यह राष्ट्रीय आम हड़ताल नहीं, ‘महाबंद’ जैसा था। देश के श्रमिक आंदोलन के इतिहास में यह पहला मौका है जब देश के श्रमिकों ने राष्ट्रीय स्तर पर दो दिनों की हड़ताल का आयोजन किया। दस करोड़ से अधिक कामगारों ने इसमें हिस्सा लिया और अपना काम बंद रखा। इसका व्यापक असर देखने में आया। जनजीवन ठहर सा गया। अन्ना हजारे ने समर्थन करते हुए कहा कि ऐसे आंदोलनों से ही इस सोई हुई सरकार को जगाया जा सकता है। पूर्व सेनाध्यक्ष जनरल वीके सिंह ने भी हड़ताल का समर्थन किया तथा इसके लिए सरकार को जिम्मेदार माना। सरकार ने भी नहीं सोचा होगा, वैसा हुआ। भले ही ग्यारह केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों ने इसका आह्वान किया हो, लेकिन यह बहुत कुछ स्वतः स्फूर्त था। उनके अनुमान से कहीं ज्यादा यह हड़ताल सफल रही।
एसोचैम का अनुमान है कि इस दो दिनों की हड़ताल से छब्बीस हजार करोड़ से कही ज्यादा का नुकसान हुआ है। जनजीवन पर भी इसका खासा असर देखने को मिला। लोगों को परेशानियां उठानी पड़ी। कहा गया कि जब देश आर्थिक मंदी व गहरे संकट से गुजर रहा है, ऐसे में इस तरह की हड़ताल से आखिरकार क्या हासिल होगा? ट्रेड यूनियनों का यह कदम क्या आम लोगों के विरुद्ध नहीं है? यह तो अतिवादी कदम है। यह भी कहा गया कि ट्रेड यूनियनों की मांगे भले ही जायज हों लेकिन उन्हें अपनी मांगों के लिए कोई और रास्ता अपनाना चाहिए। हिंसा व तोड़फोड़ की घटनाएं हुईं। सरकार की निष्क्रियता पर उद्दयोग जगत द्वारा नाराजगी भी जाहिर की गई। मीडिया द्वारा भी कामगारों की इस हड़ताल के मुद्दों को सामने लाने से अधिक इसे औचित्यविहीन बताने तथा हिंसा व तोड़फोड़ के दृश्यों को दिखाने पर जोर रहा।
लोकतांत्रिक आंदोलन में अराजकता का कोई स्थान नहीं है। हिंसा, तोड़फोड़ को कभी भी उचित नहीं ठहराया जा सकता। हड़ताल के आयोजकों ने भी हिंसा की निन्दा की है तथा उनकी ओर से इस हिंसा की जांच पड़ताल व समीक्षा करने की बात कही गई है। लेकिन सवाल है कि ऐसे आंदोलन के औचित्य व प्रत्यक्ष हिंसा को क्या निरपेक्ष तरीके से समझा जा सकता है? इसे देखने के लिए सापेक्ष दृष्टि जरूरी है। ऐसे आंदोलनों को समझने के लिए देश में जारी उन नीतियों पर, उनमें निहित क्रूरता, अमानवीयता व हिंसा पर गौर करना ज्यादा जरूरी है जिनकी वजह से देश की जनता त्रस्त है। सत्ता का कोई गलियारा नहीं बचा है जहां से भ्रष्टाचार का जिन्न नहीं निकल रहा हो। सरकार को पेट्रोलियम पदार्थों की कीमत बढ़ाने की ज्यादा चिंता है, लेकिन इसकी वजह से बढ़ रही महंगाई आम आदमी के जीवन को किस तरह प्रभावित कर रही है, उसकी कतई फिक्र नहीं है।
रोजगार के अवसर सिमटते जा रहे हैं, श्रम कानूनों का उलंघन हो रहा है, कामगारों की जीवन दशा बद से बदतर होती जा रही है और वे न्यूनतम वेतन से वंचित हैं, सामाजिक सुरक्षा का घोर अभाव है। वहीं, उद्दयोगपतियों को देश के श्रम व सम्पदा की लूट की छूट मिली है। भले ही हमारी संसद ऐसे लोगों से रोशन हो जो अरबपति हों तथा देश ‘गर्व’ कर सकता है कि दुनिया के सर्वाधिक धनाढ़य लोगों में भारतीय भी शामिल हैं। लेकिन सच्चाई यह है कि भारत ऐसा देश बन गया है जहां सबसे अधिक गरीब लोग रहते हैं। विश्व भूख इंडेक्स के अनुसार भारत का स्वास्थ्य पैरामीटर निचले स्तर पर पहुँच गया है। जनतंत्र की परिभाषा थी – जनता का, जनता के लिए तथा जनता के द्वारा संचालित शासन प्रणाली। परन्तु आज इसके मायने ही बदल गये हैं। यहां का लोकतंत्र ऐसे तंत्र में तब्दील होता जा रहा है जिसे कॉरपोरेटतंत्र कहा जा सकता है। यह ऐसा तंत्र बन गया है जिसमें हमारी सरकार कॉरपोरेट की, कॉरपोरेट के लिए तथा कॉरपोरेट द्वारा संचालित है।
