''मुझे अनाड़ी मत समझो, मै ठेठ पहाड़ी हूं, रग-रग में मेरे जोश भरा, मैं खतरों का खिलाड़ी हूं…'' यह पंक्तियां मैं ऐसे लेखक के लिए उचित मानता हूं जो आज पर्वतीय हितों का असली रक्षक बन कर उभरा है. उनकी असली चिंता आज केवल पर्वतीय हितों का संरक्षण मात्र है. पर्वतीय हितों के खिलाफ कुछ भी मामला होने पर वह आज न केवल उसे बेनकाब कर रहे हैं अपितु उसके खिलाफ जमकर संघर्ष भी कर रहे हैं. पर्वतीय हितों के इस असली रणबांकुरे का नाम है राजेन टोडरिया. उत्तराखण्ड में यूं तो वह अनेक समस्या उठा चुके हैं परन्तु मैं इस समय उनके द्वारा उठाये गये दो मामले प्रकाशित कर रहा हूं….
राजेन टोडरिया लिखते हैं कि मेरे सामने हल्द्वानी के मुक्त विवि के कागजात हैं और मैं हैरत में हूं कि इतने बड़े पैमाने पर क्या कहीं भ्रष्टाचार संभव है। लेकिन इससे भी ज्यादा हैरत अंगेज ही नही बल्कि शर्मनाक बात यह है कि इस विवि में ड्राइवर से लेकर कुलपति तक यूपी के लोग नियुक्त होते रहे और हल्द्वानी में पत्ता तक नहीं खड़का? पहाड़ के संजना रौतेला, बालम दफौटी, अंजना जोशी, नेहा चैहान, पवन उप्रेती, प्रीति बोरा, अनिल टम्टा, सिद्धार्थ पोखरियाल, भगवती पंत, वीना जोशी, सुभाष भट्ट, शीला रजवार, ललित मोहन भट्ट, उदित पांडे राघवेंद्र, कविता कुमारी, राजेंद्र गोस्वामी और आकांक्षा जोशी ये 18 लोग हैं जिन्हें किसी न किसी बहाने महज इसलिए हटा दिया गया क्योंकि ये पहाड़ी थे, तब भी किसी का स्वाभिमान नहीं जगा। समूचा मीडिया मुंह सी कर चुप बैठा रहा क्योंकि ओपन विवि ने नोटों से मीडिया के मुंह भर दिए थे। एक महिला कर्मी की जासूसी करने के लिए कुलपति कानपुर और वाराणसी के दो कर्मचारियों को लगाते हैं पर न तो हल्द्वानी को गुस्सा आता है और न राज्य का महिला आयोग कुछ करता है। एकाध दिन हल्ला और आंदोलन होता है पर दोषी गिरफ्तार नहीं होते और आज तक छुट्टे घूम रहे हैं। विवि के कुलपति के संरक्षण में कानपुर और बनारस के गुंडे हल्द्वानी में पनप रहे हैं।
अब जरा ओपन विवि की तस्वीर देखिये। कुलपति, रजिस्टार, उपकुल सचिव, सहायक कुलपति, परीक्षा नियंत्रक, सहायक प्राध्यापक से लेकर वाहन चालक तक के पदों पर कानपुर, झांसी, बनारस और बिहार के लोगों की नियुक्ति से जाहिर है कि विवि में खुलेआम नंगा पहाड़ विरोधी क्षेत्रवाद चल रहा है। विवि को आपूर्ति करने वाली सारी फर्में या कंपनियां कानपुर की हैं और निर्माण एजेंसी यूपी निर्माण निगम है। धंधे में भी क्षेत्रवाद! कमीशन भी उत्तराखंड के व्यवसायियों से नहीं खायेंगे। उसके लिए भी आदमी कानपुर से ही लायेंगे। गजब यह है कि योग्यता सूची में जो व्यक्ति सबसे निचले पायदान पर था उसे राजनाथ सिंह के दबाव में सन् 2006 में कुलपति बना दिया गया। यह भी ध्यान नहीं रखा गया कि उस व्यक्ति ने सन्2004 में ही पीएचडी की है और एक भी छात्र को पीएचडी नहीं कराई। जिस व्यक्ति को कुलपति जैसे गरिमा के पद के लिए आवेदन में फर्जी दस्तावेज बनाने और प्रस्तुत करने के आरोप में जेल में होना चाहिए था उसे पांच साल तक कुलपति बनाए रखा गया और पूरे प्रदेश के राजनीतिक नेता नपुंसकों की तरह यह सब होते देखते रहे। विधानसभा में एक भी सवाल किसी ने नहीं पूछा,किसी नेता ने बयान तक नहीं दिया। यह कैसे राज्य में रह रहे हैं हम लोग, क्या यह उन्ही लोगों का राज्य है जिन्होने 1994 जैसा आंदोलन किया था? जो लोग हम पर क्षेत्रवाद फैलाने का आरोप लगा रहे हैं उनकी जानकारी के लिए हम इतना बता देना चाहते हैं कि अपने घर में अपने युवाओं और बेरोजगार भाईयों के साथ ऐसी बेइंसाफी तो हम बर्दाश्त नहीं करेंगे, इसके लिए चाहे कितने बलिदान क्यों न देने पड़ें। कितने ही भरत झुनझुनवालाओं के मुंह पर कालिख पोतनी पड़े, हम यह करेंगे और पहाड़ के हर आदमी से भी कहेंगे कि वो अपने बेटे, बेटियों, भाई बहनों के भविष्य को बचाने के लिए यही करे। यदि यही भाषा ओपन विवि के कुलपति से लेकर भरत झुनझुनवाला तक मौजूद पहाड़ विरोधी क्षेत्रवादियों को समझ में आती है तो हम यही भाषा बोलेंगे।
