी जीएम साहब उस दिन काफी जोश में थे कार्यालय आते ही वह संपादकीय विभाग में आए और घुसते ही बोले डाक्टर साहब बड़ी बदनामी हो रही है। आपने पोटो को पोटा लिख दिया। मेरे पास बैठे सहयोगी ने कुछ कहना चाहा मगर मैने उस का पैर दबाकर शांत कर दिया मेरी खामोशी से जीएम का हौसला बढ़ा और वह बड़बड़ाता निकल गया कि अखबार का सत्यानाश कर रखा है।

: पत्रकारिता के कुछ रोचक प्रसंग : झंड हो गया मैनेजर : शाह टाइम्स में एक जी. एम. साहब थे सब उन्हें ऐसा ही कहते थे। वह हमेशा अखबार में खामियां खोजते रहते थे जो उन्हें कम ही मिलती थीं। पोटो अध्यादेश संसद में कानून बन कर पोटा हो गया था. किसी के पोटा में बंद होने की खबर पहले पेज पर छपी थी जीएम साहब उस दिन काफी जोश में थे कार्यालय आते ही वह संपादकीय विभाग में आए और घुसते ही बोले डाक्टर साहब बड़ी बदनामी हो रही है। आपने पोटो को पोटा लिख दिया। मेरे पास बैठे सहयोगी ने कुछ कहना चाहा मगर मैने उस का पैर दबाकर शांत कर दिया मेरी खामोशी से जीएम का हौसला बढ़ा और वह बड़बड़ाता निकल गया कि अखबार का सत्यानाश कर रखा है।

अपने केबिन में बैठा वह इसी पर चर्चा करता रहा। सहयोगी ने पूछा तो मैने कहा इसे बकने दो आज मीटिंग में इसकी फीत उतारनी है। शाम को मीटिंग हुई तो जीएम ने पहले यही मामला उठाया। मैने पूछा मिस्टर जीएम आप कहां तक पढे हैं। जीएम बोला ग्रेजुएट हूं। मैने पूछा तो फिर आप अध्यादेश यानि आर्डीनेंस और एक्ट यानि कानून के बारे में भी जानते होंगे। अब मैनेजर थोड़ा परेशान सा दिखा तो मैं बोला मिस्टर जीएम पहले आर्डीनेंस था तो पोटो कहते थे अब एक्ट बन गया है तो पोटा कहते है। आप अपनी जानकारी ठीक रखा करें यूं ही बड़ बड़ करने से आप विद्वान नही बन जाएंगे। यह सब सुनकर मैनेजर झंड हो गया अंत में मैने कहा कि भविष्य में आप सोच समझ कर बोला करें मैं दिन भर इस लिए शांत रहा कि शायद आप को समझ आ जाए मगर आप तो निरे मूर्ख साबित हुए।

डरपोक संपादक जी: हिंदी के साथ साथ उर्दू में भी लिखना आरंभ किया था। 80 के दशक में अलजमीयत दैनिक उर्दू का एक लोकप्रिय अखबार था। गांव में रहने वाले मुसलमानों की समस्याओं पर मैने पांच लेख तैयार कर संपादक को दिए संपादक को लेख पसंद आए और उन्होंने सप्ताह में एक लेख छापना आरंभ कर दिया मगर दो सप्ताह बाद जब लेख नहीं छपा तो मैं संपादक से मिला। संपादक जी ने लेख लौटाते हुए अपनी परेशानी बताई कि यहां आस-पास के कुछ लोग नहीं चाहते कि आप के लेख इस अखबार में छपें। आखिर इनमें आपत्तिजनक क्या है यह पूछने पर उन्होंने कहा कि आपत्तिजनक कुछ नहीं है मगर ये लोग जो यहीं आस-पास रहते हैं आप के विरोधी हैं। ये आप की बिरादरी का मामला है। इन्होने मेरा घेराव कर दिया था मुझे मजबूरन इनकी बात माननी पड़ी मै नहीं मानूंगा तो ये लोग मैनेजमेंट के पास चले जाएंगे। इसका मतलब आप तो इन लोगों से डर गए। यही मान लीजिए संपादक जी ने कहा मुझे अफसोस है कि मै चाहते हुए भी आप के लेख नहीं छाप सका। इस के बाद कहने को कुछ नहीं रहा सो मैं चला आया और लेख एक अन्य अखबार को दे दिए।

