नरेंद्र मोदी का नाम आते ही या फिर उनके साधारण से वक्तव्यों पर ही कुछ लोग क्यों उखड़ जाते हैं? समझ नहीं आता कि राष्टृहित में भी लोगों का नजरिया इतना भेदभाव वाला क्यों है। कुछ लोग कहते हैं कि मोदी सांप्रदायिक हैं। और जो यह कहते हैं, उन्हें शायद सांप्रदायिकता का सही अर्थ पता नहीं है। अगर होता तो वे दिग्विजसिंह की भी उतनी ही आलोचना करते, जितनी मोदी की। बौद्ध मठ पर धमाके को लेकर दिग्विजय का बयान क्या सांप्रदायिक नहीं है?
जरूरी नहीं कि अपने धर्म को बढ़ावा देना और दूसरे धर्म को नीचा दिखाने के लिए किया जाने वाला कृत्य ही सांप्रदायिकता की जद में आता है, बल्कि अपने धर्म या अपने ही धर्म के लोगों के खिलाफ बोलकर लोगों में उन्माद उत्पन्न करना भी सांप्रदायिकता है। हर व्यक्ति को अपने धर्म की रक्षा का अधिकार है, किसी दूसरे धर्म को हानि पहुंचाना कायरता-पाशविकता है।
राष्टृ की अस्मिता और एकता में धर्म कभी आड़े नहीं आता है। राष्टृवाद भी एक धर्म है। मोदी इसी राह पर चलते हैं, आखिर इसमें बुरा क्या है? कुछ लोग गुजरात के दंगों पर मोदी की आलोचना करते हैं, लेकिन ये लोग वे हैं, जो कभी इस घटना के मूल में नहीं गए। कोई व्यक्ति मधुमक्खियों के छत्ते पर हमला करता है तो मधुमक्खियां उसे काटने दौड़ती हैं, कोई मुझ पर जानलेवा हमला करता है तो मुझे भी अपनी जान की रक्षा का अधिकार है। यह संयुक्त राष्टृ का चार्टर भी कहता है।….और दंगों के आधार पर ही सजा दी जाए तो नरसिम्हाराव, मुलायम सिंह पर उत्तराखंड आंदोलन के मसले पर बलात्कार और हत्या के मुकदमे क्यों नहीं चलाए गए?
कुछ लोग कहते हैं कि मोदी एक धर्म विशेष के हितैषी हैं, तो फिर दिग्विजय, मनीष तिवारी, सोनिया गांधी पर ये आरोप क्यों नहीं लगते? लालू, बुखारी, दिग्विजय, रेणुका चौधरी कोई आपत्तिजनक शब्द कहें तो नजरअंदाज और मोदी के बोलों पर तिल का ताड़। मोदी केदारनाथ आएं तो पाबंदी और राहुल के लिए आईटीबीपी का गेस्ट हाउस खाली कराया तो कुछ नहीं। आखिर यह दोहरापन क्यों? जो लोग मोदी पर आरोप लगाते हैं, वे जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुला के उस बयान को क्यों नहीं याद करते, जिसमें उन्होंने चेतावनी दी कि मेरे राज्य से विशेष धारा हटाकर दिखाओ, ये लोग इस बात को क्यों भूल जाते हैं कि एक साजिश और धमकी से कश्मीर घाटी को पंडितों
से क्यों खाली कराया गया? वे क्यों भूल जाते हैं कि एक देश में दो कानून चल रहे हैं? कुछ कथित कामरेड टाइप के लोग मोदी और उनके समर्थकों का उपहास उड़ाकर आलोचना करते हैं। मैं उनसे पूछना चाहता हूं कि माओत्से तुंग,कार्ल मार्क्स आदि की विचारधारा अगर उनको प्रिय लगती है तो पं.दीनदयाल उपाध्याय, स्वामी दयानंद सरस्वती, विवेकानंद की विचारधारा को पसंद करने का भी कोई अधिकार रखता है। हर व्यक्ति को अपना प्रेरक चुनने का अधिकार है। मोदी की विचारधारा में हिंसा को तो स्थान नहीं है।
क्षमा करना मित्रों, मैं न भाजपा से जुड़ा हूं, न संघ से, न कांग्रेस से और न ही सपा,बसपा,भाकपा से, लेकिन सच पूछिए तो मैं मोदी का प्रशंसक भाजपा की वजह से नहीं हंू, बल्कि एक सच्चे राष्टृवादी, निष्पक्ष नेतृत्व क्षमता, विकासवादी दृष्टिकोण आदि विशेष गुणों के कारण मैं मोदी का प्रशंसक हूं। मैं चाहता हूं कि देश के प्रधानमंत्री का ऐसा ही व्यक्तित्व हो। अगर मोदी भाजपा के अलावा भी किसी भी पार्टी में होते तो भी मैं उनको इस पद पर देखना चाहता। अगर मोदी किसी अन्य धर्म से भी संबद्ध होते, तभी भी उन्हें मैं इस कुर्सी पर देखना चहता। आप जानते हैं पिछले करीब एक दशक से भारत की छवि पूरी दुनिया में खराब हुई है, खासकर प्रधानमंत्री को लेकर। इसलिए आज मौन रहने वालों, दूसरे की बुद्धि की बैसाखी पर चलने वालों, बचकाने बयान देने वालों और विदेश से संबंध रखने वालों को देश की बागडोर नहीं सौंपी जानी चाहिए। इससे बड़ी हास्यास्पद बात क्या हो सकती है कि हम आजादी के इतने साल बाद अपने देश का असली नाम ही निर्धारित नहीं कर पाए। आखिर हम इंडियन हैं, हिंदुस्तानी हैं या फिर भारतीय? देश जब संकट में होता है तो वह धर्म नहीं, कर्म देखता है।
डॉ. वीरेंद्र बर्तवाल
वरिष्ठ पत्रकार
देहरादून