इसके अलावा राजेन टोडरिया की चिंता यहां भी झलकी जब उन्होंने लिखा कि मुझे यह जानकर अचरज हुआ है कि उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने यह निर्णय दिया है कि राज्य के गठन के समय जो भी लोग उत्तराखड में रह रहे थे वे उत्तराखंड के मूल निवासी हैं। हालांकि मूल निवास से मतलब होता है कि उस इलाके में जो लोग तीन पीढ़ियों से रह रहे हों उन्हे मूल निवासी माना जाता है। मूल निवासी का खाता खतौनी,परिवार रजिस्टर में नाम होना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट 26 जनवरी 1950 तक जो नागरिक जिस राज्य में रह रहा था उसे वहां का मूल नागरिक मानता है। इसके बावजूद यदि उच्च न्यायालय ने विवाद के इस पिटारे को खोल ही दिया है तो उत्तराखंड सरकार को तत्काल सर्वोच्च न्यायालय में अपील दायर कर इस आदेश पर स्टे लेना चाहिए। हाईकोर्ट के इस आदेष पर पूरे देश में प्रतिक्रिया होनी तय है। इसके विरुद्ध सारे दक्षिण भारतीय राज्यों, महाराष्ट्र ,पंजाब, हिमाचल, झारखंड, छत्तीसगढ़ और पूर्वोत्तर राज्यों के मूल निवासी समाजों के संगठनों को भी सर्वोच्च न्यायालय में अर्जी दायर कर उन्हे भी पक्ष बनाने का आग्रह करना चाहिए ताकि सर्वोच्च न्यायालय मूल निवास से जुड़े सारे सवालों पर विचार कर सके और देश में ऐसा कानून बन सके जिससे मूल निवासी समाजों की पहचान की रक्षा हो सके। केंद्र सरकार भी यदि इस मामले को यदि राष्ट्रीय विवाद नहीं बनाना चाहता है तो उसे मूल निवास के मामले पर एक विधेयक संसद में लाना चाहिए ताकि विभिन्न राज्यों के मूल निवासी समाजों और क्षेत्रीय अस्मिताओं की रक्षा हो सके। मूल निवास के सवाल पर थोड़ी सी असावधानी देष के लिए बोडो जैसे संक्टों की श्रृंखला तैयार कर सकती है। लेकिन इस मामले को राष्ट्रीय स्तर पर बहस का मुद्दा बनाने के लिए उंताखंड के मूल निवासी समाज को ही आगे आना होगा। इस पर जनमत तैयार करना होगा और इस निर्णय से पैदा होने वाले नतीजों पर पूरे समाज में व्यापक बहस होनी चाहिए। इन बहसों और जनमत के जरिये राज्य सरकार पर दबाव डालने के लिए राज्यभर में एक अभियान चलाया जाना चाहिए। सरकार पर दबाव डालने के लिए उत्तराखंड आंदोलन की तर्ज पर एक बड़ा आंदोलन करना होगा जब तक सर्वोच्च न्यायालय इस आदेश पर रोक नहीं लगाता तब तक सारी नियुक्तियों पर रोक लगाई जानी चाहिए। मुझे लगता है कि उत्तराखंड के मूल निवासी समाज इस समय इतिहास के सबसे बड़े संकट से गुजर रहे हैं। इस संकट से लड़ने के लिए बहुत ही तीव्र आंदोलन चाहिए। मुझे पूरा यकीन है कि हाईकोर्ट का यह आदेश पूरे राज्य में जनजागृति और जनमत का एक तूफान खड़ा करेगा और इस तूफान में कई कश्तियां डूबेंगी। हमें उत्तराखंड उच्च न्यायालय का शुक्रगुजार होना चाहिए कि उसने 1994 की तरह पहाड़ के लोगों को जगाने का काम किया है। अब हर इंटर कालेज, डिग्री कालेज, हर सरकारी कार्यालय, पहाड़ के हर कस्बे के चौराहों और गांव की चाय की दुकानों पर यह बहस छिड़ जानी चाहिए कि मूल निवासी होने का अर्थ और उसका गौरव क्या होता है। बार एशोसियेशनों, वकीलों, न्यायविदों को भी इस फैसले के दूरगामी परिणामों पर बहस के लिए आगे आना होगा। उत्तराखंड के भविष्य के लिए यह पूरा घटनाक्रम ऐतिहासिक होने वाला है।
उपरोक्त लेख चन्द्रशेखर जोशी ने पिछले साल अगस्त महीने में अपने पोर्टल हिमालय गौरव उत्तराखंड पर प्रकाशित किया था.