: 'राइट टू रिजेक्ट' कानून 1857 का गदर है जो 1947 में जाकर असर दिखा पाया था : सुप्रीम कोर्ट ने राइट टू रिजेक्ट को कानून सम्मत मानते हुए अगले चुनावों में इसे अमली जामा पहनाने का आदेश दिया है. सुप्रीम कोर्ट ने यह आदेश 'पीपल्स यूनियन फार सिविल लिबर्टीज' (PUCL) नामक संगठन की याचिका पर दिया है. इसे आने वाले विधानसभा चुनावों में प्रभावी रूप से लागू करने का आदेश भी दिया गया है. इस आदेश के ऐसे समय में आने पर कुछ सवाल मन में जरूर उठते हैं.
पहला यह कि ऐसे समय में जब दागी नेताओं पर सुप्रीम कोर्ट के आदेश के खिलाफ समूचा सदन एकत्रित होकर उस आदेश को पलटने के लिये अपनी सहमति को कानूनी रूप देने ही वाला है तब सुप्रीम कोर्ट ने इस तरह का आदेश देकर जनता के गुस्से को डाइवर्जन देकर सरकार के साथ साथ विपक्ष को भी राहत दे ही दी है. और जो लोग सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले की मुक्त कंठ से प्रशंसा कर रहे हैं वो दरअसल प्रणाली को ना समझ पाने कारण ऐसा कह रहे हैं. कोई इसे लोकतंत्र का प्रहरी और ना जाने क्या – क्या कह रहे हैं. दरअसल हमें यह समझना होगा कि कानून का रखवाला ईमानदार हो यह उतना जरूरी नही जितना कि कानून का ईमानदार होना और उससे ज्यादा कानून के बनाने वाले का होना जरूरी है.
दूसरा यह कि अदालतों को ऐसे फैसले देते वक्त या फिर अदालतों को छोड़ दें क्यूंकि अदालतें तो अपील पर सुनवाई के लिए बाध्य ही होती हैं, वे संगठन जो इस प्रकार की याचिका दायर करते हैं जरा भी देश के जन को समझते हैं या बस याचिका कर के वाह वाही बटारते हैं. जरा अब आप गाँवों में जाकर राइट टू रिजेक्ट को समझाने का कष्ट करेंगे. अभी भी देश में डाक या मेल द्वारा वोट डालने की सुविधा नहीं है ऐसे में बहुत से लोग अपना प्रत्याशी नहीं चुन पाते और ऐसे में आपकी राइट टू रिजेक्ट की माँग कहाँ तक उचित है?
ऐसे समय में जब लोग प्रत्याशी नहीं ग्लैमर का चुनाव करते हैं, साम्प्रदायिक उन्माद, हत्या और बलात्कार के अपराधी लाख – 2 वोटों के अन्तर से चुनाव जीत रहे हैं आप राइट टू रिजेक्ट की बात कर रहे हैं. मैं जानता हूँ कि आप मानते हैं कि 'एक पत्थर तो तबीयत से उछालों यारों' पर जब आसमान फट पड़ा हो तो छेद करने की बात ही करना बेकार हैं. आखिर क्या वजह है कि दागियों को सदन में रोकने वाला हर कानून संसद के द्वारा ही बार बार बदल दिया जाता है, क्यू एक बार भी नही झिझकते हमारे महानुभाव, कभी सोचते हैं हम इस बारे में. ऐसा इसलिए है क्यूंकि हमारी चेतना सो गयी है और ये बात वो अच्छा तरह से जानते हैं.
सुप्रीम कोर्ट का फैसला गलत हो ऐसा नही है लेकिन अभी उपयोगी नही है इसके पहले कुछ दूसरे जरूरी काम किये जाने चाहिए. इसलिये अभी हमें कानून की नही बल्कि लोगों को बनाने की जरूरत है. कोई भी तंत्र तब अच्छा नही हो जाता जब उसमें विशिष्ट काम करें बल्कि तब होता है जब सब काम करें. नये कानूनों के बनने से ज्यादा जरूरी उनका बने रहना है. फिर भी हमें इसका स्वागत करना चाहिए क्यू्ंकि अच्छाई अपना असर दिखाती है. दरअसल 'राइट टू रिजेक्ट' कानून 1857 का गदर है जो 1947 में जाकर असर दिखा पाया था, लेकिन इसके लिए अभी जमीन बनाने की आवश्यकता है.
युवा पत्रकार विवेक सिंह का विश्लेषण.