लंबी जद्दोजहद के बाद कांग्रेस नेतृत्व ने आखिरकार आंध्र प्रदेश का बंटवारा करके तेलंगाना राज्य के गठन के लिए अपनी मंजूरी दे ही दी। आज (बुधवार) कैबिनेट की बैठक में तेलंगाना के प्रस्ताव पर मुहर लग जाएगी। पिछले पांच दशकों से तेलंगाना के मुद्दे पर आंदोलन चल रहा है। यूं तो कांग्रेस नेतृत्व ने 2009 में ही तेलंगाना के गठन की तैयारी कर ली थी। लेकिन, उस दौर में आंध्र प्रदेश के रॉयल सीमा और तटीय आंध्र के हिस्सों में इतनी उग्र प्रतिक्रिया हुई, जिसे देखते हुए कांग्रेस नेतृत्व ने इस फैसले को ठंडे बस्ते में डालने की कोशिश की थी।
लेकिन, तेलंगाना की आग इतनी भड़क चुकी थी कि इसे पूरी तरह से दबाना संभव नहीं रहा। इस मुद्दे को लेकर मनमोहन सरकार भी लंबे समय से खासी दुविधा में फंसी रही है। अगले कुछ महीनों में लोकसभा के चुनाव होने हैं। ऐसे में, पार्टी रणनीतिकारों ने अलग तेलंगाना के गठन को मंजूरी देना जरूरी समझा। क्योंकि, ऐसा न करने पर कांग्रेस को भारी राजनीतिक नुकसान होने की आशंका थी। इसी को देखते हुए पार्टी नेतृत्व ने तेलंगाना राज्य के गठन को मंजूरी दे दी है। इस फैसले पर यूपीए के घटक दलों ने भी अपनी मुहर लगा दी है।
तेलंगाना के मुद्दे पर कांग्रेस नेतृत्व ने कल दिनभर मंत्रणाओं का दौर जारी रखा। पहले यूपीए घटकों की समन्वय समिति की बैठक की गई। इस बैठक में यूपीए के सभी घटकों ने अलग तेलंगाना प्रदेश बनाने के लिए आम सहमति से मंजूरी दे दी। इस बैठक के कुछ देर बाद ही कांग्रेस कार्य समिति की बैठक हुई। इसमें तेलंगाना के फैसले पर मुहर लगा दी गई। कैबिनेट से मंजूरी दिलाने के बाद नए राज्य के गठन की वैधानिक प्रक्रिया आगे बढ़ेगी। कांग्रेस रणनीतिकारों ने उम्मीद जाहिर की है कि संसद के मानसून सत्र में ही तेलंगाना के विधेयक को दोनों सदनों में मंजूरी मिल जाएगी। इसके बाद संसद का प्रस्ताव राष्ट्रपति भवन मंजूरी के लिए भेजा जाएगा।
तेलंगाना के मुद्दे पर हुए इस बड़े फैसले से एक ओर जहां तेलंगाना के 10 जिलों में खुशी की लहर देखी गई, वहीं शेष आंध्र के हिस्सों में भारी नाराजगी की खबरें आने लगी हैं। खुफिया एजेंसियों ने केंद्रीय गृह मंत्रालय को पहले ही अगाह कर दिया था कि तेलंगाना के गठन के फैसले से रॉयल सीमा और तटीय आंध्र के हिस्सों में कुछ जगह हिंसक तांडव भी हो सकता है। ऐसे में, जरूरी है कि संवेदनशील इलाकों में अर्द्ध सैनिक बलों की तैनाती करा दी जाए। इस खतरे को देखते हुए कई शहरों में अर्द्ध सैनिक बलों के 3 हजार जवानों की तैनाती करा दी गई थी। सरकार के सामने मुश्किल यह है कि तेलंगाना के फैसले को लेकर कांग्रेस के अंदर ही राज्य में क्षेत्रवाद की राजनीति ने उग्र रूप धारण कर लिया है। इस स्थिति को काबू में रखना नेतृत्व के लिए बड़ी चुनौती बन गई है। इतना जरूर हुआ है कि तमाम आशंकाओं के बावजूद मुख्यमंत्री किरण कुमार रेड्डी ने अपने पद से इस्तीफा नहीं दिया है। जबकि, दो दिन से इस तरह की अफवाहें फैल रही थीं कि मुख्यमंत्री रेड्डी ने तेलंगाना के मुद्दे पर इस्तीफे का अल्टीमेटम दे दिया है। इतना ही नहीं रॉयल सीमा और तटीय आंध्र से आने वाले चार केंद्रीय मंत्रियों ने भी फिलहाल, चुप्पी साध ली है। जबकि, इनकी तरफ से यही संकेत मिल रहे थे कि तेलंगाना राज्य बनाने का फैसला हुआ, तो ये लोग भी मंत्री पदों से तुरंत इस्तीफा दे देंगे।
