: काटजू की अदा, बातें कम और फैसले ज्यादा : डेली न्यूज ऐक्टिविस्ट के मामले में लगातार उत्पीड़ित करने वाले अधिकारियों के बारे में ताजा ऐप्लिकेशन मांगी : लखनऊ। न्यायमूर्ति मार्कंडेय काटजू को विवादों में रहना शायद पसंद है। वे किसी भी मुद्दे पर खुलकर बोलते हैं, अपनी स्थापनाओं के साथ। यह तो मानना पड़ेगा कि उन्होंने जब से प्रेस परिषद के अध्यक्ष का काम संभाला है, परिषद में सक्रियता आयी है लेकिन प्रेस की या प्रेस के खिलाफ शिकायतें सुनते समय वे पूरे अरिस्टोक्रेट के अंदाज में रहते हैं। ज्यादा सुनना नहीं चाहते, फैसला सुनाने की जल्दी में रहते हैं, बिल्कुल अपने अदालती अंदाज में। खुद को बार-बार उद्धृत करने में भी शायद उन्हें आनंद मिलता है। लेकिन कई बार वे काम की चीजें होती हैं। जाहिर है, एक न्यायाधीश के रूप में उन्होंने बहुत सारे फैसले दिये होंगे और उनमें लोकहित के तत्व जरूर होंगे।
सोमवार को प्रेस कौंसिल ने प्रेस, अखबारों और प्रशासन या पुलिस से संबंधित तीन दर्जन से ज्यादा मामलों की सुनवाई की। वैसे तो कौंसिल को बहुत अधिकार नहीं हैं लेकिन उसके निर्देशों की नैतिक मान्यता होती है, इस नाते बहुत सारे ऐसे लोग जो प्रेस से पीड़ित होते हैं या जिनसे प्रेस पीड़ित होता है, अपनी शिकायतें प्रेस कौंसिल तक पहुंचाते हैं। लेकिन ज्यादातर शिकायतें यूं ही कर दी जाती हैं। जहां सामान्य तौर पर कानून मदद कर सकता है, वहाँ भी कानूनों की जानकारी के अभाव में लोग प्रेस कौंसिल चले जाते हैं। काटजू ने ऐसे कई मामलों में शिकायतकर्ताओं को नयी जानकारियाँ दीं। कइयों को अपने ही फैसलों से मिल सकने वाले कानूनी फायदों केप्रति सचेत भी किया। सुनवाई केदौरान उन्होंने बार-बार अपने को कोट किया। लगा कि अभी भी उनका न्यायाधीश पूरी शिद्दत से उनके भीतर सक्रिय है।
मामलों को निबटाने में काटजू साहब बहुत देर नहीं लगा रहे थे। बहुत फास्ट। पर दो बहुत महत्वपूर्ण मामले सोमवार की सुनवाई के दौरान कौंसिल के सामने थे। एक डेली न्यूज ऐक्टिविस्ट के खिलाफ उत्तर प्रदेश अल्पसंख्यक वित्त एवं विकास निगम लिमिटेड के प्रबंध निदेशक रहे विमल चंद श्रीवास्तव की शिकायत और दूसरी दिल्ली के एक अंग्रेजी अखबार के खिलाफ महिला आयोग की शिकायत। डीएनए के खिलाफ शिकायत करने वाले सज्जन अनुपस्थित थे। आनन-फानन में काटजू साहब ने कहा कि जब शिकायत करने वाले को ही चिंता नहीं है तो मामला खारिज करते हैं। पर डीएनए की ओर से इसका शालीन प्रतिवाद करते हुए जब कहा गया कि यह कोई मामूली शिकायत नहीं है, जब आप ने बुलाया है तो बात तो सुनिये, तो वे थोड़ा ठहरे। डीएनए की ओर से कहा गया कि ठीक है, आप को मामला खारिज करना है तो कर दीजिये लेकिन असली बात समझ लीजिए। डीएनए को लगातार चार वर्षों से बसपा सरकार द्वारा सताया जा रहा था, इसका पंजीकरण तक नहीं होने दिया गया, नियमानुसार घोषणापत्र दाखिल किये जाने के बाद भी आथेंटिकेशन में जानबूझकर बाधाएं डाली गयीं। यहां तक कि हाई कोर्ट और प्रेस ऐंड रजिस्ट्रेशन अपीलेट बोर्ड के निर्देशों को भी ताक पर रख दिया गया। हर कोशिश की गयी कि अखबार को बंद करा दिया जाये। वे सफल हो जाते तो सैकड़ों कर्मचारी सड़क पर आ जाते।
