Dayanand Pandey : मेरी एक छोटी सी चुहुल से वीरेंद्र यादव आप इस तरह प्रश्नाहत हो गए और ऐसा लगा जैसे आप यादवों के प्रवक्ता हो गए हों। और किसी ने आप की दुखती रग को बेदर्दी से दबा दिया हो। जब हिंदी संस्थान के पुरस्कारों की घोषणा हुई तब मैं ने आप को व्यक्तिगत रुप से फ़ोन कर के बधाई दी थी, समारोह में भी। यह भी आप भूल गए? हां, मैं ने इस टिप्पणी में चौथीराम यादव को ज़रुर याद करने की कोशिश की। रचनाकार को याद उस की शक्लोसूरत से नहीं किया जाता, उस की रचनाएं उस की याद दिलाती हैं।
मुंशी प्रेमचंद का नाम आते ही गबन, गोदान, रंगभूमि और उन की कहानियां सामने आ कर खड़ी हो जाती हैं। गुलेरी जी का नाम याद आते ही उस ने कहा था ही नहीं, लहना सिंह भी सामने आ खड़ा होता है। मुझ मतिमंद ने बहुत याद करने की कोशिश की कि चौथी राम यादव को याद करुं तो उन की कोई रचना या आलोचना मेरी स्मृति-पटल पर अंकित हो जाए पर नहीं हुई। आप चूंकि लखनऊ में बरास्ता नामवर मौखिक ही मौलिक है के नाते छोटे नामवर माने जाते हैं इस लिए आप के बारे में मुतमइन था कि आप को यह मरतबा कोई यूं ही सेंत-मेंत में तो मिल नहीं गया होगा। ज़रुर आप की बड़ी स्पृहणीय और उल्लेखनीय साहित्यिक उपलब्धियां भी होंगी। तो जब चौथीराम यादव की किसी रचना को याद नहीं कर सका तो खामोश हो कर बैठ गया यह मान कर कि मेरी अज्ञानता का अर्थ यह कैसे लगा लिया जाए मैं नहीं जानता हूं तो इस लिए यह चीज़ है ही नहीं। पर उस दिन पुरस्कार वितरण समारोह में वितरित हुई विवरणिका देख कर फिर जिज्ञासा जगी कि चौथीराम यादव के बारे में कुछ जान ही लूं।
विवरणिका देख कर मुझे गहरा सदमा सा लगा कि हिंदी संस्थान महाविद्यालयों के विद्यार्थियों के लिए कुंजियां लिखने वालों को कब से सम्मानित करने लगा, वह भी लोहिया सम्मान जैसे सम्मान से। जिसे निर्मल वर्मा, श्रीलाल शुक्ल, शिव प्रसाद सिंह, कुंवर नारायन, कन्हैयालाल नंदन, शैलेष मटियानी, रवींद्र कालिया जैसे लोग पा चुके हैं। ऐसे में यादव होना योग्यता के तौर पर मेरे या और भी लोगों के मन में बात आ ही गई तो कुछ अस्वाभाविक नहीं माना जाना चाहिए। खैर अब फ़ेसबुक पर आई आप की अब इस अयाचित टिप्पणी के क्रम में आप का भी पन्ना खुला परिचय का तो पाया कि आप के खाते में भी ऐसा तो कुछ रचनात्मक और स्मरणीय नहीं दर्ज है । और एक बड़ी दिक्कत यह भी है सामने है कि यह किन के हाथों सम्मानित हो कर आप फूले नहीं समा रहे हैं। आप तो हमेशा सत्ता विरोध में मुट्ठियां कसे की मुद्रा अख्तियार किए रहते हैं। कंवल भारती की गिरफ़्तारी और मुज़फ़्फ़र नगर के दंगे पर्याप्त कारण थे आप के सामने अभी भी मुट्ठियां कसे की मुद्रा अख्तियार करने के लिए। खैर यह आप की अपनी सुविधा का चयन था और है। इस पर मुझे कुछ बहुत नहीं कहना।