आज से करीब दो दशक पहले कांग्रेस की नरसिंह राव सरकार ने नवउदावादी आर्थिक नीतियों को देश में लागू किया था। वर्तमान प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह उस सरकार के वितमंत्री थे। कांग्रेस द्वारा उस वक्त लागू की गई इन नीतियों को भाजपा द्वारा समर्थन दिया गया था। इन नीतियों की वजह से दो दशक के दौरान देश के ढाई लाख से अधिक किसानों को आत्म हत्या करनी पड़ी है। कितनी क्रूर व हिंसक है ये नीतियां, यह सबके सामने है। लेकिन हमारी सरकार है कि ‘समावेशी विकास’ के नाम पर उन्हीं नीतियों से न सिर्फ चिपकी हुई है, बल्कि वह आर्थिक सुधारों के दूसरे चरण की ओर पूरे दम खम से कदम बढ़ा चुकी है।
यह ऐसा दौर है जब वित्तीय पूंजी राष्ट्र-राज्य की भूमिका तय कर रही है। इसे पिछले दिनों विश्व बैंक का भारत सरकार पर अपने एजेण्डे को लागू करने के भारी दबाव के रूप में देखा जा सकता है। डा. मनमोहन सिंह पर साम्राज्यवादी-पूंजीवादी देशों द्वारा व्यक्तिगत हमले तक किये गये। उन हमलों का मात्र यही निहितार्थ था कि उनके कार्यक्रमों को ‘लागू करो या गद्दी छोड़ो’। हमने अपनी सरकार को विश्व बैंक व वित्तीय पूंजी के सामने नतमस्तक होते देखा है। भारी विरोध के बावजूद खुदरा क्षेत्र में विदेशी पूँजी निवेश को मंजूरी दी गई। पेट्रोलियम से लेकर कृषि सहित बुनियादी क्षेत्रों में दी जाने वाली वित्तीय सहायता को क्रमशः कम करते हुए इन्हें समाप्त करने की ओर सरकार अग्रसर है। सरकार अलोकप्रिय हो जाने का खतरा उठाते हुए ये कदम उठा रही है।
सरकार का वित्तीय पूंजी के हितों के प्रति समर्पण ही है कि वह श्रमिकों की राष्ट्रीय हड़ताल के प्रति गंभीर नहीं दिखी। सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त सभी ग्यारह केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों ने पिछले साल चार सितम्बर को अपने सम्मेलन में बारह सूत्रीय मांगों को लेकर दो दिनों की हड़ताल की घोषणा की थी। सरकार के पास छह महीने का समय था जब वह ट्रेड यूनियनों से वार्ता कर हड़ताल को टाल सकती थी। लेकिन यह जानते हुए कि इस हड़ताल से देश को भारी आर्थिक क्षति होने वाली है तथा इसका आम जनजीवन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा, वह इसे लेकर गंभीर नहीं दिखी। गौरतलब है कि हड़ताल से पहले सरकार द्वारा जो वार्ता बुलाई गई, वह मात्र औपचारिकता थी। उन मुद्दों पर कोई ठोस व समयब़़द्ध आश्वासन देने को भी वह तैयार नहीं थी।
भारतीय श्रमिक आंदोलन के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ जब सभी रंग की ट्रेड यूनियनें एक मंच पर आईं। श्रमिक जनता के अन्दर की बेचैनी व असंतोष तथा उनके अनसुलझे सवालों का दबाव था कि अपने राजीतिक मतभेदों को दरकिनार करते हुए चाहे कांग्रेस की इंटक हो, भाजपा से जुड़ी बीएमएस हो, शिवसेना की यूनियनें हों या वामपंथी ट्रेड यूनियनें हों, सभी इस हड़ताल में शामिल हुईं। संगठित ही नहीं, असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों ने बढ़ चढ़ कर भाग लिया और उनके मुद्दे इस हड़ताल में प्रमुखता से उभरे। वास्तव में, यह हड़ताल सरकार के लिए चेतावनी है कि वह देश के गरीबों, आम आदमी व श्रमिकों के दुखदर्द व उनकी समस्याओं को उपेक्षित कर मात्र पूंजीपतियों की हित रक्षक बनकर काम करती रहेगी तो उसे ऐसे ही आंदोलनों व जन आक्रोश का सामना करना पड़ेगा। भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन तथा गैंगरेप व महिलाओं पर बढ़ती हिंसा के खिलाफ जन उभार के बाद श्रमिकों की देशव्यापी हड़ताल ने यही संदेश दिया है।
लेखक कौशल किशोर वरिष्ठ साहित्यकार व स्वतंत्र पत्रकार हैं.