हालांकि, कांग्रेस के बड़े नेता भी अभी दावे से नहीं कह पा रहे हैं कि तेलंगाना के मुद्दे पर पार्टी के अंदर कोई बड़ा बवाल नहीं खड़ा हो सकता। क्योंकि, मुख्यमंत्री रेड्डी अपने समर्थकों के दबाव से काफी बेचैन बताए जा रहे हैं। आंध्र के कई केंद्रीय मंत्रीगण भी भारी दबाव में माने जा रहे हैं। क्योंकि, इन्हें खतरा है कि तेलंगाना के फैसले के बाद भी वे कुर्सी से चिपके रहे, तो स्थानीय जनता के गुस्से का शिकार बन सकते हैं। मंगलवार की सुबह आंध्र क्षेत्र से आने वाले केंद्रीय मंत्री एम. एम पल्लम राजू, जे.डी. सीलम, डी. पुरंदेश्वरी व पनाबका लक्ष्मी ने पार्टी के महासचिव दिग्विजय सिंह से मुलाकात की थी। उल्लेखनीय है कि दिग्विजय सिंह आंध्र के संगठन मामलों के प्रभारी भी हैं। इन मंत्रियों ने पार्टी महासचिव से कहा था कि मौजूदा स्थितियों में तेलंगाना के गठन का फैसला काफी विस्फोटक हो सकता है। इस फैसले के बाद मंत्री पदों पर बना रहना उनके लिए मुश्किल होगा।
समझा जाता है कि इन मंत्रियों ने सामूहिक रूप से ऐन मौके पर दबाव बढ़ाने की कोशिश की थी। लेकिन, यह कवायद ज्यादा कारगर नहीं रही। क्योंकि, तीन दिन पहले ही पार्टी के कोर ग्रुप ने तेलंगाना के मुद्दे पर सैद्धांतिक सहमति का फैसला कर लिया था। कांग्रेस सूत्रों के अनुसार, इस फैसले के पीछे रणनीति यही रही है कि ऐसा करने से तेलंगाना क्षेत्र की 17 लोकसभा सीटों में से कम से कम 10 तो पक्के तौर पर कांग्रेस की झोली में आ ही जाएंगी। यदि तेलंगाना का फैसला लंबित रखा जाता है, तो लोकसभा के चुनाव में हो सकता है कि पार्टी को यहां एक भी सीट न मिले। ऐसे में, इतना राजनीतिक जोखिम लेना ठीक नहीं रहेगा। इसकी एक वजह यह भी है कि इस बार तटीय आंध्र और रॉयल सीमा के इलाके में कांग्रेस के हालात अच्छे नहीं रहे। क्योंकि, वाईएसआर कांग्रेस के नेता जगन मोहन रेड्डी की बढ़ी लोकप्रियता ने कांग्रेस की संभावनाएं काफी कमजोर बना दी हैं।
दरअसल, तेलंगाना के मुद्दे ने आंध्र की राजनीति में कांग्रेस को काफी कमजोर बना दिया है। यह मुद्दा पार्टी के लिए लंबे समय से दोधारी तलवार बना हुआ है। जबकि, पिछले चुनाव में आंध्र की 42 लोकसभा सीटों में से कांग्रेस की झोली में 33 सीटें आई थीं। इस तरह से देश में किसी एक प्रदेश से कांग्रेस को सबसे ज्यादा सीटें आंध्र से ही मिली थीं। 