राजेन्द्र यादव नहीं रहे. हिन्दी साहित्य का एक सितारा सो गया. राजेन्द्र यादव को क्या कहा जाय कहानीकार, उपन्यासकार, कवि या सम्पादक. राजेन्द्र यादव ने सब कुछ तो किया और वो भी मजबूती के साथ. साहित्य के मठों में नहीं गये लेकिन हर मठाधीश उनके सामने सिर झुकाता था.
आगरा में 1929 में जन्में और प्रारम्भिक से लेकर उच्च शिक्षा आगरा में ही प्राप्त की. 1951 में आगरा विश्वविद्यालय से एमए हिन्दी प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण किया. उनका विश्वविद्यालय में पहला स्थान रहा था.
नयी कहानी की तिकड़ी के तीसरे स्तम्भ थे राजेन्द्र यादव. उन्होंने कमलेश्वर और मोहन राकेश के साथ मिलकर हिन्दी साहित्य में नयी कहानी की शुरुआत की थी. उन्होंने अपनी रचनाओं में समाज के वंचित तबकों तथा महिला अधिकारों की पैरवी की. उन्होंने हिन्दी में स्त्री आंदोलन और उसके लेखन को एक आवाज और दिशा दी.
प्रेमचंद द्वारा प्रकाशित की जाने वाली पत्रिका हंस का पुनर्प्रकाशन शुरू किया और अन्त तक इसके सम्पादक बने रहे. उन्होंने प्रेमचंद के जन्मदिवस 31 जुलाई 1986 को अक्षर प्रकाशन के तले इसका प्रकाशन प्रारम्भ किया. हंस के सम्पादक रहते हुए उन्होंने इस साहित्यिक पत्रिका को सामाजिक बहसों का मंच बना दिया जो एक बड़ी उपलब्धि रही. वे बहसें जो इस समाज में यहां तक कि साहित्यिक बिरादरी में भी नहीं हो रही थी, राजेन्द्र यादव उन्हें बाहर ले आये.
राजेन्द्र यादव ने हिन्दी के नये ना जाने कितने नये कथाकारों को हंस में स्थान दिया. वे ऐसे सम्पादक रहे जो रचना के अप्रकाशित होने पर भी पाठक को सूचना देते थे तथा साथ में रचना की कमियों पर टिप्पणी भी करते थे कि कैसे इसे सुन्दर बनाया जाय. हंस का जो स्थान आज था उसके लिये राजेन्द्र जी ही जिम्मेदार थे.
उनके निधन पर साहित्य जगत से उन्हें श्रद्धांजलि दी जा रही है. उनके साथ हंस में काम कर चुके तथा वर्तमान में समकालीन सरोकार के सहायक सम्पादक हरेप्रकाश उपाध्याय ने अपने फेसबुक पेज पर उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए कहते हैं कि "मैंने अब तक के जीवन में उन जैसा जनतांत्रिक व्यक्ति नहीं देखा। वे हम जैसे नवोदित और अपढ़-अज्ञानी लोगों से भी बराबरी के स्तर पर बात करते थे और अपनी श्रेष्ठता को बीच में कही फटकने तक नहीं देते थे."
हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा में प्राध्यापक सुनील कुमार सुमन ने लिखा है "राजेन्द्र जी घोषित तौर पर अंबेडकरवादी नहीं थे लेकिन उन्होंने अंबेडकरवाद की ज़मीन तैयार करने में अपनी बड़ी भूमिका निभाई. तमाम तरह की कुंठाओं और सामंती संस्कारों से लैस हिंदी के बड़े-बड़े मठाधीशों के बीच राजेन्द्र जी 'डॉन' बनकर अपनी ठसक के साथ रहे और ब्राह्मणवाद के खिलाफ अपनी लौ को अंत तक तेज़ किए रहे."
राजेन्द्र यादव इस समय के सबसे चर्चित कहानीकार थे लेकिन उन्होंने केवल कहानी ही नहीं बल्कि उपन्यास कविता तथा कई रचनाओं का अनुवाद भी किया. वे पिछले कुछ समय से अस्वस्थ होने के बावजूद हंस का संपादन करते रहे.
प्रेत बोलते हैं, उखड़े हुए लोग, कुल्टा, शह और मात, एक इंच मुस्कान इनके प्रमुख उपन्यास हैं. प्रेत बोलते हैं जिसका पुनः प्रकाशन सारा आकाश के नाम से हुआ, इस पर सारा आकाश नाम से ही वासु चटर्जी ने एक फिल्म भी बनायी थी. इनके कई कहानी संग्रह प्रकाशित हुए जिनमें देवताओं की मृत्यु, खेल खिलौने, जहां लक्ष्मी कैद है, वहां पहुचने की दौड़ प्रमुख है. आवाज तेरी है के नाम से इनका एक कविता संग्रह भी प्रकाशित हुआ.
राजेन्द्र यादव अपने विचार बेबाकी से रखने के लिये जाने जाते रहे. इसकी वजह से वो विवादों में भी रहे. हंस के सालाना वर्षगांठ पर किये जाने कार्यक्रमों की वजह से भी वो विवादों में आये तथा लोगों ने उनपर आरोप लगाये. ये भी कहा गया कि वे जानबूझकर चर्चा में बने रहने के लिये विवाद करते हैं. वे अपने ऊपर लगे आरोपों पर हंस में जवाब देते थे.
उनका विवाह मन्नू भंडारी के साथ हुआ था. उनकी एक बेटी है. मन्नू भंडारी भी लेखिका हैं राजेन्द्र यादव के साथ उनका एक उपन्यास एक इंच मुस्कान 1963 में प्रकाशित हो चुका है. उनका वैवाहिक जीवन सुखद नहीं रहा था और उन्होंने एक दूसरे से दूर रहने का फैसला कर लिया था.