संपादक जो झेला न गया: एक थे नवाबजादे बुलंदशहर जिले के एक नवाब के साहबजादे थे। इन्होंने अपना धर्म परिवर्तन कर देहरादून की एक सम्पन्न एवं लावारिस हिंदू विधवा से शादी कर ली और देहरादून में ही बस गए। आर्य समाज का अध्ययन अच्छा था सो इसके विभिन्न समारोहों में भाषण देने जाने लगे। पता नहीं किस तिकड़म से देहरादून में शाह टाइम्स के स्थानीय संपादक बन गए। संपादक बनते ही इन्होने एक पर्व पर अपनी लंबी शुभ कामना भेजी। इन्हें बताया गया कि संपादक इतनी लंबी शुभकामना नहीं दिया करते। ऐसे अवसरों पर अखबार में संपादक की ओर से शुभ कामना का संदेश दो तीन लाइन में दे दिया जाता है मगर इन की समझ में बात नहीं आई। मैने इनकी शुभकामना छापने से इंकार कर दिया तो शिकायत ले कर शाहनवाज राणा के पास चले गए मगर उन्होंने भी मुझ से बात करने को कह दिया तो मन मार कर बैठ गए। इस के बाद वह नेताओं की भांति बयान जारी करने लगे इस बारे में भी उन्हें समझाया मगर नहीं माने और मुझपर आरोप लगाने लगे कि मैं नहीं चाहता कि लोग उन्हें जाने। मेरा जवाब था कि प्रिंटलाइन में नाम तो छपता है। अगर किसी अन्य संपादक का बयान छपता हो तो उनका भी छापा जा सकता हैं उन की इन हरकतों से अखबार के मालिक शाहनवाज राणा भी तंग आ गए और एक महीना बाद उन्हें चलता कर दिया। काफी दिन बाद देहरादून के एक सहयोगी से बात कर रहा था तो इनके बारे में भी मालूम करने लगा, पता चला कि श्रीमान कॉल गर्ल्स का रैकेट चलाने के आरोप में जेल की हवा खा रहे हैं।

पता नही चाय में क्या डाला था: देहरादून में ही एक सज्जन थे। अखबार में विज्ञापन और खबर दोनों में दखल रखते थे सहयागियों को टार्चर करना इन की आदत में शुमार था। मैने देहरादून जा कर इन्हें खबरों से अलग कर विज्ञापन का काम देखने को कहा तो मेरे सामने बाधाएं पैदा करने लगे। मैने इन्हें बता दिया कि मैं एक दो महीने ही यहां हूं उस के बाद मुझे मुरादाबाद जाना है। मेरे यहां आने से सारा स्टाफ बहुत प्रसन्न था। इनके साथ एक लड़का रहता था जो अखबार का काम कम करता था और इनके लिए जासूसी अधिक करता था। एक लड़का चाय बना कर हमें तथा इस भवन में काम कर रहे अन्य कार्यालयों में चाय देता था। एक दिन चाय मेरे सामने आई तो उस में अजीब सी गंध मैने महसूस की। मैने चाय एक ओर रख दी तो कार्यालय वाला लड़का सहम गया मैने चाय वाले को बुला कर पूछा कि आज चाय में क्या डाला है उस लड़के ने बताया कि उसे तो सर जी ने नीचे से बिस्कुट का पैकेट लाने भेज दिया था चाय इस लड़के ने बनाई है उसके इतना कहते ही वह लड़का मेरे सामने से चाय उठा कर एक दम गटक गया। इसके साथ ही वह लड़का और उस का बॉस दोनो उठ कर बहुत तेजी से निकल गए। पहले सोचा कि मामला पुलिस को दिया जाए मगर बाद में तय किया कि इस से अब अपने आप ही निपटना है। अगले दिन वह लड़का नहीं आया तीसरे दिन आया तो मैं ने उसे भगा दिया। मामला मालिक के नोटिस में अन्य सहयोगियों ने उसी दिन ला दिया था। यह पता चलने पर शाहनवाज का संदेश मिला कि मैं मुरादाबाद चला जाउं मगर मैने कहा कि मैं रणछोड़दास नही बनूंगा पहले इस आदमी का बंदोबस्त करें यह तो किसी की जान भी ले सकता है। शाहनवाज ने उसे तुरंत हलद्वानी जाने का आदेश दे दिया तो वह मुझ से माफी मांगने लगा। मैने उसे तुरंत रिलीव कर दिया। इस के सप्ताह भर बाद मैं भी मुरादाबाद के लिए प्रस्थान कर गया मगर यह पता नहीं चल पाया कि उस ने चाय में क्या डाला था।