2009 के चुनाव में कांग्रेस के पास यहां पर लोकप्रिय नेता वाई. एस. राजशेखर रेड्डी थे। लेकिन, एक हेलीकॉप्टर दुर्घटना में उनकी आकस्मिक मौत के बाद यहां कांग्रेस का खेल बिगड़ता चला गया। मुख्यमंत्री पद के मुद्दे पर राजशेखर रेड्डी के पुत्र जगन मोहन रेड्डी ने कांग्रेस आलाकमान से टकराव की मुद्रा अपना ली थी। जब तमाम जिद के बाद उन्हें अपने पिता की जगह मुख्यमंत्री पद की कुर्सी नहीं मिली, तो उन्होंने कांग्रेस नेतृत्व को ठेंगा दिखाने की जुर्रत करनी शुरू की थी। इसी प्रक्रिया से जगन मोहन रेड्डी कांग्रेस के विद्रोही नेता बन गए। अंतत: उन्होंने कांग्रेस को राजनीतिक चुनौती देने के लिए वाईएसआर कांग्रेस पार्टी बना ली। जगन रेड्डी का रॉयल सीमा क्षेत्र के बड़े इलाके में राजनीतिक दबदबा हो गया है। तटीय आंध्र के कई संसदीय क्षेत्रों में भी जगन मोहन का प्रभाव बढ़ा है। यह अलग बात है कि आय से अधिक संपत्ति के मामले में जगन मोहन पिछले कई महीनों से जेल के अंदर हैं। लेकिन, जेल के सीखचों में रहकर भी वे लगातार कांग्रेस की राजनीति को झटका देने में सफल रहे हैं।
उल्लेखनीय है कि रॉयल सीमा और तटीय आंध्र के लोग राज्य के विभाजन के धुर खिलाफ रहे हैं। इसी खिलाफत की वजह से तेलंगाना के गठन का मामला लगातार टलता आया है। तेलंगाना के मुद्दे पर ही कांग्रेस के नेता के. चंद्रशेखर राव कई साल पहले पार्टी से अलग हो गए थे। उन्होंने तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस) का गठन किया था। चंद्रशेखर की इस पार्टी को तेलंगाना क्षेत्र के 10 जिलों में काफी सफलता भी मिलती रही है। यूपीए-1 की सरकार में वे केंद्रीय मंत्री भी बने थे। क्योंकि, कांग्रेस नेतृत्व ने उन्हें आश्वासन दिया था कि यूपीए सरकार जल्दी ही तेलंगाना के गठन का फैसला कर लेगी। लेकिन, जब सरकार यह फैसला लगातार टालती रही, तो चंद्रशेखर सरकार से अलग हो गए थे। उन्होंने तेलंगाना में यह प्रचार किया कि कांग्रेस धोखेबाजी की राजनीति करती है।
एक तरफ रॉयल सीमा क्षेत्र में जगन मोहन रेड्डी की बढ़ती लोकप्रियता, दूसरी तरफ तेलंगाना के मुद्दे पर पार्टी के अंदर का दबाव इतना सघन हुआ कि कांग्रेस के लिए धर्म संकट खड़ा हुआ। कांग्रेस नेतृत्व के लिए तेलंगाना के मुद्दे पर कई ऐसे बिंदु हैं, जिनको लेकर अब तक माथापच्ची जारी है। तेलंगाना क्षेत्र में 10 जिले आते हैं। इनमें ग्रेटर हैदराबाद, रंगारेड्डी, मेडक, नालगोंडा, महबूबनगर, वारंगल, करीमनगर, निजामाबाद, आदिलाबाद व खम्मम हैं। इन जिलों की आबादी करीब साढ़े 3 करोड़ है। इसका क्षेत्रफल 1,14,800 वर्ग किमी है। तेलंगाना क्षेत्र पहले निजाम की हैदराबाद रियासत का हिस्सा था। तेलंगाना का मतलब होता है, तेलुगु की धरती। आजादी के बाद 1948 में निजाम की हैदराबाद रियासत का विलय भारत में हुआ था। इसके बाद से 1956 तक तेलंगाना का अस्तित्व एक अलग राज्य के रूप में रहा है। लेकिन, 1956 में इसका विलय आंध्र प्रदेश में कर दिया गया था। उल्लेखनीय है कि भाषा के आधार पर गठित होने वाला पहला राज्य आंध्र ही बना था।
