राजनीति का भी अपना अजीब मायाजाल है। वह हर किसी को उसके असली स्वरूप में खड़ा होने को मजबूर कर ही देती है। स्वामी रामदेव को भी इसीलिए अब अंततः अपने असली रूप में आना पड़ा हैं। राजनेताओं से तो पहले भी उन्हें कोई कम प्रेम नहीं था। अपने योग शिविरों में राजनेताओं को मंच पर बुला बुला कर अपनी महिमा बढ़ाने को शौक उनको शुरू से रहा है। पर, अब उनको राजनीति के मैदान में उतरने भी परहेज नहीं रहा। अब वे खुलकर मैदान में हैं।
स्वामी रामदेव देश भर में घूम घूम कर बीजेपी के नेताओं के साथ फोटो खिंचवा रहे हैं और नरेंद्र मोदी को पीएम बनाने की मुहिम चला रहे हैं। पता नहीं किस डर से बीजेपी ने तो अब तक मोदी को पीएम पद का उम्मीदवार भी घोषित नहीं किय़ा है। लेकिन स्वामी रामदेव दिल्ली से लेकर मुंबई और भोपाल से लेकर जयपुर तक, यह कहते घूम रहे हैं कि मोदी को पीएम बनाने के लिए जो भी संभव होंगे, वे सारे प्रयास किए जाएंगे।
राजनीति में खुले तौर पर आते ही स्वामी रामदेव का असली व्यापारी चरित्र भी देश के सामने आ रहा है। व्यापारी तो वे पहले भी थे। सबसे पहले उन्होंने देश भर में योग की मुद्राएं बेचने का व्यापार शुरू किया, सीडी भी खूब बेचीं। उनके योग शिविर की फीस हजारों में होती है। फिर वे टूथ पेस्ट से लेकर जड़ी बूटियों और मलमपट्टी से लेकर पीने पिलाने की दवाइयों के धंधे में भी उतर आए। देश भर में उनकी दूकानें सजी हुई हैं। अब इस सबके साथ वे राजनीति में भी आ ही गए हैं। व्यापारी कुल मिलाकर सिर्फ सौदागर होता है, अपनी आदत नहीं छोड़ता। इसीलिए राजनीति में आते ही रामदेव ने बीजेपी से अपने लिए सीटों पर भी बात की। जिस राजनीति को गंदगी बताते हुए अपने योग शिविरों में स्वामी रामदेव पानी पी पी कर राजनीति को गालियां देते रहे हैं, आखिर उसी में जा कर गिरे। राजनीति अगर उनके कहे मुताबिक सचमुच गंदगी है, तो स्वामी रामदेव खुद उस गंदगी का हिस्सा हैं।
हमारे लोकतंत्र में हर किसी को अपनी बात कहने की आजादी है। स्वामी रामदेव को जब से यह समझ आ गया था, तब से ही वे खूब बोलने लग गए थे। विदेशी बैंकों में जमा भारत के काले धन को वापस लाना और भ्रष्टाचार के खिलाफ उनका बोलना खूब सराहा गया। इसी वजह से भारतीय समाज का एक बहुत बड़ा तबका शुरुआत में तो उनको जयप्रकाश नारायण का अवतार तक समझने लगा था। लोकप्रिय भी बहुत हुए। लेकिन सच्चाई यह है कि स्वामी रामदेव अपनी लोकप्रियता को पचा नहीं पाए। समझदार लोग कहते हैं, कि स्वामी बौरा गए। परिपक्व होते, तो राजनीतिक समझदारी और शातिरी दोनों सीख जाते, और खुद अपने हक में राजनीति और राजनेताओं का उपयोग करते। लेकिन स्वामी तो खुद ही राजनेताओं का खिलौना बन गए। कांग्रेस का विरोध, और कांग्रेस की कही हर क्रिया – प्रतिक्रिया पर अपना कटाक्ष करके वे चर्चा में तो रहे। पर कांग्रेस ने एक बेहद सोची समझी रणनीति के तहत दिग्विजय सिंह को आगे करके स्वामी को इसी काम में लगाए रखा, और अंततः रामदेव को राजनीति का जोकर बना डाला। जो लोग राजनीति नहीं जानते, उनके लिए स्वामी रामदेव के खिलाफ दिग्विजय सिंह के आग उगलते बयान भले ही हर बार जले पर मिर्ची छिड़कने जैसे थे। लेकिन स्वामी रामदेव की असलियत से कांग्रेस वाकिफ थी, यह अब लोगों को समझ में आ जाना चाहिए।
