Yashwant Singh : मीडिया चौपाल-2013 का आयोजन Anil Saumitra जी की तरफ से कराया गया. इसमें देश भर से सैकड़ा से ज्यादा लोग आए और जो लोग आए उनमें से ज्यादातर न्यू मीडिया यानि वेब ब्लाग फेसबुक ट्विटर आदि से जुड़े हुए थे… यहां के आयोजन की खास बात रही कि आयोजकों से लेकर यहां शामिल प्रमुख वक्ताओं तक, ज्यादातर दक्षिणपंथ की विचारधारा से जुड़े हुए थे… कई लोगों ने कहा कि यशवंत जैसा वामपंथी इस संघियों के आयोजन में कैसे शिरकत करने चला आया?
मैंने सबसे यही कहा कि सबको अपनी विचारधारा रखने बनाने का अधिकार है और ये कुछ वैसा ही है जैसे किसी सेल में तरह तरह के ब्रांड के कपड़े रखे हुए हों और आप उनमें से अपनी पसंद की ब्रांड का कपड़ा चुन लें… और, जाहिर है, उम्र अनुभव चेतना के परिष्कृत होने के साथ आपकी पसंद भी बदलती रहती है… ज्यादा मेच्योर होने लगती है..
विचारधाराओं के चश्मे से हर कुछ और हर वक्त देखते रहने वालों को सबसे ज्यादा दिक्कत खुद से होनी चाहिए क्योंकि वे असल में ऐसा स्टेट आफ माइंड करके खुद के विकास, खुद के अपग्रेडेशन, खुद के उदात्त होने को रोक देते हैं, किल कर देते हैं…
मेरी कभी कोई एक विचारधारा नहीं रही. वक्त के साथ मैं अपग्रेड होता रहा हूं..
बचपन में धार्मिक किस्म का था, हिंदूवादी विचारधारा के करीब. रामचरित मानस की दर्जनों चौपाइयों को गाते और हनुमान चालासी का पाठ करते हुए मैं अक्सर पूजा पाठ के कार्यों में बेहद सक्रिय रहता था.
बाद में मानवतावादी बना. मदर टेरेसा जैसी महिलाओं को आदर्श माना. मानव सेवा को सबसे बड़ा धर्म स्वीकारा.
उसके बाद ओशोवादी हुआ. परंपरा, धर्म, दर्शन, अच्छा, बुरा, काम, क्रोध, आनंद को सिर के बल खड़ा करते हुए इन्हें नए नजरिये से जान पाया…
फिर भगत सिंह और चंद्रशेखर आजाद जैसों को पढ़ते हुए नास्तिक और तर्कवादी बना. मार्क्सवाद के रास्ते चलकर देश दुनिया समाज को समझने का एक अदभुत दर्शन बूझ पाया.
कबीर सूर नानक मीरा आदि के नजदीक जाकर उदात्तता, मस्ती, प्रेम का पाठ पढ़ा.
इन दिनों ब्रह्मांड और सृष्टि के सुर लाय तल गति को बूझ रहा हूं और इसके साथ कदमताल करते हुए खुद को सारी विचारधाराओं में शामिल और सारे वादों से मुक्त भी पाता हूं..
हर वाद, हर विचारधारा पूरे ब्रह्मांड का एकांगिक चिंतन पेश करता है. साथ ही कोई भी चिंतन मात्र एक सीढ़ी की तरह होता है जिसके सहारे आप एक नई दुनिया में प्रवेश करना चाहते हैं और जब प्रवेश करने कोशिश करते हैं तो आपको कई तरह की सीढ़ियों की जरूरत कई अवस्थाओं में पड़ती महसूस होती है… आपका कंफर्ट जोन और आपके हालात आपके दिमाग को ऐसा बना देते हैं कि आप अपने पसंद के हिसाब से विचारधारा को ग्रहण करते हैं… हम किसी चीज को नापसंद इसलिए करते हैं क्योंकि हम उसे पसंद करने जैसी स्थिति में पहुंचने के लिए उपयुक्त माहौल से नहीं निकले, गुजरे हैं… और, जो चीज मुझे नापसंद हो, वह कई दूसरों के लिए पसंद की चीज होती है, क्योंकि वह उनके माहौल, स्थिति, शिक्षा, चेतना के हिसाब से बनी गढ़ी गई होती है…
उसी तरह जैसे हमारी आंखों की देख पाने की एक सीमा होती है, उसी तरह हमारी सभी विचारधाराओं की भी सीमा होती है… जो लोग इन सीमाओं को समझ जाते हैं, उन्हें विचारधाराओं का छोटेपन समझ में आने लगता है.. फिर वो उस उदात्त को समझने तलाशने में जुट जाते हैं जिसको व्याख्यायित करने के लिए विचारधाराओं की करोड़ों श्रेणियां पैदा हुईं.. जैसे अच्छा बुरा कुछ नहीं होता. एक संपूर्ण पैकेज का दो पार्ट होता है.. उसी तरह वाम दक्षिण जैसा कुछ नहीं होता. यह मनुष्यों के बौद्धिक जुगाली के पैकेज का दो ओर-छोर होता है.. जाकी रही भावना जैसी वाली अवस्था को समझना चाहिए..
मैं हमेशा उन मनुष्यों को पसंद करता हूं जिनके अंदर एक बेहद संवेदनशील दिल होता है और जिनके दिमाग में हमेशा नई से नई चीजों को जानने बूझने समझने का माद्दा होता है.. अगर ये दो चीजें हैं और चलते जाने की ताकत है, माफ करते जाने की क्षमता है, उदात्त होते रहने की तड़प है… तो आप एक न एक दिन खुद को विचार की उस अवस्था में पाते हैं जहां से इस जगत के हर जड़-चेतन के विचार, क्रिया-कलाप को समझने लग जाते हैं… फिर आपको कोई गलत सही नहीं दिखता, सबमें आप खुद को देखने लग जाते हैं और फिर मंद मंद मुस्कराते हैं…
भड़ास के एडिटर यशवंत सिंह के फेसबुक वॉल से.
पंकज झा का लिखा ये भी पढ़ें…