रंगीले संपादकों की कहानी: पहली कहानी एक ऐसे रंगीले संपादक की है जो हर समय लड़कियों से घिरा रहता था। सफेद सफारी सूट उस का प्रिय पहनावा था। कार्यालय आता तो ऐसा लगता मानो कोई सुगंध का झोंका आ गया हो। पास से गुजरता तो वातावरण उस के परफ्यूम की सुगंध से गमक उठता। काला चश्मा हर समय नेत्रों की शोभा बढाता ताकि किसी को पता न चले कि किधर देख रहे हैं। यह सज्जन टाइम्स समूह की एक पत्रिका के संपादक बन कर आए थे। इनका कार्यालय पहले नवभारत टाइम्स के कार्यालय में ही बनाया गया था। यहां एक लड़की प्रशिक्षु पत्रकार थी। उसके साथ संपादक ने छेड़ छाड़ कर दी। उस लड़की ने इसकी शिकायत मालिक की बेटी से कर दी जो उन दिनों एक डायरेक्टर का काम संभाल रही थीं। डायरेक्टर बेटी ने जो तरीका अपनाया उस के चलते संपादक का कार्यालय आना ही बंद हो गया। डायरेक्टर ने एक सर्कुलर जारी किया जिसमें संपादक पर छेड़ छाड़ की बात कही गई और तमाम कर्मचारियों से कहा गया कि अगर इस बारे में किसी के पास कोई सूचना है तो वह डायरेक्टर के पास जमा करा दें। यह सर्कुलर आफिस के सारे नोटिस बोर्डों पर लगा दिया गया इस प्रकार जिसे इस घटना का पता नहीं था उसे भी चल गया। इस के बाद संपादक महोदय फिर कभी कार्यालय नहीं आए।

दूसरी कथा के नायक एक सहायक संपादक हैं जो फिल्मी पेज के प्रभारी थे। इन की सहायक एक युवती थी। ये उस के सामने अश्लील फोटो डाल कर उन में से छपने के लिए फोटो छांटने को कहते यहां तक तो युवती सहन करती रही मगर एक दिन इन्होंने युवती के शरीर पर हाथ डाला तो वह तुरंत खड़ी हो गई और एक जोरदार थप्पड़ उसके मुंह पर जड़ दिया। अंदर क्या हुआ इसका पता तो बाद में चला मगर थप्पड़ की आवाज केबिन के बाहर कई लोगों ने सुनी। युवती केबिन से बाहर आ कर सीधे रमेश जी के पास गई और घटना की जानकारी के साथ ही अपना त्याग पत्र भी सौंप दिया और अपने घर चली गई। अगले दिन मैनेजमेंट ने फिल्म संपादक को बुला कर उनसे भी त्याग पत्र ले लिया। बाद में युवती से त्याग पत्र वापस लेने को कहा मगर उसने इंकार कर दिया।

तब खबरिया चैनल नही थे और न ही इतनी जागरूकता थी। अखबार एक दूसरे के बारे में ऐसी बातों से परहेज करते थे वरना तो आज तरूण तेजपाल के बारे में जितना तहलका मच रहा है ये घटनाएं भी कम तहलका वाली नही थीं। एक बात तो साफ है कि मीडिया में यह बीमारी पहले भी थी और आज भी है। तेजपाल को इसी बीमारी ने अपनी गिरफ्त में ले लिया था।

लेखक डॉ. महर उद्दीन खां वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार हैं. रिटायरमेंट के बाद इन दिनों दादरी (गौतमबुद्ध नगर) स्थित अपने घर पर रहकर आजाद पत्रकार के बतौर लेखन करते हैं. उनसे संपर्क 09312076949 या  [email protected] के जरिए किया जा सकता है. डॉ. महर उद्दीन खां का एड्रेस है:  सैफी हास्पिटल रेलवे रोड, दादरी जी.बी. नगर-203207

अन्य संस्मरणों को पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें: भड़ास पर डा. महर उद्दीन खां

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