रामदेव बहुत पहले से बार बार यही कहते रहे कि उनकी किसी दल विशेष से कोई दुश्मनी नहीं है, और किसी खास पार्टी से नका कोई रिश्ता भी नहीं है। मगर पिछले साल चुपके चुपके बीजेपी के साथ गलबहियां करने की बात सामने आते ही मामला साफ हो गया था। अपन तो पहले ही कहते रहे हैं कि स्वामी रामदेव बीजेपी के एजेंट के रूप में काम कर रहे हैं, जिसे समझने की जरूरत है। लेकिन अब, आखिर कांग्रेस के खिलाफ बिगुल बजाने और मोदी का भोंपू बनने के साथ ही उनका एजेंडा साफ हो गया है। रामदेव का जन जागरण अभियान देश प्रेम से निकल कर कांग्रेस विरोध तक सिकुड़ कर रह गया है। तीन साल पहले स्वामी रामदेव ने जब अपना अभियान शुरू किया था, उसी वक्त अपन ने कहा था कि राजनीति समझनेवाले यह अच्छी तरह समझते हैं कि रामदेव अब चाहे कितना भी बवाल करते रहें, ना तो सरकार का कुछ बिगड़नेवाला है और ना ही कांग्रेस का कोई नुकसान होनेवाला। क्योंकि आम चुनाव में उस वक्त पूरे तीन साल बाकी थे। और अपना मानना है कि हमारी व्यवस्था ने इस देश के आम आदमी में इतनी मर्दानगी बाकी नहीं रखी है कि वह तीन साल के लंबे समय तक किसी आंदोलन को जिंदा रख सके। लेकिन इसके बावजूद गलती से इस दौरान अगर कोई मर्द पैदा हो भी गया, तो हमको यह भी समझना चाहिए कि सरकारें बहुत मजबूत मर्दों को भी नपुंसक बनाने के सारे सामानों से लैस होती है, इसीलिए समाजसेवा की सांसों से सजे स्वामी रामदेव सियासत की सेज में सिमट गए हैं। रामदेव का आंदोलन आखिर राजनीति की भेंट चढ़ गया।
याद कीजिए विदेशी बैंकों में जमा भारत के धन को वापस लाने की जो मुहिम वे चला रहे थे, उस पर आखरी बार उनने कब अपनी आवाज बुलंद की थी…। नहीं याद आ रहा है न…। स्वामी खुद भी भूल गए हैं। क्योंकि उन्होंने भी अपना फोकस बदल दिय़ा। इसे यूं भी कहा सकता हैं कि रामदेव का वह देश प्रेम का अभिनय अब कुल मिलाकर राजनीतिक अभियान बन गया है। दिल्ली के रामलीला मैदान में संपन्न रामदेव की रणछोड़ लीला के बाद समाज में उनकी साख की जो पूंजी बाकी बची थी, वह अब उनके नरेंद्र मोदी के प्रचारक बनकर घूमने से देश भर में तिरोहित हो रही है। समाज में सम्मान अपने कामों से मिलता है, उधार की औकात पर जुटाई ताकत के जरिए जिंदगी को संवारा नहीं जा सकता। आज भले ही स्वामी रामदेव नरेंद्र मोदी के नाम पर अपनी राजनीतिक साख जमाने में लगे हैं, लेकिन अगर पीएम की रेस में मोदी फ्लॉप हो गए तो…। रामदेव की योग लीला बढ़िया चल रही थी, लेकिन राजनीति में आकर वे अपनी उस साख को भी बट्टा लगा रहे हैं।
वैसे, ऐसा नहीं कि हमारे देश में आध्यात्मिक उपदेशकों और व धर्म गुरूओऔं को राजनीति में शुचिता पर बोलने का हक नहींम है। राजशाही के जमाने में भी वे तो राजाओं को भी दिशा देने तक का पूरा दायित्व निभाते रहे हैं। लेकिन स्वामी रामदेव सिर्फ और सिर्फ योग शिक्षक हैं। हालांकि उनकी वेशभूषा की वजह से हमारे देश के अनेक भोले लोग उनमें भी धर्म गुरू के दर्शन करते लेते हैं। लाखों लोगों की उनमें व्यक्तिगत निष्ठा भी है। उनके अनुयाइयों का परिवार भी बहुत वृहत्त है। पर, कोई भले ही यह मानें या न माने, लेकिन सच यही है कि राजनीतिक में घुसकर जिस तरह से वे सिर्फ और सिर्फ कांग्रेस के विरोध में आग उगल रहे हैं, और सिर्फ और सिर्फ बीजेपी और के भोंपू बनते रहे हैं, उससे उनकी योग गुरू होने की छवि पर भी बहुत बड़ा असर पड़ा है।
ईश्वर करे, बीजेपी को बढ़ाने और नरेंद्र मोदी को पीएम बनाने की उनकी मुहिम को मुकाम मिले, लेकिन इस सब में स्वामी रामदेव की अपनी निजी प्रतिष्ठा का जो कबाड़ा होना था, वह हो गया है। और भले ही कितनी भी कोशिश कर लें, इस जनम में तो स्वामी रामदेव को अपनी वह प्रतिष्ठा फिर से हासिल नहीं हो सकती, यह भी सच्चाई है। भटके हुए लोग भले ही जीवन के किसी मुकाम पर भले ही ठिकाने पर आ जाएं, पर भटकन का वह इतिहास उनके भाग्य में हमेशा जिंदा रहता है। दुर्भाग्य से रामदेव भी एक भटके हुए स्वामी ही हैं, यह तो आपको भी मानना पड़ेगा। और यह भी मानना पड़ेगा कि राजनीति अगर गंदगी है, तो अब रामदेव भी एक गंदे स्वामी नहीं तो और क्या है ?
लेखक निरंजन परिहार राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार हैं.