हैदराबाद, करीब 400 साल पुराना शहर है। यहां पर आईटी उद्योग से लेकर विकास के तमाम भरपूर संसाधन हैं। करीब, 70 लाख की आबादी वाले इस महानगर की संपन्नता का आकलन इसी से किया जा सकता है कि आंध्र के कुल राजस्व का करीब आधा हिस्सा अकेले हैदराबाद शहर से ही आता है। इसीलिए हैदराबाद का मुद्दा टंटे की खास जड़ बना रहा है। फिलहाल, यही तय किया गया है कि दोनों प्रदेशों की संयुक्त राजधानी 10 सालों तक यहीं रहेगी। यह बात मान ली गई है कि हैदराबाद अंतत: तेलंगाना के हिस्से मेंं ही रहेगा। लेकिन, शेष आंध्र को नई राजधानी बनाने के लिए केंद्र सरकार से विशेष आर्थिक पैकेज मिलेगा। शेष आंध्र की राजधानी कहां बनाई जाएगी? इस पर बाद में फैसला होगा।
सवाल यह भी है कि तेलंगाना का भूगोल यही रहेगा या इसमें कोई बदलाव किया जाएगा? क्योंकि, एक प्रस्ताव यह भी है कि रॉयल सीमा क्षेत्र के दो जिलों अनंतपुर और कर्नूल को तेलंगाना में शामिल कर लिया जाए, तो दोनों प्रदेशों में कांग्रेस के लिए राजनीतिक रूप से बेहतर अवसर बनेंगे। उल्लेखनीय है कि इन दोनों जिलों में दलित आबादी काफी है। इससे तेलंगाना के समीकरण कांग्रेस के लिए कुछ अनुकूल बन सकते हैं। जबकि, टीआरएस के नेता चंद्रशेखर राव, इस प्रस्ताव के खिलाफ माने जाते हैं। रॉयल सीमा क्षेत्र के कई दिग्गज नेता भी तमाम कारणों से इस तरह के प्रस्ताव के विरोधी हैं। तेलंगाना के मौजूदा 10 जिलों में मुस्लिम आबादी महज 2 प्रतिशत है। दलित आबादी का औसत भी काफी कम है। ऐसे में, जातीय आधार पर कांग्रेस के लिए चुनावी समीकरण अनुकूल नहीं माने जा रहे। भाजपा, पिछले कई सालों से तेलंगाना के समर्थन में है। ऐसे में, कई संसदीय क्षेत्रों में उसकी संभावनाएं अच्छी बन गई हैं। अनंतपुर और कर्नूल शामिल करने के मुद्दे पर टीआरएस के लोग यह कहकर विरोध कर रहे हैं कि इन जिलों का तेलंगाना की संस्कृति से कोई जुड़ाव नहीं है। ऐसे में, इन्हें तेलंगाना का हिस्सा नहीं बनाया जाना चाहिए।
2009 में तेलंगाना की मांग को लेकर के. चंद्रशेखर राव ने 10 दिन का उपवास किया था। उस दौर में उनके आमरण अनशन को लेकर यहां पर हिंसा का तांडव हुआ था। इसी को देखते हुए तत्कालीन गृहमंत्री पी. चिदंबरम ने तेलंगाना गठन का ऐलान किया था। यह अलग बात है कि बाद में सरकार कई कारणों से इस वायदे से मुकर गई थी। केंद्र सरकार ने तेलंगाना के मुद्दे पर 2010 में जस्टिस कृष्णा आयोग बना दिया था।
इस आयोग ने अपनी रिपोर्ट बड़ी गोल-मोल दी थी। यही कहा था कि अलग राज्य गठित करने की जगह तेलंगाना के खास विकास के लिए एक क्षेत्रीय परिषद का गठन किया जा सकता है। लेकिन, तेलंगाना क्षेत्र के लोगों ने इस सिफारिश को स्वीकार करने से इनकार किया था। इस आंदोलन में कांग्रेस के लोगों ने जमकर हिस्सेदारी की, तो नई जान पड़ी। इसी वजह से तेलंगाना के कांग्रेसी नेताओं ने अलग राज्य के लिए दबाव गुट बना लिया। हालांकि, मुख्यमंत्री रेड्डी अंदर ही अंदर इसकी खिलाफत करते आए हैं। क्योंकि, वे रॉयल सीमा क्षेत्र से आते हैं। तेलंगाना, देश का 29वां राज्य होगा।
लेखक वीरेंद्र सेंगर डीएलए (दिल्ली) के संपादक हैं। इनसे संपर्क [email protected] के जरिए किया जा सकता है।