कहना न होगा कि मामला खारिज करने जा रहे काटजू साहब ने ध्यान से सारी बातें सुनी, फिर कहा, भाई उस सरकार को तो जनता ने दंडित कर दिया है, अब आप को नयी सरकार से कोई शिकायत तो नहीं है। उन्हें बताया गया कि सरकार के जाने से प्रश्न खत्म नहीं हो जाता, क्योंकि प्रेस कौंसिल को उन अफसरों के खिलाफ क्यों नहीं कार्रवाई करनी चाहिए, जिन्होंने अपने राजनीतिक आकाओं के इशारे पर सारे नियम-कानून तोड़े, उनका उल्लंघन किया और मनमानी की। जस्टिस काटजू ने कहा कि उनके खिलाफ फ्रेश ऐप्लिकेशन भिजवाइये, देखा जायेगा। लेकिन इस बातचीत का असर यह हुआ कि उन्होंने बहुत महत्वपूर्ण कदम उठाते हुए इस मामले में एक अदभुत आदेश किया, जिसमें यह लिखा गया कि डीएनए लगातार हैरेसमेंट का शिकार होता रहा है। विस्तृत आदेश बाद में उपलब्ध हो पायेगा।
दूसरा खास मामला एक अंग्रेजी अखबार में प्रकाशित एक तस्वीर को लेकर था। महिला आयोग की तरफ से शिकायत की गयी थी कि तस्वीर अश्लील है, इसे प्रकाशित करके अखबार ने ठीक नहीं किया है। इस पर काटजू थोड़े दार्शनिक अंदाज में आ गये। श्लीलता और अश्लीलता की सीमा रेखा बहुत स्पष्ट नहीं होती। कई कलाकृतियाँ अश्लीलता की सीमा को लांघते हुए भी अश्लील नहीं मानी जातीं। इस पर फैसला करना कठिन था फिर भी काटजू ने अपनी भाषा में एक आदेश दर्ज कराया।
न्यायमूर्ति काटजू के प्रेस परिषद में काम संभालने केबाद परिषद की सक्रियता तो बढ़ी ही है, उनके असाधारण और विवादास्पद बयानों केकारण भी परिषद और उसके अध्यक्ष लगातार चर्चाओं में बने हुए हैं। उनकी कुछ बातें सटीक भी लगती हैं, लेकिन लगता है कभी-कभी वे चर्चा में बने रहने केलिए कुछ विवाद भी पैदा करने में यकीन रखते हैं। हाल में अखिलेश यादव को लेकर कुछ चैनल्स पर की जा रही टिप्पणियों के बारे में उनके बयान का स्वागत होना चाहिए। काटजू ने कहा कि युवा हैं, बाहर से पढ़े-लिखे हैं, अच्छा काम कर रहे हैं। उन्हें कुछ समय तो दीजिये। एक-दो साल बाद उनके काम का मूल्यांकन कीजिए। अभी क्यों चिल्ला रहे हैं कि गुंडाराज वापस आ गया है। इस तरह अखिलेश का मनोबल न घटाइये।
माना जाता है कि काटजू मीडिया के सख्त आलोचक हैं। वे अन्ना के बारे में अपनी धारणा बताते हुए कहते हैं कि मीडिया तो मुझे राक्षस समझता है, इसलिए मैं अन्ना के बारेमें कुछ कहने से बचता रहा हूं। इसमें कोई शक नहीं कि अन्ना इमानदार हैं पर भ्रष्टाचार मिटाने का कोई वैज्ञानिक सोच उनके पास नहीं है। खाली इंकलाब जिंदाबाद और भारत माता की जय के नारे लगाने से भ्रष्टाचार खत्म नहीं होगा। भीड़ से क्या मतलब, लोग भ्रष्टाचार से नाराज हैं, जुट जाते हैं, फिर घर लौटकर पहले जैसे हो जाते हैं। अन्ना का अल्कोहलिज्म पर नजरिया भी बड़ा बेकार है। शराब छुड़ानी है तो शराबी को पेड़ में बांधकर पीटो। अरे भाई, गरीब आदमी देसी दारू इसलिए पीता है कि वह कुछ देर अपनी तकलीफें भूले रहता है। शराब कम हो, इसके लिए उनका रहन-सहन का स्तर ऊपर उठाइये, पीटने से क्या होगा। मीडिया को लेकर उनकी बहुत अच्छी राय नहीं है लेकिन एलेक्ट्रानिक मीडिया को लेकर। भाषायी मीडिया से वह बहुत परिचित नहीं हैं। वे कहते हैं कि मीडिया तो 90 प्रतिशत समय मनोरंजन, सचिन के महाशतक और द्रविड़ के संन्यास जैसी बिना बात की बात पर खर्च करता है, इस देश में बेरोजगारी है, कुपोषण है, गरीबी है, उनके लिए मीडिया के पास समय नहीं है।
डेली न्यूज एक्टिविस्ट उर्फ डीएनए के एडिटर इन चीफ सुभाष राय की रिपोर्ट.