इसलिए भी कि अभी कुछ दिन पहले फ़ेसबुक पर ही आप को जनसत्ता संपादक ओम थानवी से कुतर्क करते देख चुका था। इसी फ़ेसबुक पर कमलेश जी को सी.आई.ए. का आप का फ़तवा भी देख चुका था। प्रेमचंद को ले कर भी आप के एकाधिकारवादी रवैए को देख चुका था। और अब आप के यदुवंशी होने की हुंकार को दर्ज कर रहा हूं। आप के द्विज विरोध और आप की द्विज-नफ़रत को देख कर हैरत में हूं। पहले भी कई बार यह देखा है। एक बार चंचल जी की वाल पर भी एक प्रतिक्रिया पढ़ी थी कि मोची को चाय की दुकान पर बिठा दीजिए और पंडित जी को मोची की दुकान पर। तब मैं भी आऊंगा चाय पीने आप के गांव। गोया चंचल न हों औरंगज़ेब हों कि जिस को अपने गांव में जब जहां चाहें, जिस काम पर लगा दें। अजब सनक है द्विज दंश और नफ़रत की। खैर बात बीत गई। पर अब फिर यह टिप्पणी सामने आ गई। तो सोचा कि जिस व्यक्ति को मैं पढ़ा लिखा मान कर चल रहा था वह तो साक्षरों की तरह व्यवहार करने पर आमादा हो गया। एक मामूली सी चुहुल पर इतना आहत और इस कदर आक्रामक हो गया? कि द्विज दंश में इतना आकुल हो गया। भूल गया अपनी आलोचना का सारा लोचन। एक शेर याद आ गया :
कितने कमज़र्फ़ हैं ये गुब्बारे
चंद सांसों में फूल जाते हैं।
द्विज विरोध की सनक में आप यह भी भू्ल गए कि एक द्विज श्रीलाल शुक्ल के चलते ही आप आलोचक होने की भंगिमा पा सके । कि उसी द्विज के आशीर्वाद से आप की किताब छपी और देवी शंकर अवस्थी पुरस्कार भी मिला। लेकिन इस द्विज दंश की आग में जल कर आप इतने कुपित हो गए कि यादव से शूद्र तक बन गए। मायावती की ज़ुबान बोलने लगे ! द्विजों ने आप का, आप की जाति का और उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान का इतना नुकसान कर दिया कि कोई हिसाब नहीं है। यह सब यह कहते हुए आप यह भी भूल गए कि बीते ढाई दशक से भी ज़्यादा समय से मुलायम और उन का कुनबा तथा मायावती या कल्याण सिंह ही राज कर रहे हैं। यह लोग भी तो आप की परिभाषा में दबे-कुचले शूद्र लोग ही हैं। बीच में राजनाथ सिंह और रामप्रकाश गुप्त भी ज़रा-ज़रा समय के लिए आए। लेकिन सामाजिक न्याय की शब्दावली में ही जो कहें तो दबे-कुचले, निचले तबकों का ही राज चल रहा है उत्तर प्रदेश में। केंद्र में भी देवगौड़ा से लगायत मनमोहन सिंह तक दबे-कुचले लोग ही हैं। इतना ही नहीं उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान में इस बीच कार्यकारी अध्यक्ष भी यही दबे-कुचले लोग रहे। सोम ठाकुर, शंभु नाथ, प्रेमशंकर और अब उदय प्रताप सिंह जैसे लोग इसी दबे कुचले तबके से आते हैं जिन पर वीरेंद्र यादव के शब्दों में द्विजों ने अत्याचार किए हैं और कि करते जा रहे हैं। तो क्यों नहीं इन दबे कुचले लोगों ने जो कि राज भी कर रहे थे, वीरेंद्र यादव जैसे शूद्रों को भारत भारती या और ऐसे पुरस्कारों से लाद दिया? कम से २५ भारत भारती या इस के समकक्ष बाकी दर्जनों पुरस्कार तो द्विजों के दांत से खींच कर निकाल ही सकते थे। मैं तो कहता हूं वीरेंद्र यादव जी अब इस मुद्दे पर एक बार हो ही जाए लाल सलाम ! एक श्वेत पत्र तो कम से कम जारी हो ही जाए।
यह भी अजब है कि जो अगर आप को किसी की बात नहीं पसंद आए तो उसे भाजपाई करार दे दीजिए, इस से भी काम नहीं चल पाए तो आप सी.आई.ए. एजेंट बता दीजिए। यह तो अजब फ़ासिज़्म है भाई ! आप फ़ासिस्टों से लड़ने की दुहाई देते-देते खुद फ़ासिस्ट बन बैठे ! यह तो गुड बात नहीं है।
वरिष्ठ पत्रकार और साहित्यकार दयानंद पांडेय के फेसबुक वॉल से.
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