मतदाताओं को मतदान के दिन वोट देने के लिए प्रेरित करने की भी अपनी रणनीति बनायी थी। प्रचार के दौरान ही इस बात की पूरी कोशिश करता था कि वोटरों से लगातार सीधा संबंध बना रहे। इसके दो रास्ते थे। पहला था उनके साथ लगातार मिलते रहना और दूसरा था मोबाइल से संबंध। जनसंपर्क के दौरान वोटरों का पर्चा काटने का काम करता था। उसी दौरान उनका मोबाइल नंबर वोटर लिस्ट उनके नाम के सामने लिख लेता था। कभी-कभार उनको फोन करके बातचीत भी कर लेता था और अपनी उपस्थिति का अहसास करता था।
नंबर लिखने के दौरान संबंधित व्यक्ति के बारे में अधिकाधिक जानकारी लेने का प्रयास करता था। इस दौरान उनकी जाति, पारिवारिक स्थिति, राजनीतिक झुकाव, पंचायत का समीकरण समझने का प्रयास करता था। इससे कई चीजों को समझने में काफी सहूलियत होती थी। कुछ जातियों के बारे जानकारी सामान्य तौर सबको होती थी। ऐसी जातियां बहुसंख्यक भी हैं। लेकिन कुछ जातियां ऐसी भी हैं, जिनकी संख्या काफी कम है। उनके सामाजिक संगठन के संबंध में जानकारी नहीं थी। इसी में एक जाति है खत्री। यह ब्राह्मण है, भूमिहार है या राजपूत। इसको लेकर अवधारणा स्पष्ट नहीं थी। एक वोटर मिल गए। उनका सरनेम खत्री था। हमें लगा कि क्षत्रिय कह रहे हैं। मैंने उनसे जानना चाहा कि यह कौन जाति है, इसका सामाजिक चरित्र क्या है, इसका पंरपरागत पेशा क्या है। उन्होंने बहुत कुछ इस संबंध में नहीं बताया। लेकिन इतना जरूर बताया कि हसपुरा में पत्रकार हैं वीरेंद्र खत्री। वह हमारे रिश्तेदार हैं। इस जाति की संख्या काफी कम है। उनके वोटरों की संख्या भी कम है। एक जाति है सिंदुरिया बनिया। बस एक परिवार खरांटी में बसा है।
कम आबादी वाली जातियों का वोट विहेवियर को समझना भी जटिल काम था। उनका कोई अपना राजनीतिक एजेंड नहीं होता है। वह पास-पड़ोस व स्थानीय हवा के अनुकूल अपनी रणनीति तय करते हैं। वह चुनाव को लेकर आक्रमक भी नहीं होते हैं और न कोई उन्हें गंभीरता से लेता है। लेकिन कुछ मतों से हार-जीत होने वाले चुनाव में उनकी महत्ता को सिरे नकारा नहीं जा सकता है। यही कारण था कि कम संख्या वाली जातियों तक भी पहुंचने का प्रयास कर रहा था। पूरी पंचायत में संभवत: खरांटी का बिंदा डोम ही अकेला डोम परिवार है। हालांकि उनका बड़ा परिवार था, जिसमें कम से कम 20 वोट अकेले उस परिवार का था। उनमें से कई वोटर बाहर कमाने के लिए भी चले गए थे। इस परिवार में शिक्षा नाममात्र की ही थी।
खरांटी में मेहतरों के कई घर हैं। सब एक ही परिवार से फैले हैं। उनकी भी संख्या अच्छी-खासी है। उस परिवार का एक व्यक्ति हमारा पोलिंग एजेंट बनना चाहता था। मैंने जब पोलिंग एजेंट बनाने से मना दिया तो वह किसी दूसरे उम्मीदवार का पोलिंग एजेंट बन गया था। वोटरों के नाम के साथ मोबाइल नंबर का यह फायदा हो रहा था कि किसी भी समय किसी भी व्यक्ति से बातचीत करना आसान हो गया था। लोग भी कभी-कभार फोन कर लिया करते थे। मैं वोटरों को प्रभावित करने के ओबरा और आसपास के लोगों से उम्मीद कर रखा था। दूबे वोटों के लिए ओबरा के दूबे जी, चौधरी वोटों के लिए ओबरा की चौधरी जाति की एक महिला, भूमिहारों के लिए बालेश्वर सिंह आदि ने अपने स्वजातीय वोटों को दिलाने का आश्वासन दिया था। लेकिन उन लोगों ने इस दिशा में कोई पहल नहीं की। उनको लगता था कि मेरे पक्ष में प्रचार करना उचित नहीं होगा।
चुनाव में अपने पक्ष में हवा बनाने के लिए मैंने हरसंभव प्रयास किया। गांव-गांव, गली-गली घूम रहा था। संपर्क को मजबूत बनाने की पूरी भी की। अपने स्तर पर कोई कसर नहीं छोड़ रखा था, लेकिन किसी भी स्तर पर प्रलोभन का सहारा नहीं लिया। लेकिन वोटरों को उचित सम्मान हर संभव देता रहा था।
(जारी)
लेखक वीरेंद्र कुमार यादव बिहार के वरिष्ठ पत्रकार हैं. हिंदुस्तान और प्रभात खबर समेत कई अखबारों को अपनी सेवा दे चुके हैं. फ़िलहाल बिहार में समाजवादी आन्दोलन पर अध्ययन एवं शोध कर रहे हैं. इनसे संपर्क kumarbypatna@gmail.com के जरिए कर सकते हैं.
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